प्रतिभाओं की पहचान व अवतरण की सुनिश्चितता

August 1991

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अक्सर माँ-बाप और अड़ोस-पड़ोस के लोगों को यह शिकायत रहती है कि बच्चा बड़ा शरारती है, इससे निजात कैसे पाया जाय। पर अब ऐसे बच्चों से चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है। यदि वह शरारती है, तो यह माना जा सकता है कि वह मेधावी है और किसी न किसी क्षेत्र में असाधारण प्रतिभा सँजोये हुए है। यह बात और है कि उसकी उस प्रतिभा की पहचान कर पाना अभिभावक एवं अध्यापक के लिए असंभव हो, पर शोध निष्कर्ष यही बताते हैं कि ऐसे बालक प्रायः मेधा के धनी होते हैं।

कई प्रकरणों में देखा गया है कि ऐसे छात्र पढ़ाई-लिखाई के क्षेत्र में तो सामान्य होते हैं, पर अन्य क्षेत्रों में असाधारण साबित होते हैं। ऐसे ही एक वैज्ञानिक थे आस्ट्रेलिया के डोनाल्ड फिशरमैन। बाल्यकाल में उनके ऊधमों से परेशान होकर स्कूल के प्रिंसिपल ने पहले तो माँ-बाप को कई चेतावनियाँ दी कि आपका बच्चा पढ़ने के बजाय मौज-मस्ती और मारपीट में अधिक संलग्न रहता है। स्कूल में जो कुछ भी पढ़ाया जाता है, उस पर वह ध्यान नहीं देता, अतः आप अपने पुत्र को स्वयं समझायें, नियमित रूप से विद्यालय आने की सलाह दें और पढ़ाई में रुचि पैदा करने के प्रति प्रोत्साहित करें। जब स्कूल से इस आशय का शिकायत-पत्र आया, जिसमें कहा गया था कि आपका बच्चा शरारती तो है ही, साथ ही साथ पढ़ने में फिसड्डी भी है, तो उसके माता-पिता पत्र पढ़ कर दंग रह गये। सोचने लगे, जो बालक दफ्ती के टुकड़ों से हवाई जहाज का मॉडल और टेलीफोन जैसे यंत्र की कृति बना सकता है, वह बुद्धिहीन कैसे हो सकता है? अवश्य ही अध्यापकों के बीच बालक के प्रति कहीं-न-कहीं कोई भ्रम पनप रहा है, जिसे वे समझ नहीं पा रहे हैं।

जब बालक से इस संदर्भ में पूछ-ताछ की गई, तो उसने इसे स्पष्ट शब्दों में स्वीकारा कि विद्यालय जाने में मुझे कोई रुचि नहीं वहाँ जिन विषयों की शिक्षा दी जाती है, उसमें हमारा तनिक भी मन नहीं लगता। मैं कुछ बनाना और अनुसंधान करना चाहता हूँ। अस्तु आप लोग मुझे विद्यालय जाने के लिए विवश न करें। जितना कुछ जानना-सीखना था, वहाँ से मैंने उतना सीख लिया है। अब मैं घर रह कर ही कुछ याँत्रिक कार्य करना चाहता हूँ।” पुत्र के इस आग्रह के आगे माता-पिता को झुकना पड़ा और जिन-जिन चीजों की उसने माँग की, उन्हें इकट्ठा कर उन्होंने उसके लिए एक छोटी प्रयोगशाला स्थापित कर दी। दो-तीन घंटे तक माता-पिता से औपचारिक शिक्षा प्राप्त कर वह शेष समय अपनी छोटी अनुसंधानशाला में बिताता। उसके आरंभिक कार्यों को देखकर माँ-बाप भी उसे प्रोत्साहित करते। इस प्रकार समय बीतने के साथ-साथ वह छोटे-छोटे वैज्ञानिक यंत्र-उपकरण बनाने लगा। बाद में चलकर उसने अनेक ऐसे उपकरण बनाये, जो विज्ञान के लिए वरदान सिद्ध हुए। आज सभी जानते हैं कि यदि तब फिशरमैन को प्रोत्साहित नहीं किया गया होता उनकी रुचि की उपेक्षा कर दी जाती, तो विज्ञान एक प्रतिभावान वैज्ञानिक से वंचित रह जाता।

