दैवी अनुकम्पा एवं संकल्पशक्ति का चुम्बकत्व

August 1991

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अनगढ़ और पुरुषार्थी दो स्तर के लोग आम जनता के बीच पाये जाते हैं। उन्हीं को गरीब-अमीर, सफल-असफल भी कहते हैं, किन्तु इन सबसे ऊँचा एक और स्तर है, जिसे देव मानव कहकर सराहा जाता है। प्रतिभाशाली उपयुक्त सफलताएँ पाते हैं, भले ही उसका दुरुपयोग करके अपयश के भाजन ही क्यों न बनें? किन्तु जिन्होंने अपने गुण, कर्म, स्वभाव को सुनियोजित, सुसंस्कृत बना लिया है, उनके लिए आत्मिक संतोष, लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह तीनों ही सुरक्षित रहते और दिन-दिन समुन्नत होते जाते हैं। वस्तुतः व्यक्तित्व का परिष्कार और उदारीकरण ही वह योगाभ्यास है, जिसके माहात्म्य को लोक और परलोक की अभीष्ट सफलताएं देने वाला बताया गया है। प्रखर प्रतिभा का उद्गम स्त्रोत ईश्वर है, जिसे दूसरे शब्दों में सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय भी कहा जा सकता है। मनुष्य जीवन में वह गरिमामयी आदर्शवादिता और उत्कृष्टता के रूप में ही अवतरित होती है। पूजा-उपासना के समस्त कर्मकाण्डों का उद्देश्य इसी आन्तरिक वरिष्ठता का सम्पादन और अभिवर्धन करना है।

मशीनों में बिजली का प्रवाह कम मात्रा में पहुँचता है, तो उनकी चाल बहुत धीमी पड़ जाती है, पर जैसे-जैसे वह विद्युत प्रवाह बढ़ता है, वैसे ही-वैसे उन सब में तेजी, गति, शक्ति बढ़ती जाती है। चेतना का काम चलाऊ अंश तो प्राणि मात्र में रहता है, जिससे वह किसी प्रकार अपनी जीवनचर्या चलाता रह सके। यह जन्मजात है, किन्तु जब कभी इसकी अतिरिक्त मात्रा की आवश्यकता पड़ती है, तो यह कार्य योग और तपपरक साधना करती है। इन दोनों का तात्पर्य प्रकारान्तर से प्रतिभा और सेवा साधना में सरसता अनुभव होने की प्रकृति ही समझी जा सकती है।

योगदर्शन में अष्टाँग साधना में सर्वप्रथम यम-नियम की गणना की गई है। यह अन्तरंग और बहिरंग सुव्यवस्था के ही दो रूप हैं। जिसने इस दिशा में जितनी प्रगति की, समझना चाहिए कि उसे उतनी ही आत्मिक प्रगति हस्तगत हुई और उसकी क्षमता उस स्तर की निखरी, जिसका वर्णन महामानवों में पाई जाने वाली ऋद्धि-सिद्धियों के रूप में किया जाता है। उपासनात्मक समस्त कर्मकाण्डों की संरचना इसी एक प्रयोजन के लिए हुई है, कि व्यक्ति की पशु-प्रवृत्तियों के घटने और दैवी सम्पदाओं के बढ़ने का सिलसिला क्रमबद्ध रूप से चलता रहे। यदि उद्देश्य का विस्मरण कर दिया जाय और मात्रा पूजा परक क्रिया-कृत्यों को ही सब कुछ मान लिया जाय, तो यह चिन्ह-पूजा का निर्जीव उपक्रम ही माना जायगा और उतने से बढ़ी-चढ़ी उपलब्धियों की आशा करने वालों को निराश ही रहना पड़ेगा।

समर्थ पक्षियों के नेतृत्व में अनेकों छोटी चिड़ियाँ उड़ान भरती हैं। बलिष्ठ मृग के परिवार में आश्रय पाने के लिए उसी जाति के अनेक प्राणी सम्मिलित होते जाते हैं। चींटियां कतार बनाकर चलती हैं। बलिष्ठ आत्मबल के होने पर दैवी शक्तियों का अवतरण आरंभ हो जाता है और साधक क्रमशः अधिक सिद्ध स्तर का बनता जाता है। यही है वह उपलब्धि, जिसके सहारे महान प्रयोजन सधते और ऐसे गौरवास्पद कार्य बन पड़ते है, जिन्हें सामान्य स्तर के लोग प्रायः असंभव ही मानते रहते हैं।

बड़ी उपलब्धियों के लिए प्रायः दो मोर्चे सँभालने पड़ते हैं-एक यह कि अपनी निजी दुर्बलताओं को घटाना-मिटाना पड़ता है। उनके रहते मनुष्य में आधी चौथाई शक्ति ही शेष रह जाती है। अधिकाँश तो निजी दुर्बलताओं के छिद्रों से होकर बह जाती है। जिनके लिए अपनी समस्याओं को सुलझाना ही कठिन पड़ता है, वह आपके क्षेत्र के बड़े कामों का सरंजाम किस प्रकार जुटा सकेंगे। भूखा व्यक्ति किसी भी मोर्चे पर जीत नहीं पाता। इसी प्रकार दुर्गुणी व्यक्ति स्वयं अपने लिए इतनी समस्या खड़ी करता रहता है, जिनके सुलझाने में उपलब्ध योग्यता का अधिकाँश भाग खपा देने पर भी यह निश्चय नहीं होता कि अन्य महत्वपूर्ण कार्य सम्पादित करने के लिए कुछ सामर्थ्य बचेगी, या नहीं।

