महामानवों की मनोवैज्ञानिक व आध्यात्मिक “एनाटॉमी”

August 1991

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मनः स्थिति परिस्थितियों की जन्मदात्री है। मनुष्य के सुख दुःख, विकास अथवा पतन के लिए मुख्यतः वही जिम्मेदार है। परिस्थितियों की अपनी स्वतन्त्र सत्ता तो है पर मनुष्य की प्रगति अवगति में उनकी नगण्य भूमिका है। मूलतः कारण आन्तरिक स्थिति ही होती है। मन का विलक्षण सामर्थ्य और सम्भावनाओं को देखकर ही ऋषियों ने उसे व्यक्तित्व के प्रत्यक्ष घटकों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना तथा यहाँ तक कहा था कि मनुष्य का मन ही उसके बन्धन अथवा मुक्ति का कारण है।

प्रगति की आकाँक्षा रखने तथा महानता का मार्ग चयन करने वालों को सर्व प्रथम मन को ही समझाना, संभालना तथा सुधारना पड़ता है। अनगढ़ रहने पर वह अड़ियल घोड़े की तरह परेशान करता तथा विकास का मार्ग अवरुद्ध करता है। सुगढ़ता प्राप्त करते ही वह घोड़े के समान सवारी ढोने, भार लादने की तरह इच्छाओं, आकाँक्षाओं का सही नियोजन तथा पूर्ण मनोयोग का परिचय देकर अनेकों प्रकार का सहयोग देता है। उसका स्तर निकृष्ट हो तो पतन पराभव का मार्ग स्वमेव ही खुल जाता है। अनियन्त्रित निरुद्देश्य इच्छाएँ हवा के साथ उड़ने वाले तिनकों की भाँति भटकती रहती हैं। उनसे कोई विशेष प्रयोजन पूरा नहीं हो पाता।

श्रेयस का पथ अपनाने तथा महानता का वरण करने की जिन्हें आकाँक्षा है, उन्हें साधनात्मक प्रयत्न करना जितना आवश्यक है, उतना ही जरूरी यह भी है कि मन को सही दिशा दें। इच्छाओं-आकांक्षाओं का सही स्वरूप समझें ताकि उनमें से उचित का ही वरण कर सकें। श्रेयस के पथिक को लक्ष्य ही नहीं अपने चिंतन का स्वरूप भी निर्धारित करना पड़ता है। कारण कि उत्कृष्ट जीवन की ओर चलने में सर्वाधिक सहायक अथवा बाधक अपना चिन्तन एवं दृष्टिकोण ही होता है।

फ्रायड से अलग हटकर मनुष्य के विकास की असीम संभावनाओं पर दृढ़ विश्वास रखने वाले मनःशास्त्री अब्राहम मैस्लो का कहना है कि व्यक्तित्व विकास के लिए एक विशिष्ट तरह की चिन्तन पद्धति भी अपनानी पड़ती है। मैस्लो ने परमार्थ परायण महान पुरुषों के चिंतन एवं दृष्टिकोण का मनःशास्त्र के आधार पर विश्लेषण किया है। उन्होंने उस आधार पर जो निष्कर्ष निकाले हैं, वे अति उपयोगी तथा हर व्यक्ति का मार्ग दर्शन करने में सक्षम हैं।

मैस्लो के अनुसार श्रेष्ठ व्यक्ति सहज स्वभाव के होते हैं। उनमें कृत्रिमता का अभाव पाया जाता है। बाहर और भीतर से एक जैसे होते हैं। उनकी भावना, विचारणा एवं क्रिया तीनों ही में एकरूपता पायी जाती है। जैसा विचार करते हैं, हृदय में वैसे ही भाव उठते हैं तथा व्यवहार में उसी स्तर के कृत्य करते हैं। उनका स्वभाव स्वतंत्र होता है, उनकी बुद्धि प्रगतिशीलता की, श्रेष्ठ प्रयोजनों की पक्षधर होती है। इसका अर्थ मर्यादाहीन होना कदापि नहीं है। इस स्वतन्त्रता का अभिप्राय कुरीतियों एवं रूढ़ियों के बन्धनों से मुक्त हो दूसरों को वैसा ही बनाने में सहायक सिद्ध होना। विचारों की संकीर्णता भी उन्हें नहीं रुचती। नित नए प्रगतिशील विचारों का आह्वान करना उनकी विशेषता होती है। समाज एवं देश को वे उपयोगी विचार देते है। साथ ही अनुपयोगी के खण्डन में भी वे पीछे नहीं रहते। मौलिकता उनमें कूट-कूट कर भरी होती है। अन्यानुकरण को वे पिछड़ेपन का चिह्न मानते तथा उससे सदा बचते हैं। अपनी राह स्वयं बनाते तथा बिना किसी की परवाह किए चल पड़ते हैं। अपने मार्ग में आने वाले संघर्षों से विचलित होना उन्हें नहीं भाता।