एक कथा है कि एक व्यक्ति एक ऐसे जनरल की खोज में था, जो अदम्य उत्साह और अद्भुत साहस का धनी हो, जिसने कभी युद्ध क्षेत्र से पीठ दिखाने और जान बचा कर भाग निकलने को पसंद नहीं किया। उक्त जनरल की तलाश करते-करते वह स्वर्गलोक पहुँच गया, जहाँ सेण्ट पीटर उसे एक आत्मा के निकट ले गये और उसकी ओर इंगित करते हुए कहा “यह वही व्यक्ति है, जिसकी तलाश में अब तक तुम दर-दर की खाक छानते रहे।” किंतु खोजी व्यक्ति ने उसे जनरल मानने से साफ इनकार कर दिया। कहा- “इसे तो मैं तब भी जानता था, जब यह जीवित था, तब तो यह जूते गाँठने का धन्धा करता था, फिर यहाँ आकर यह जनरल किस भाँति बन गया।” यह मोची ही था, किंतु प्रारम्भ में ही यदि इसकी प्रतिभा पहचान ली जाती, तो यह मोची बना नहीं रहता, संसार का अद्वितीय जनरल साबित होता।”

यह सत्य है कि प्रतिभा की पहचान नहीं होने के कारण विश्व कई ऐसी मेधा सम्पन्न प्रतिभाओं को खो देता है, जिनकी यदि समय रहते रुचि व प्रवृत्ति जान ली गई होती, तो दुनिया का इतिहास आज कुछ और ही होता। इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखकर रूस में स्थान-स्थान पर ऐसे स्कूलों की स्थापना की गई है, जहाँ आरंभ काल में ही बच्चों की रुचि और मनोवृत्ति की परख की जा सके। इन विद्यालयों को स्कूल की अपेक्षा नौनिहालों का कौतुक स्थल कहना अधिक उपयुक्त होगा, क्योंकि यहाँ उन्हें कुछ पढ़ाया-सिखाया नहीं जाता, वरन् एक ऐसे कमरे में स्वतंत्र छोड़ दिया जाता है, जहाँ भाँति-भाँति के उपकरण यथा कागज, कलम, छोटे लौह यंत्र, हल-बैल का छोटा मॉडल, स्वचालित चलते फिरते खिलौने, नृत्य करती गुड़ियाएँ एवं अन्य ऐसे ही दूसरे छोटे उपकरण रखे होते हैं। बालक जिनसे छेड़छाड़ करना अधिक पसन्द करता है व जिसकी ओर अधिक आकर्षित होता है, वही उसकी मूलभूत रुचि मान ली जाती है और बड़े होने पर पुनः उसे उसी क्षेत्र की शिक्षा दी जाती है। अब तक के इसके परिणाम भी बड़े उत्साहवर्धक रहे हैं। इस विलक्षण तरीके से प्रतिभा-जाँच से गुजरे बालक बाद में इसी क्षेत्र के दूसरे वैसे बालकों से कही अधिक प्रवीण पारंगत देखे गये, जो इस जाँच-पड़ताल से नहीं गुजरे थे। इस आशय का विस्तृत विवरण सन् 1981 में रूस से प्रकाशित होने वाली पत्रिका “स्पूतनिक” ने निकाला था।

मनोवैज्ञानिकों ने ऐसे शरारती प्रतिभा सम्पन्न बालकों में शोध के दौरान कई विशिष्टताएँ देखी हैं, इनमें से प्रथम है उनकी तीक्ष्ण स्मरण शक्ति। उनके अनुसार ऐसे छात्र किसी बात को एक बार सुन पढ़ लेने के बाद मस्तिष्क में उसे इस प्रकार ग्रहण-धारण कर लेते हैं कि दुबारा उसे याद करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसके अतिरिक्त उनकी बातें वजनदार और सारगर्भित होती हैं। जो कुछ वे बोलते हैं, वे तर्क व तथ्यपूर्ण होते हैं। उनमें जिज्ञासा की प्रवृत्ति होती है, कल्पना की शक्ति होती है, भावाभिव्यंजना की क्षमता एवं नेतृत्व की योग्यता होती है। वे अनेक ऐसे प्रश्न कर सकते हैं, जिनका सही-सही जवाब दे पाना बड़े-बड़ों को कठिनाई में डाल सकता है। वे शारीरिक, मानसिक, सामाजिक व भावनात्मक क्षेत्र में सामान्य बालकों की तुलना में अधिक श्रेष्ठ तथा सफल होते हैं। तीव्र मेधा सम्पन्न होते हैं, सो अतिरिक्त, आज ऐसे बच्चों की एक पूरी पीढ़ी हम सब के बीच विद्यमान है।

