सज्जनता के साथ व्रतशीलता भी

August 1991

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परमात्मा की अनेक विभूतियाँ हैं। उन सबका समय-समय पर उपयुक्त उपयोग होता है जो समय के अनुरूप उपयोग की आवश्यकता समझते हैं वे समग्रता संचय करते हैं, किन्तु बालबुद्धि उन्हीं में रमती रहती है जो आकर्षक है जिनमें अनुकूलता, सम्पदा, सुन्दरता एवं प्रसन्नता दृष्टिगोचर होती है। मनुष्य का यह स्वभाव तो है, पर यह नहीं कहा जा सकता कि इस प्रवृत्ति का परिपोषण ही सदा उपयुक्त होता है।

बच्चों को खिलौने पसंद आते हैं। वे मिठाई के लिए ही अधिक आग्रह करते हैं, पर यदि अभिभावक उनकी इच्छा ही पूरी करते रहे तो इसमें वैसा हित साधन न होगा जैसा कि उपलब्ध करते या कराते समय प्रसन्नता के रूप में दृष्टिगोचर होता है। यदि बड़ी संख्या में खिलौने मँगा कर दिये जायँ तो बच्चा उन्हीं में रम जायगा। पढ़ने, दौड़ने आदि के अन्य उपयोगी कार्यों से मन हटा लेगा। संख्या में बहुत होने पर वे किसी का भी पूरा रस न ले सकेंगे और न उनकी साज सँभाल कर सकते हैं। लाये हुए खिलौने जल्दी-जल्दी खोते और टूटते-फूटते रहेंगे। इससे बच्चों की आदत बिगड़ेगी और अभिभावकों के पैसे की अवाँछनीय बरबादी होगी। यही बात मिठाई के सम्बन्ध में भी है। अधिक मिठाई खाने से बच्चों के दाँत खराब हो जाते हैं। पेट में कीड़े पड़ते हैं, दस्त लग जाते हैं। चटोरेपन की आदत पड़ जाने पर बच्चे बिना उचित अनुचित का विचार किये जहाँ-तहाँ से जैसे जैसे मिठाई पाने का प्रयत्न करने लगते हैं। शाक−भाजी, फल, दूध जैसी उपयोगी, वस्तुओं की उपेक्षा होने लगती है। इसलिए जीवनक्रम में सभी उपयोगी विषयों का संतुलन बनाये रहना आवश्यक माना गया है। पढ़ना अच्छी बात है, पर यदि छात्र को मात्र पढ़ने का ही ध्यान रहे, वह खेलकूद से मुँह मोड़ ले अथवा खेलकूद में ही व्यस्त रहे और पढ़ाई पर ध्यान न दे तो वह एकाग्री आदत लाभदायक नहीं हानिकारक ही सिद्ध होगी। संतुलन बनाये रहना, समग्रता को अपनाये रहना ही औचित्य की मर्यादा में आता है। उसी से हित साधन भी होता है।

मनुष्य आमतौर से सुख-साधनों की अभिवृद्धि ही चाहता है। उसी के लिए प्रयत्न करता है और भगवान से प्रार्थना भी उन्हीं के लिए करता है। मिलने पर प्रसन्न भी होता है। इतने पर भी वह एकाँगी इच्छापूर्ति व्यक्तित्व में अपूर्णता ही बनाये रहता है और इसके रहते समय पड़ने पर व्यक्ति अपने आप को कठिनाइयों से घिरा हुआ अनुभव करता है। जीवन एकाँगी नहीं है और न वह एक पक्षीय उपलब्धियों से संतुष्ट रह सकता है।

भरपेट भोजन मिलना बलवर्धन के लिए आवश्यक है, पर यदाकदा उपवास भी किया जाना चाहिए, ताकि पाचन तंत्र को विश्राम मिले और थकान दूर करने के उपरान्त नये शक्ति संचय के साथ शरीर अपना कार्य ठीक प्रकार करता रहे। जो सदा ठूँस-ठूँस कर खाते ही रहते हैं कभी निराहार रहने की आवश्यकता अनुभव नहीं करते, वे अपनी पाचन क्षमता गँवा बैठते हैं ओर अन्ततः घाटे में ही रहते हैं।

विद्या पढ़ना अच्छी बात है, पर साथ ही व्यायाम में भी रुचि होनी चाहिए अन्यथा कोई व्यक्ति विद्वान भले ही बन जाय स्वास्थ्य की दृष्टि से दुर्बल ही रहेगा। बड़ी मेहनत का अवसर आने पर हाँफ जायगा और दूसरों का सहारा तकेगा। जीवनी शक्ति की न्यूनता के कारण आये दिन बीमार भी पड़ता रहेगा। उपचार का प्रभाव भी देर में पड़ेगा। यदि आरम्भ से ही अध्ययन के साथ व्यायाम को भी जुड़ा रखा गया होता तो असमंजस की स्थिति सामने न आती।

