मानसोपचार की कुँजी अपने ही हाथ में

August 1991

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मानवी सत्ता का ध्रुव केन्द्र मस्तिष्क को माना गया है। सामान्यतः मस्तिष्क के दो भाग होते हैं एक मन और दूसरा अंतर्मन। मनोविज्ञान की भाषा में इन्हीं को चेतन और अवचेतन के नाम से जाना जाता है। अवचेतन मन ही है जो चेतन मन से शरीर के सम्पूर्ण क्रिया-कलापों का नियंत्रण और संचालन करने का कार्य सम्पन्न कराता रहता है। चूँकि इसका मूल स्त्रोत मनुष्य की अंतरात्मा है इसलिए स्व-संकेत या सुझाव एवं आत्म-सुधार की प्रक्रिया इस प्रयोजन की पूर्ति में सक्रिय भूमिका निभाती है।

सुझाव शब्द का सीधा संबंध मनुष्य के मनोभावों से होता है, जो उसके आचरण की मर्यादाओं को निर्धारित करते और उपयुक्त मार्गदर्शन की व्यवस्था जुटाते हैं। इन मनोभावों को अन्तःकरण में उमड़ने वाली इच्छाओं और उमंगों का प्रतिबिम्ब भी कहा जा सकता है। मनुष्य के विचारों और कार्य पद्धति का निर्धारण इन्हीं के अनुरूप होता रहता है। आत्म सुझाव की प्रेरणाएँ भी यहीं से उभरती हैं।

फ्राँस के सुप्रसिद्ध मनोविज्ञानी एमिल कोव ने आत्म-सुझाव की स्व-संकेत की प्रक्रिया पर गहन अनुसंधान किया है। उनके कथानुसार साँसारिक एवं बाह्य परिस्थितियाँ हर क्षण बदलती रहती हैं और तदनुरूप मनुष्य की मनःस्थिति प्रभावित होती है। कई घटनाएँ जीवन में आशा और प्रसन्नता की किरणें फैलाती हैं तो कई अप्रसन्नता, खीज और निराशा की स्थिति उत्पन्न करती देखी गई हैं। दैनिक जीवन की नब्बे प्रतिशत घटनाओं में मनुष्य अपने मनोभावों को ही प्राथमिकता देता और अभिरुचिओं के अनुरूप अपनी कार्यशैली का निर्धारण करता है। सुझाव और सुधार के निर्देशन भी उसी स्तर के मानने को तैयार है।

विज्ञापनों में प्रायः जनसाधारण के अंतर्गत को प्रभावित करने की तकनीक ही अपनाई जाती है। बौद्धिक एवं चेतन मन स्तर तक सीमित रहने वाली प्रचार-प्रसार सामग्री प्रभावशील सिद्ध नहीं हो सकती। अवचेतन मन में प्रदर्शित वस्तुओं के प्रति आकर्षण उभरने पर ही व्यक्ति उसे खरीदने के लिए तत्परता दिखायेगा। वस्तु की माँग भी तभी होती है। अन्यथा चेतन मन में तो इच्छाओं की ललक उठती ही रहेगी। लेकिन इच्छाओं की आपूर्ति हेतु साधन और साहस जुटाने की व्यवस्था अंतर्मन ही जुटा पाता है। युद्धकालीन संकटग्रस्त परिस्थितियों में हर राष्ट्र प्रचार प्रसार के माध्यम से नागरिकों की अन्तः चेतना को जगाता और विरोधी ताकतों से जूझने के लिए प्रेरणा उभारता है, फलतः उस देश के लोग राष्ट्रीय सुरक्षा हेतु मर मिटने तक को तैयार हो जाते हैं। वस्तुतः इसे अंतर्मन की शक्ति का उभार ही कहना चाहिए।

शारीरिक एवं मानसिक गतिविधियों के संचालन की शक्ति अंतर्मन यानी अवचेतन मस्तिष्क से ही आती है। एक मोटर चालक के लिए सड़क का मानचित्र उसका बौद्धिक मार्गदर्शक हो सकता है। जिससे वह यात्रा संबंधी कठिनाइयों के समाधान का लाभ उठाता है। मार्ग का सही ज्ञान चालक को है, तो ही चेतन मन काम करने में सफल हो सकता है। यदि वह दिग्भ्रान्त है तो मार्गावरोध खड़ा होता है। इन भ्रमित कर देने वाली परिस्थितियों में अवचेतन मन ही गन्तव्य स्थान तक पहुँचाने में सहायक सिद्ध होता है। यह स्व-संकेत के सहारे ही पूरा होता है।

