जीने का सही तरीका (Kahani)

August 1991

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डॉ. राजेन्द्र प्रसाद उन दिनों राष्ट्रपति थे। प्रवास में वे बिहार गये। जूते पुराने हो चुके थे। नये खरीदने की आवश्यकता पड़ी। इसके लिए उन्होंने अपना आदमी

भेजा। वह महँगे दाम का जूता खरीद लाया।

राजेन्द्र बाबू ने उसे वापस लौटाया और सस्ते दाम का जूता बदलवा कर मँगाया।

का संचय अनंत मात्रा में हो सकता है। वह सरस भी इतना है कि उससे आजीवन तृप्ति ही न हो सके।

वस्तुतः कुरूपता और अप्रसन्नता अपने दृष्टिकोण में ही रहती है। उसे बदला जा सके तो सर्वत्र आनन्द ही आनन्द है। यहाँ तक कि मृत्यु का दिन भी नये देश की यात्रा जैसा, नये वस्त्र बदलने जैसा सुहावना प्रतीत हो सकता है। मरण में जो विनाश देखते हैं, उन्हीं के लिए वह दुःखप्रद है अन्यथा नया शरीर लेकर छोड़े हुए अधूरे कामों को पूरा करने के लिए उसे एक सुयोग ही समझा जाना चाहिए। यह हमारे अपने दृष्टिकोण पर ही निर्भर है कि हम बहिरंग जीवन के घटनाक्रमों को किस दृष्टि से देखते हैं। हम अपना नजरिया बदल लें तो सब कुछ अनुकूल नजर आने लगेगा। यही जीवन जीने का सही तरीका भी है।


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