बच्चों को लोरी गा कर सुला दिया जाता है। झूले पर हिलते रहने वाले बच्चे भी जल्दी सो जाते हैं। रोने वाले बच्चे को अफीम चटा कर खुमारी में डाल दिया जाता है। इसी प्रकार व्यक्ति को भी कुसंग में, दुर्व्यसन में आलस्य-प्रमाद का आदि बना कर ऐसा कुछ बना दिया जाता है, मानों वह अर्धमृत या अर्धविक्षिप्त अनगढ़ स्थिति में रह रहा हो। ऐसे व्यक्ति पग-पग पर भूलें करते और कुमार्ग पर चलते जाते हैं। उपलब्धियों का आमतौर पर ऐसे ही लोग दुरुपयोग करते और घाटा उठाते हैं, किन्तु जिनने इस अनौचित्य की हानियों को समझ लिया है, उनके लिए आत्मानुशासन कठिन नहीं रहता, वरन् उसके मार्ग में आने वाली कठिनाईयों को उससे कहीं अधिक हलकी अनुभव करते हैं, जो कुमार्ग पर चलने वाले को पग-पग पर उठानी पड़ती है। परमार्थ कार्यों में समय और साधनों का खर्च तो होता है, पर वह उतने दुष्परिणाम उत्पन्न नहीं करता, जितने कि संकीर्ण स्वार्थपरता अपना कर तत्काल दीखने वाले लाभों के व्यामोह में निरन्तर पतन और पराभाव ही हाथ लगा है।

हर महत्वपूर्ण कार्य के लिए प्रतिभाशाली व्यक्तित्व चाहिए, अन्यथा असावधान एवं अनगढ़ जितना कुछ कर पाते हैं, उससे अधिक हानि करते रहते हैं। ऐसों की न कहीं आवश्यकता होती है, न इज्जत और न उपयोगिता। ऐसी दशा में उन्हें जहाँ-तहाँ ठोकरें ही खाते देखा जाता है। इसके विपरीत उन जागरुक लोगों का पुरुषार्थ है, जो पूरे मनोयोग के साथ काम को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाते हैं और उसमें समूची शक्ति लगाकर लक्ष्य तक पहुँच कर दिखाते हैं। बड़प्पन ऐसों के हिस्से में ही आता है। बड़े काम संपन्न करते ऐसे ही लोग देखे जाते हैं, बड़ाई उन्हीं के हिस्से में आती है। साधन तो सहायक भर होते हैं। वस्तुतः मनुष्य की क्षमता और दक्षता उसके गुण, कर्म, स्वभाव के निखार पर निर्भर रहती है।

अध्यात्म जादूगरी नहीं है और न कहीं आसमान से बरसने वाले वरदान-अनुदान। देवी-देवताओं का भी यह धंधा नहीं है कि चापलूसी करने वालों को निहाल करते रहे और जो इनके लिए ध्यान न दे सकें, उन्हें उपेक्षित रखें या आक्रोश का भाजन बनायें। वस्तुतः देवत्व आत्म जागरण की एक स्थिति विशेष है, जिसमें अपने ही प्रसुप्त वर्चस्व को प्रयत्नपूर्वक काम में लाया जाता है और सत्प्रयासों का अधिकाधिक लाभ उठाया जाता है।

कहते हैं कि भगवान शेष-शैय्या पर सोते रहते हैं। कुसंस्कारी लोगों के भगवान उन बचकानों की बेहूदी धमा-चौकड़ी से तंग आकर आंखें मूँदकर इसी प्रकार जान बचाते हैं, पर जो मनस्वी उनकी सहायता से कठिनाइयों में त्राण पाना चाहते हैं, उनके लिए द्रौपदी या गज की तरह उसकी कष्ट निवारण शक्ति भी दौड़ी आती है। जिन्हें वर्चस्व प्राप्त करना होता है, उन्हें सुदामा, नरसी, विभीषण, सुग्रीव की तरह अयाचित वैभव भी प्रचुर परिमाण में हस्तगत होता है।

इच्छा शक्ति संसार की सबसे बड़ी सामर्थ्य है। साहस भरे संकल्प बल से बढ़ कर इस संसार में और कोई बलिष्ठ नहीं। इन्हीं को अर्जित करते जाना जीवन का वास्तविक लक्ष्य है, क्योंकि स्वर्ग-मुक्ति जैसे आध्यात्मिक और ऋद्धि-सिद्धि जैसे भौतिक लाभ इसी आधार पर अब तक उपलब्ध किये जाते रहे हैं व आगे भी यही राज मार्ग इन उपलब्धियों के लिए खुला पड़ा है।


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