आत्मिकी को अग्नि परीक्षा से गुजरना होगा।

August 1991

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तर्क एवं प्रमाण की अपनी उपयोगिता है। विज्ञान ने अपना सतत् विकास इसी आधार पर किया है। परीक्षण की कसौटियों पर कसने के बाद अपना वर्चस्व सिद्ध किया है। उसकी प्रत्यक्षवादी मान्यताओं परीक्षण किये जाने के बाद ही अपनी प्रामाणिकता प्रस्तुत कर सकी हैं। धर्मतंत्र को, आत्मिकी को भी प्रत्यक्षवाद ने चुनौती दी है कि परीक्षण की कसौटियों पर अपनी उपयोगिता सिद्ध करें।

इसे समय का दुर्भाग्य कहा जाना चाहिए कि धर्म ने लौकिक ज्ञान तर्कशास्त्र से अपने को सिद्ध करना अस्वीकार किया। किसी समय मनुष्य की आस्था इतनी प्रगाढ़ एवं भावनाएँ इतनी उदात्त रही होंगी कि शास्त्रों, महापुरुषों के वचनों में तर्क करने की आवश्यकता नहीं अनुभव की जाती रही होगी। किंतु वर्तमान परिस्थितियों में मनुष्य की विचारणा, भावना एवं मनःस्थिति में भारी अन्तर आया है। बुद्धि का असाधारण विकास हुआ है। जिज्ञासा एवं तर्क शक्ति बढ़ी है। फलस्वरूप मानवी आस्था में कमी आयी है। बुद्धिवाद धर्म के सिद्धाँतों को बिना परखे, तर्क एवं परीक्षण की कसौटी पर बिना कसे स्वीकार करने को तैयार नहीं है। धर्म को भी अब उसी बुद्धि, तर्क से प्रामाणिक और उपयोगी सिद्ध करने की आवश्यकता आ पड़ी है, जिससे विज्ञान अपने प्रतिपादनों को सिद्ध करता है।

स्वामी विवेकानन्द ने कहा था-’मेरा अपना विश्वास है कि बाह्यज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जिन अन्वेषण पद्धतियों का प्रयोग होता है, उन्हें धर्म क्षेत्र में, अध्यात्म में भी प्रयुक्त किया जाना चाहिए। यह कार्य जितना शीघ्र हो उतना ही अच्छा। यदि कोई धर्म अन्वेषणों से ध्वंस हो जाय तो समझना चाहिए कि वह निरर्थक था। ऐसा धर्म जो तर्क, प्रमाण एवं उपयोगिता की दृष्टि से खरा न उतरे, उसका लुप्त हो जाना स्वाभाविक घटना होगी। इस अनुसंधान के फलस्वरूप सारा मल धुल जायेगा तथा धर्म के उपयोगी तत्व अपनी प्रखरता के साथ सामने आयेंगे।

मनीषियों का कहना है कि जो धर्म बौद्धिक अन्वेषण की उपयोगिता से इन्कार करते हैं वे वस्तुतः आत्म विरोधी है। उनकी क्रिया प्रणाली कितनी भी सशक्त क्यों न हो, उपयोगिता के अभाव में कालान्तर में संदिग्ध बन जायेंगे। शास्त्रों, आप्त वचनों के दुहराने एवं कर्म काण्डों की लकीरें पीटने मात्र से उनका महत्व नहीं बढ़ पायेगा, वरन् मनुष्य की व्यवहारिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने से ही वे उपयोगी एवं प्रामाणिक बन सकते हैं। धर्म का मूलतत्व ग्रंथों, कर्मकाण्डों से परे है जो परीक्षण एवं अनुभूतिगम्य है। उसका अन्वेषण आज की परिस्थितियों में किया जाना अति आवश्यक है। इस सार्वभौम तत्व की सनातन गरिमा को प्रामाणित करना ही अन्वेषण का उद्देश्य है। बुद्धि का सदुपयोग इस दिशा में होना ही चाहिए।

धर्म की अध्यात्म की उपलब्धियाँ हैं-श्रेष्ठ व्यक्तित्व एवं आदर्श कर्तृत्व। जो धर्म मानवी व्यक्तित्व के विकास में अपना योगदान दे, वही अपना अस्तित्व कायम रख सकता है। व्यवहारिक जीवन की समस्याओं का समाधान उसमें होना ही चाहिए। क्यों, किसलिए का समाधान उसे प्रस्तुत करना चाहिए। आज का प्रत्यक्षवाद को ही सब कुछ मानने वाला विचारशील वर्ग कर्म काण्डों की लकीर को अपनाने को तैयार नहीं इसलिए उन कर्मकाण्डों में जीवन परिष्कार का वह दर्शन जुड़ा रहना अति आवश्यक है जिसकी फल श्रुति मनुष्य में देवत्व के उदय के रूप में सामने आती है। इसके अभाव में तभी कलेवर विकृति ही खड़ा करेंगे। धर्म की गरिमा को गिरायेंगे।