वस्तुतः मेधा अथवा बुद्धि से अर्थ अब तक प्रायः उच्च बुद्धिलब्धि (आई.क्यू.) से लगाया जाता रहा है और लम्बे समय से वह मेधावी का पर्याय बना रहा है, पर मनोविज्ञानी बताते हैं कि मेधावी एक बहुअर्थगामी शब्द है, जिसका अर्थ सिर्फ शैक्षणिक योग्यता तक ही सीमित नहीं माना जाना चाहिए। उनके अनुसार एक अनपढ़ टैक्नीशियन अथवा मशीनमैन भी मेधावी हो सकता है। यह बात और है कि उसकी मेधा याँत्रिक क्षेत्र की दिशा में विकसित हुई है। इसी प्रकार दूसरे क्षेत्र के लोग यथा-वाणिज्य, व्यापार, सिलाई, कढ़ाई, गायन-वादन, नृत्य अभिनय, गृहकार्य बातचीत, व्यवहार कुशलता जैसी विधाओं में भी प्रवीण पारंगत और तीक्ष्ण बुद्धि सम्पन्न हो सकते हैं। शोध के दौरान देखा भी गया है कि जो बालक पढ़ाई में असफल होते हैं, वे कई अन्य क्षेत्रों में अद्भुत मेधा का प्रदर्शन करते हैं। अतः ऐसी स्थिति में इन्हें मेधावी कहना अनुपयुक्त व अनुचित न होगा, अनेक अवसरों पर ऐसे प्रकरण भी सामने आये हैं, जिनमें बालक को मूर्ख कहा जाय या मेधावी-ऐसी असमंजस की स्थिति पैदा हो जाती है, क्योंकि ऐसे संदर्भों में बालक से जब सामान्य जोड़-घटाव करने को कहा जाता है, तो वह बगलें झाँकने लगता है, किन्तु उसकी आयु और स्तर के हिसाब से अनेक गुने कठिन सवाल पूछे जाते हैं तो वे उनका उत्तर बड़ा सरलता से दे देते हैं। ऐसा ही एक बालक अभी-अभी पेरिस में प्रकाश में आया है। लॉरेन्स नामक इस बालक की उम्र भी पन्द्रह वर्ष है, परन्तु अपने से उच्च कक्षाओं के प्रश्न वह आसानी से हल कर लेता है, किन्तु सामान्य सवाल पूछे जाने पर उसे पसीना आने लगता है। इसी कारण लोग उसे “इडियट जिनियस” (मेधावी मूर्ख) के नाम से पुकारते हैं।

यह सत्य है कि हर बालक में अलग-अलग प्रतिभा के लिए जिम्मेदार मस्तिष्कीय भाग समान रूप से विकसित नहीं होते। किसी का कला (चित्रकला, शिल्पकला) वाला हिस्सा विकसित होता है, तो कोई अपना हस्तकौशल साहित्य के क्षेत्र में दिखाने लगता है। इतने पर भी उन्हें होनहार न कहा जाय, तो उनके साथ एक प्रकार से अन्याय करना ही होगा। वे भी मेधावी कहलाने के उतने ही हकदार हैं, जितने पढ़ाई के क्षेत्र में प्रतिभा सम्पन्न कोई बालक।

