हमारा प्राचीन भौतिक विज्ञान अत्यन्त विकसित था। आज हम जिन यंत्र उपकरणों की कल्पना भी नहीं कर सके हैं, वैसे-वैसे यंत्र तब विद्यमान थे। एक और तीन अहोरात्र की वेगवान गति से उड़ने वाले विमान, तो दूसरी ओर ब्रह्मास्त्र, नागपाश, पाशुपात जैसे बार-बार प्रयुक्त होने और लक्ष्य का संधान कर प्रयोक्ता तक लौट आने वाले अस्त्र, मंत्र और यंत्र शक्ति के अद्भुत समन्वय के प्रतीक थे। जब किसी समय वह विज्ञान उत्कर्ष के इतने उच्च शिखर पर पदासीन था, तो आज वह उत्तुंग ऊँचाई से गिरकर अपमान जनक स्थिति में भूमि लुण्ठित कैसे हो गया? उसका लोप क्यों हो गया? यह प्रश्न बार-बार मस्तिष्क में ज्वार-भाटे की तरह उठते रहते हैं पर उत्तर सदा अनुत्तरित ही बने हुए हैं।
इस संदर्भ में आधुनिक मनीषियों का कथन है कि विद्या की दृष्टि से उस विकसित युग में ऋषि न सिर्फ वैज्ञानिक हुआ करते थे, अपितु आत्मविद्या में भी प्रवीण, पारंगत और विशेषज्ञ होते थे, बल्कि यह कहना कहीं अधिक समीचीन होगा कि वे ऋषि, आत्मविज्ञानी पहले थे, फिर पदार्थ विज्ञानी। अतएव समय के साथ-साथ वे आत्मविद्या की ओर अधिक उन्मुख होते गये, जिससे पदार्थ विज्ञान की ओर से उनका ध्यान शनैः-शनैः हटता गया और वे उस आत्मविज्ञानी के आगे तुच्छ भी मानने लगे। इसी क्रम में एक समय आया, जब उत्कर्ष के शिखर पर पहुँचा भौतिक विज्ञान पूर्णतः लुप्त हो गया एवं उसका पुस्तकीय उल्लेख ही अवशिष्ट के रूप में बचा रह गया। इस प्रकार आत्मविज्ञानी एकाँगी बन गये।
प्राचीन समय में अध्यात्म विज्ञान को परा और भौतिक विज्ञान को अपरा विद्या के नाम से जाना जाता था। ज्ञान विज्ञान की यह दो धाराएँ एक ही वृक्ष की दो टहनियाँ थीं और परस्पर दूध-पानी की तरह घुल-मिल कर रहती थीं। आत्म कल्याण के लिए ऐसा अभीष्ट आवश्यक भी माना गया था। मुँडकोपनिषद् के शौनक-अंगिरस् संवाद से यह स्पष्ट हो जाता है। शौनक ऋषि अंगिरस् से प्रश्न करते हैं “वह कौन सा तत्व है, जिसको जना लेने पर कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता, अर्थात् समस्त विश्व को जाना जा सकता है?” अंगिरस् ऋषि उत्तर देते हुए कहते हैं- “परा और अपरा नाम से जो दो विद्याएँ प्रसिद्ध हैं, उन्हें प्राप्त करने से ही मनुष्य सर्वज्ञ बन सकता है।” इस प्रकार ब्रह्मविद्या के परा और अपरा विद्यायें दो अंग हैं, ऐसा अंगिरस का मानना है। तैत्तिरीय उपनिषद् की भृगु वल्ली में कहा गया है कि ब्रह्मवर्चस, ब्रह्मविद्या की फलश्रुति है और परा-अपरा दोनों मिल कर ही कल्याणकारी ब्रह्मविद्या कहलाती है। कुछ उपनिषदों में इन्हें विद्या-अविद्या और गीता आदि में ज्ञान विज्ञान कहा गया है। लोकमान्य तिलक ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ “गीता रहस्य” में इनकी परिभाषा करते हुए लिखा है कि सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ में एक ही अव्यक्त मूल पदार्थ हैं, यह जिससे जाना जाता है, वह ‘ज्ञान’ है एवं एक ही मूलभूत द्रव्य से समस्त संसार की रचना हुई, इसे बताने वाली शाखा ‘विज्ञान’ है।