धर्म का प्रमाण किसी ग्रंथि की रचना पर नहीं वरन् सत्यता पर आधारित है। ग्रंथ मानवी रचना के बाह्य परिणाम हैं जो सार्वभौम सत्ता एवं प्राणिमात्र की एकता का प्रतिपादन करते हैं। मनुष्य उनका प्रणेता है। बुद्धि भी मानव संरचना का ही परिणाम है। बुद्धि की शरण में न्याय के लिए जाना होगा। उसका उत्तरदायित्व है कि वह प्रचलनों के कारण एवं उद्देश्यों की व्याख्या करके व्यक्ति को समाधान और संतोष प्रदान करे। उसी शाश्वत प्रयास को अन्वेषण कहते हैं। जब कोई घटना घटित होती है तो उसे देखकर असमंजस होता है, पर यदि यह विश्वास हो जाय कि यह घटना अमुक नियम का परिणाम थी तो समाधान हो जाता है। पेड़ से सेब गिरा। न्यूटन की बुद्धि आविष्कार के लिए प्रवृत्त हुई। फल स्वरूप पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण सिद्धाँत का प्रतिपादन हुआ। इस सार्वभौम सिद्धाँत को सबने स्वीकार किया। अन्वेषण की इस पद्धति को धर्म क्षेत्र में भी प्रयुक्त करना होगा।

विज्ञान की मान्यता है कि किसी वस्तु की व्याख्या स्वयं उसकी प्रकृति में निहित है। इसी कारण वह वस्तु के स्वरूप को जानने के लिए प्रयोग परीक्षण करता है। पदार्थ सत्ता के स्वरूप को जानने के लिए परमाणु रचना को देखना, जाँचना होता है। इस मान्यता के अनुसार सृष्टि में घटित होने वाली घटनाओं की व्याख्या किसी बाह्य सत्ता एवं शक्ति पर आश्रित नहीं है, वरन् उसकी प्रकृति में सन्निहित है। रसायनशास्त्री अपने तथ्यों का प्रतिपादन करने में दैत्य, भूत अथवा बाहरी शक्ति की आवश्यकता नहीं अनुभव करता। विज्ञान के इस सिद्धाँत का प्रयोग धर्म क्षेत्र में भी करना होगा। उसे सिद्धाँतों-मान्यताओं की उपयोगिता की कसौटी पर कसना होगा। परोक्ष में जीवनोपराँत धर्माचरण का लाभ मिलेगा या नहीं, बुद्धिवाद इस प्रश्न पर विचार करने को तैयार नहीं है। प्रत्यक्ष में इसी जीवन में धर्म को अपनी उपयोगिता सिद्ध करनी होगी।

विज्ञान अपनी व्याख्याएँ वस्तु सत्ता के भीतर से करता है, जबकि धर्म ऐसा करने में पिछले दिनों असमर्थ रहा है। आवश्यकता आ पड़ी है कि धर्म या अध्यात्म भी इस पद्धति को अपनाये तथा अपनी महत्ता को अपने भीतर से सिद्ध करे। विश्व से पूर्णतया पृथक ईश्वर की सत्ता की प्राचीन मान्यता है। ऐसे ईश्वर की सत्ता को जो विश्व से पृथक है, बुद्धिवाद, उपयोगितावाद, प्रत्यक्षवाद स्वीकार करने में असमर्थ है तो उसे मानवी जीवन के निकट, उपयोगी बनकर रहना चाहिए। जीवनक्रम की श्रेष्ठता के रूप में परिलक्षित होना चाहिए। उसे श्रेष्ठ व्यक्तित्व के रूप में फलित-परिणत होना चाहिए।

इन कसौटियों पर कसे जाने एवं अनुसंधान पर खरा उतरने पर ही धर्म जीवन्त बना रह सकता है, अन्यथा बुद्धिवाद उसे आसानी से स्वीकार नहीं करेगा उलटे उस पर प्रहार करेगा। अनुसंधान की उपेक्षा करके देवी-देवताओं की मान्यता से चिपके रहने से धर्म की उपयोगिता संदिग्ध बनी रहेगी।

वस्तु की व्याख्या उसकी प्रकृति में निहित है, भारतीय दर्शन भी पूर्ण रूप से इस सिद्धाँत का समर्थन करता है। ब्रह्म या वेदान्त के ईश्वर से बाहर कुछ भी नहीं है। ‘यह सब वही है’ ‘सर्वखिल्विदं ब्रह्म’ अर्थात् विश्व-ब्रह्मांड में उसकी ही सत्ता है। वह स्वयं विश्व ही है। उसी को हम देखते और अनुभव करते हैं। उसी में हमारी जीवनगति और हमारी सत्ता है। विश्व में अंतर्व्याप्त ईश्वर की समस्त वस्तु सारे तत्व की एवं सर्वत्र अन्तर्यामी होने का भाव भी यही है। वह जगत के साथ में अपने को व्यक्त कर रहा है। जड़ चेतना उसकी ही अभिव्यक्तियाँ हैं मनुष्य, देव मानव-पशु, पौधे आदि के बीच जो विभेद दिखाई देता है वह तत्व की दृष्टि से नहीं परिमाण की दृष्टि से है। महान् देव से लेकर सूक्ष्मकण तक सभी उसी परम चेतना के असीम सागर की अभिव्यक्तियाँ हैं। इस सिद्धाँत की व्याख्या के लिए किन्हीं बाह्य कारणों को ढूंढ़ने की आवश्यकता नहीं, वरन् उसकी प्रकृति में ही जाना होगा।


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