इंग्लैण्ड के रैदास जोसिफ पोण्डल ने अपने समय में असाधारण प्रतिष्ठा अर्जित की थी। वे ऊँचे दर्जे के दार्शनिक और सिद्धाँतवादी समझे जाते थे। उनने आजीविका उपार्जन के लिए पुराने जूतों की मरम्मत का काम चुना था। उसमें उनने बरबादी की बचत का लाभ नागरिकों को देने की बात सोची थी और यह भी ध्यान रखा कि उन्हें ऊँचे व्यवसाय के कारण कोई वरीयता न मिले।
प्रज्ञायोग के साधकों को अपना आहार-विहार और व्यवहार ऐसा रखना चाहिए, जिससे उनके चरित्र चिन्तन एवं क्रियाकलाप का स्तर गिरने न पाये। प्रज्ञायोग की छः भागों में विभक्त कृत्य साधना का निर्धारण तो स्पष्ट ही है पर उसकी साधना, सुसंस्कारिता की जीवन साधना और लोकमंगल की परमार्थ साधना को भी एक पक्ष माना जाना चाहिए। इसे आराधना की संज्ञा देनी चाहिए। तभी आत्मिक प्रगति का त्रिवेणी संगम बन पड़ता है।
यदि अपने समग्र रूप में यह योग साधना नियमित रूप से की जाती रहे तो अल्प समय में ही सद्गुणों के विकास, कार्यक्षमता की वृद्धि, तनाव, शैथिल्य, आभामण्डल में वृद्धि प्रभावोत्पादकता तथा लोक सम्मान-जनसहयोग के रूप में इसकी परिणतियाँ देखी जा सकती हैं। अष्टाँग योग के उच्चतम सोपानों पर कदम रखने वाले इस प्रारम्भिक अभ्यास को पहले कर लें तो बड़ी उपलब्धियाँ तो सहज ही मिल जाती हैं।