इन मनःशास्त्री के अनुसार ऐसे व्यक्तियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे समस्याओं को सर्वोपरि मानते तथा उन्हीं पर ध्यान केन्द्रित करते हैं जिनमें समाज, देश एवं जाति का हित जुड़ा हो। उनका अहम् विराट में विसर्जित हो जाता है। अपने “स्व” तथा उससे जुड़ी कामनाओं पर उनका कड़ा अंकुश रहता है। प्रसिद्ध विचारक कैप्टन शोटोवर का कहना था कि “हमारी संसार में रुचि तभी होती है, जब हमारी रुचि स्वयं से परितृप्त होकर बाहर निकलने लगे।” प्रकारान्तर से यह भी कहा जा सकता है कि अपनी इच्छाओं को विगलित किए बिना समाज एवं संसार की सेवा सम्भव नहीं।

मैस्लो की अवधारणा है कि सभी परमार्थी रचनात्मक प्रवृत्ति के होते हैं। उनमें कलात्मक, वैचारिक तथा वैज्ञानिक स्तर की विशिष्टताएँ समायी रहती हैं। यही कारण कि उनके जीवन में एकरूपता का अभाव नहीं होता। एक ही वस्तु को सदा नए-नए रूप में देखते रहने से उसमें नयापन भासित होता है। जबकि सामान्य व्यक्तियों के दृष्टिकोण में यह विशिष्टता नहीं पायी जाती।

“न्यू पाथवेज इन साइकोलॉजी” के रचनाकार कोलिन विल्सन ने अपनी पुस्तक में मैस्लो के चिन्तन का निष्कर्ष दिया है। ‘सामान्य लोगों की तुलना में महामानवों का अधिक प्रसन्नचित्त एवं प्रफुल्लित रहना उनको संतुलित एवं परिष्कृत दृष्टिकोण का परिणाम है। ऐसे व्यक्ति वास्तविक अवास्तविक में विभेद करने तथा औचित्य को ग्रहण करने में परिपूर्ण सक्षमता रखते हैं। ऐसी समर्थ ग्राह्य क्षमता उनमें हर क्षेत्र में विद्यमान होती है।

इसी पुस्तक में मैस्लो का कथन है कि स्नेह सौजन्य की भावना अपेक्षाकृत अन्य लोगों के, महापुरुषों में अधिक होती है। उनका अंतराल स्नेह, प्रेम, करुणा, दया से लबालब रहता है। उनके पास न तो वैर फटकता है न ही घृणा। एकाँत एवं शान्ति प्रिय स्वभाव के ये पुरुष सामाजिक एवं नैतिक मर्यादाओं का पालन करते तथा सहन शक्ति एवं सामंजस्य की प्रवृत्ति अपनाते हैं। उनके स्वभाव में उथलापन, दूसरों की निन्दा, उपहास का दोष नहीं पाया जाता। उनका स्वभाव दूसरों को उठाने का होता है, गिराने का नहीं। चिंता, भय, परेशानी, संकटों की कंटकाकीर्ण परिस्थितियों के मध्य भी उनका धैर्य एवं संतुलन लुप्त नहीं होता। चिंतन की धारा निषेध की उल्टी तरफ बहकर विधेयात्मक मार्ग अपनाती है।