अवचेतन मन की परत को थोड़ा सा कुरेदा जाय तो पता चलता है कि आत्म-विश्वास की जाग्रति का केन्द्र बिंदु यहीं है। माना कि कोई व्यक्ति धूम्रपान की आदत से ग्रसित है और उससे छुटकारा पाना चाहता है तो उसे अंतर्मन की सद्प्रेरणाओं के स्त्रोत को उभारना पड़ेगा। “मैं धूम्रपान छोड़ सकता हूँ” की प्रबल धारणा यदि उस क्षेत्र में समाविष्ट हो जाय, तो कुछ ही दिनों में उस दुर्व्यसन से आसानी से पीछा छुड़ाया जा सकता है। “द पावर ऑफ ऑटो-सजेशन” नामक अपनी कृति में प्रख्यात मनोविज्ञानी पीटर फ्लैचर ने अपने प्रयोग परीक्षणों के निष्कर्षों को प्रस्तुत करते हुए बताया है कि अंतर्मन की गहरी परतों में जब इस तरह का दृढ़ निश्चय जमने लगे तो समझना चाहिए कि दुर्व्यसनों का परित्याग कर सकना अब संभव है।

फ्लैचर का कहना है कि आत्म-सम्मान की जिज्ञासा सभी व्यक्तियों में समान रूप से पाई जाती है, जो उसकी मूल सत्ता का आभास कराती है। लेकिन स्मृतियों के धुँधलेपन के कारण वह उसे भूल बैठता है और तरह-तरह के दुर्व्यसनों का शिकार होता चला जाता है। इस तथ्य का रहस्योद्घाटन उन्होंने अपने मित्र के उदाहरण के माध्यम से किया है। उनका वह मित्र एक सरकारी अस्पताल में चिकित्सा अधिकारी के पद पर कार्यरत था जो अपनी धूम्रपान की आदत से परेशान था, प्रयत्न करने के बाद भी लत नहीं छूट रही थी। संयोगवश उन्हें उसी अस्पताल का अधीक्षक नियुक्त कर दिया गया। अस्पताल की नियमावली के अनुसार कार्य के समय धूम्रपान वर्जित होता है। यद्यपि अधीक्षक महोदय को अपने धूम्रपान के इस दुर्व्यसन का परित्याग करने में काफी कष्ट का अनुभव हुआ फिर भी आत्म सम्मान की अभिलाषा ने उनकी यह लत छुड़ा कर ही रखी। नेतृत्व की क्षमता पर आँच न आने देने के लिए उन्होंने इस तरह का दृढ़ निश्चय अपने अंतर्मन में जगाया। इस प्रकार की स्व-शिक्षण की, स्व-सुझाव की प्रक्रिया ने एक सप्ताह के भीतर ही उनको दुष्प्रवृत्ति छोड़ने और नयी प्रेरणाएँ ग्रहण करने को विवश कर दिया।

शरीर और मन का अन्योन्याश्रित संबंध है। मानसिक संवेगों का शरीर पर प्रभाव पड़ता है। जम्हाई मन को अनुभव होती है किन्तु इसका प्रभाव मानवी काया पर पड़ता है। रक्त शिराओं में जलन जैसी अनुभूति होने लगती है। कुछ लोग तो ऐसी स्थिति में उलटी मिचली का शिकार बनते हैं। बेहोशी और मूर्छा आने पर हृदय फेफड़े, पाचन-संस्थान और ग्रन्थियों के स्राव में व्यतिरेक उत्पन्न होते देखा गया है। वैज्ञानिकों द्वारा किये गये परीक्षणों से यह तथ्य उभर कर आया है कि शरीर के किसी भी भीतरी अंग-अवयव पर यदि ध्यान केन्द्रित किया जाय तो उनकी क्रियाशीलता स्वतः अवरुद्ध होने लगती है। हृदय की गति पर भी यदि निरन्तर चिन्तन करते रहा जाय तो उसकी धड़कनों में व्यतिक्रम उत्पन्न होता है। चिन्तातुर व्यक्ति को ‘नर्वस डिस्पेप्सिया’ यानी अपच की शिकायत प्रायः बनी ही रहती है। मस्तिष्क के चेतना प्रवाह, अवचेतन मन की गरिमा पर जब विचार किया जाता है तो प्रतीत होता है कि जीवन का अस्तित्व स्वरूप और भविष्य भी उसी केन्द्र के साथ जुड़ा हुआ है। स्व-संकेत, आत्म-सुझाव एवं आत्म सुधार की क्षमताओं का प्रयोग इसी क्षेत्र में बन पड़ता है। विचार प्रवाह में क्रमबद्धता का उपक्रम बिठाकर इस पर नियंत्रण साधा जा सकता है। कुछ विचार तो स्वभावगत होते हैं जो जन्म जन्मान्तरों से चले आते हैं और कुछ वंशानुगत। स्व-संकेत एवं स्व-सम्मोहन प्रक्रिया को अपनाकर चिन्तन की विकृति को आसानी से दूर करके सद्विचारों का बीजारोपण कर सकना संभव है।


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