अनुकूलताओं से सुविधा रहती है। उपलब्धियों से प्रसन्नता भी होती है। यह एकाँगी लाभ है। इससे इतनी ही जानकारी रहती है कि सुविधाओं के उपयोग कैसे किया जाय? किन्तु दूसरा पक्ष अनजाना ही रह जाता है। कठिनाइयों का सामना कैसे किया जाय? उनसे बचा और निपटा कैसे जाय? इसका अनुभव अभ्यास तब तक नहीं हो सकता जब तक कि प्रतिकूलताओं से पाला न पड़े। उनसे निपटने का भी एक विशेष कौशल है। इसके लिए साहस की आवश्यकता पड़ती है, साथ ही सहने के लिए धैर्य और निपटने के लिए चातुर्य भरा पराक्रम भी चाहिए यह विशेष गुण अभ्यास के बिना नहीं आते। अभ्यास के लिए अवसर चाहिए। यदि वह संयोगवश न आता हो तो उसे बुलाने के लिए स्वेच्छापूर्वक प्रयत्न करना चाहिए।

कुन्ती ने भगवान से यही वरदान माँगा था कि वह दुखियों का दुःख बँटाने के अवसर सदा प्राप्त करती रहे, जिससे उसे यह प्रतीत होता रहे कि दुखियों को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। जब वास्तविक अनुभूति होगी तो सच्चे मन से उसके निवारण के लिए त्याग, सौजन्य और साहस दिखाया जा सकेगा। इन गुणों की अभिवृद्धि से ही चेतना का भावपक्ष विकसित होता है। इसी आधार पर आत्मिक प्रगति का वास्तविक अवसर मिलता है।

आत्मोत्कर्ष का एक विशिष्ट पहलू है- तपश्चर्या। तपश्चर्या कहते हैं कठिनाइयाँ सहने को। मनुष्य का स्वभाव सुविधाएँ संकलित करने का है। संयोगवश ही कभी कठिनाइयाँ आती हैं, पर जब आत्मिक प्रगति के लिए असुविधाओं से जूझना आवश्यक है तो उन्हें जानबूझ कर आमंत्रित करना पड़ेगा। यह कार्य सुविधाओं पर जान बूझकर अंकुश प्रतिबंध, लगाने से ही बन पड़ता है। अस्वाद व्रत, ब्रह्मचर्य पालन, मौन साधना, पदयात्रा, शीत ताप सहन जैसे मन मारने वाले अनुशासन इसीलिए अपनाये जाते हैं कि अभावग्रस्त अथवा कठिनाइयों से भरी हुई परिस्थितियों में बिना खिन्न हुए समत्व बुद्धि के साथ किस प्रकार रहा जा सकता है। पानी के प्रवाह को रोकने से जो प्रतिरोधी शक्ति उत्पन्न होती है उससे शक्तिशाली बिजली घर बनते है। लालसाओं और लिप्साओं पर नियंत्रण लगाने से खिन्नता होनी स्वाभाविक है, पर मन को निग्रहीत करके जब प्रस्तुत विपन्नता को मनोबल वृद्धि की दृष्टि से स्वेच्छापूर्वक अपनाया जाता है तो वह तपस्या बन जाती है। तप−साधना से संकल्प बल, मनोबल, साहस, धैर्य जैसे अनेक सद्गुणों का विकास होता है और आत्मनिष्ठा का परिपाक होता है।

मृदुलता, मधुरता, स्नेह, सहयोग आदि के अनुकूल वातावरण में सहज ही प्रसन्नता होती है और प्रशंसा भी उपलब्ध होती है, किन्तु यह प्रयोग सज्जनता के क्षेत्र में ही उपयोगी सिद्ध हो सकता है। दुष्टता एवं भ्रष्टता को दया, करुणा, उपदेश आदि के आधार पर न तो बदला जा सकता है न सुधारा। उसके लिए सात्विक क्रोध अपनाना पड़ता है। शास्त्रकारों ने ऐसी प्रतिरोध वृद्धि को ‘मन्यु’ कहा है। प्रार्थना की गई है कि “हे भगवान आप मन्यु है। हमें भी मन्यु दीजिए।” दुष्टता के विरुद्ध आक्रोश उत्पन्न होना चाहिए तभी उनसे असहयोग, परिधि, संघर्ष बन पड़ेगा। इससे कम में उनके सुधार की कोई आशा नहीं। दुष्टता को सहन करते रहने पर दुष्टों का हृदय बदल जायगा, यह किन्हीं ऋषि-मुनियों द्वारा अपनाई जाने वाली अपवाद प्रक्रिया हो सकती है, पर यह सर्वसाधारण द्वारा अपनाया जाने वाला लोकव्यवहार नहीं है। यदि यह लोक व्यवहार रहा होता तो पुलिस, कानून, जेल, सेना, कोर्ट कचहरी आदि की कोई आवश्यकता न पड़ती। सड़े अंग को काटकर अलग न किया जाय तो यह खतरा बना ही रहेगा कि उसका विष आगे बढ़े और जहाँ विकृति नहीं है वहाँ भी सड़न उत्पन्न कर दे। अवतारों की कथा, गाथाओं में


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