मनःशास्त्र के अध्येता मैस्लो ने सिग्मंड फ्रायड की इस मान्यता का भी खण्डन किया है कि प्रत्येक मनुष्य की गतिविधियाँ यौन अभिप्रेरित हैं। उनका मानना है कि संसार में ऐसे अनेकों संत महापुरुष हुए हैं, जिनका आचरण यौन प्रवृत्ति से पूर्णतया ऊपर उठा हुआ था। उनका यौन प्रवृत्ति पर पूर्ण नियन्त्रण था। वे किसी ऊँचे लक्ष्य से प्रेरणा एवं शक्ति प्राप्त करते थे। सुप्रसिद्ध मनःशास्त्री गोल्डस्टीन मैक डगल तथा कार्ल गुस्तेव जुँग ने भी मैस्लो की इस धारणा का समर्थन करते हुए कहा है सेक्स से इतर भी श्रेष्ठ प्रवृत्तियाँ मनुष्य में पायी जाती हैं। समाज देश एवं संस्कृति के लिए सर्वस्व उत्सर्ग करने वाले त्यागी, बलिदानी महापुरुषों का जीवन चरित्र इस बात का साक्षी है। स्नेह प्यार का उच्चस्तरीय आदर्शों के प्रति अटूट निष्ठा का विलक्षण सैलाब उनके हृदय में उमड़ता देखा गया है। देश की बलिवेदी पर मर मिटने वाले बलिदानियों, समाज के उत्थान के लिए जीवन होम देने वाले समाज सेवियों, अविष्कार में एकनिष्ठ होकर जुटे वैज्ञानिकों की प्रेरक शक्ति सेक्स नहीं अपितु वह महानता होती है जो उनके भीतर से प्रस्फुटित होती तथा कुछ विशेष प्रचलित ढर्रे से अलग हटकर कुछ करने को अभिप्रेरित करती है।

मनोविज्ञान के आधार पर समाज के नवनिर्माण की विचारधारा अब्राहम मैस्लो ने अपनी पुस्तक “यूप साइकियन मैनेजमेन्ट” में व्यक्त की है। प्रगतिशील विचार के समर्थकों ने इस पुस्तक की तुलना अर्थशास्त्र एवं समाज शास्त्र की मूर्धन्य प्रतिभा कार्ल मार्क्स की सुप्रसिद्ध कृति “डास कैपिटल” से की है। इस पुस्तक में मैस्लो ने महानता का वरण करने के लिए कुछ व्यावहारिक सुझाव भी दिए हैं। उनके अनुसार लक्ष्य निर्धारित कर लेने के उपरान्त मनुष्य को कार्यों में छोटे बड़े का भेद भाव नहीं कर उनका स्तर श्रेष्ठ बनाने का प्रयास करना चाहिए। प्रायः ऊब, नीरसता, अकर्मण्यता का कारण वह चिंतन है, जिसमें मनुष्य काम को छोटा मान कर उनमें रस नहीं लेता। सामान्य और असामान्य व्यक्तियों में मौलिक अंतर यह पाया जाता है कि सामान्य व्यक्ति जिस काम को छोटा मानकर उपेक्षा कर देते अथवा उसे करने में मनोयोग का परिचय नहीं देते महापुरुष उनमें भी पूरी तल्लीनता मनोयोग से जुटे दिखाई पड़ते हैं। वे काम के प्रतिफल पर नहीं उसके स्तर पर अपना ध्यान केन्द्रित रखते हैं। यह असाधारण मनोयोग ही अन्ततः श्रेष्ठ परिणामों का भी कारण बनता है।

मूर्धन्य मनःशास्त्री मेलों ने उपयुक्त विचारों में महानता के सिद्धाँतों एवं महापुरुषों की जिन विशिष्टताओं को निरूपित किया है, वे शाश्वत हैं। आध्यात्मवेत्ता भी इसी जीवनदर्शन का समर्थन विविध माध्यमों से समय-समय पर करते देखे जाते हैं। इन्हें चर्चा, श्रवण, अध्ययन तक सीमित न रखकर सचमुच आचरण व्यवहार में उतारने के लिए कटिबद्ध हुआ जा सके तो देखते ही देखते सामान्य मानव में महामानव की स्थिति में जा पहुँचने का सौभाग्य इसी जीवन में हर किसी को मिल सकता है।


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