अब यह सुनिश्चित करना कि किसी माता-पिता की संतान में किस प्रकार की क्षमता और विशिष्टता निहित है, अभिभावक का कर्तव्य है। यह कार्य भी कोई बहुत जटिल नहीं है। आरंभ से ही उनके कार्यों का सूक्ष्मतापूर्वक अध्ययन करके यह भली-भाँति जाना जा सकता है कि बच्चों का रुझान किस ओर है। बस, इतना विदित हो जाने के बाद उसी दिशा में उन्हें प्रेरित, प्रोत्साहित करके उक्त क्षेत्र में प्रतिभा सम्पन्न बनाया जा सकता है, पर आज के माँ-बाप पढ़ाई में बच्चे की असफलता देख कर उन्हें मूर्ख मानने की गलती कर बैठते हैं और इतने भर से ही उन्हें हर क्षेत्र में अयोग्य घोषित कर देते हैं, जब कि बात ऐसी नहीं। आइन्स्टीन आरंभ में बिल्कुल मंदबुद्धि बालकों जैसा अपना परिचय देते रहे, किन्तु जब उनकी सही रुचि और रुझान का कार्य मिला तो वे विश्व के मूर्धन्य वैज्ञानिक बन गये। अतः बच्चा पढ़ने में विफल रहा तो उसे बिल्कुल गया-गुजरा और अयोग्य नहीं मान लेना चाहिए।

रही बात बालक के अतिशय नटखटपन व ऊधमी होने की तो इसे भी प्रतिभा की एक निशानी मानी जानी चाहिए। राम कृष्ण परमहंस आरंभ में बहुत शरारती थे, पर अध्यात्म की जिन ऊंचाइयों को वे छू सके, वह किसी से छुपा नहीं है। यह बात और है कि उन्होंने दाल-रोटी कमाने वाली शिक्षा में कोई रुचि नहीं दिखायी। इसी प्रकार चैतन्य महाप्रभु के बारे में कहा जाता है कि जब वे छोटे थे, तो लोगों को तरह-तरह से इतना परेशान किया करते थे कि वह सब उनसे मुक्ति पाने और शिकवा-शिकायत करने घर पहुँच जाया करते थे, पर फिर भी इनकी शरारत में कमी नहीं आती, किन्तु यह भी सर्वविदित है कि उन दिनों जितनी अल्पवयस में उन्होंने आचार्य पद ग्रहण कर अपनी विलक्षण बुद्धि का परिचय दिया था, उससे न केवल नवद्वीप और बंगवासी वरन् दूर-दूर के लोग उनकी अद्वितीय प्रतिभा के कायल बन गये थे।

वस्तुतः बालक की प्रतिभा के संस्कारों को पहचान कर, उनके सही पोषण की व्यवस्था करना एक ऐसी विधा है, जिसके विकास की इन दिनों अत्यधिक आवश्यकता है। श्रेष्ठ आत्माएँ भी जब अपने आसपास उपयुक्त वातावरण नहीं देखती तो घुटन भरी स्थिति में अधिक देर रहना नहीं चाहती। वे अवतरित तो होती हैं किन्तु अनुकूल प्रयास न होते देख सुसंस्कारी वातावरण न पाकर दैवी लोक चल देती हैं। फिर एक सामान्य बालक ही हम सबके बीच रह जाता है। यदि घरों में श्रेष्ठ संस्कारों के अभिसिंचन पोषण की समुचित व्यवस्था की जाती रहे तो महामानवों के अवतरण के लिए एक क्षेत्र तैयार होता है। देवस्थापना कार्यक्रम मूलतः उसी उद्देश्य के लिए भारत ही नहीं विश्वभर में प्रचलित किया गया है कि प्रतिभाओं के अवतरण हेतु एक राजमार्ग के विकसित होने की प्रक्रिया का शुभारम्भ हो। श्रेष्ठ आध्यात्मिक वातावरण पाकर प्रतिभाओं को अपने विकास की व सतयुगी संभावनाओं को साकार करने की प्रेरणा मिले। आज के आस्था संकट के युग में महामानवों के अवतरण की आवश्यकता है। जहाँ वे जन्म ले चुके हैं, उन्हें सही बोध होने की आवश्यकता है कि उनके धरती पर आने का उद्देश्य क्या है। हम श्रेष्ठता से अभिपूरित संस्कारमय वातावरण परिवारों में देकर सर्वांगपूर्ण सुख-शाँति का पथ प्रशस्त कर सकते हैं।


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