आहार की व्यक्तित्व निर्माण में महती भूमिका

August 1991

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आहार का मन से घनिष्ठ सम्बन्ध है। उसमें पाये जाने वाले रसायन अथवा पोषक तत्व केवल शरीर तक ही अपना प्रभाव नहीं दिखाते, वरन् मानवी चेतना को भी प्रभावित करते हैं। अन्न का स्थूल स्वरूप अस्थि-रक्त-माँस का निर्माण करता है, तो उसके सूक्ष्म रूप से मन-मस्तिष्क एवं विचार बनते हैं और कारण रूप भावनाओं का निर्माण करता है। शारीरिक परिपुष्टता-बलिष्ठता के लिए मात्र योगासन, व्यायाम ही नहीं, शुद्ध सात्विक आहार भी स्वस्थ काया, स्वच्छ मन, एवं चेतनात्मक उत्कर्ष के लिए आवश्यक है।

इसीलिए अध्यात्मिक विद्या-विशारदों ने आत्मिक प्रगति एवं समग्र स्वास्थ्य संवर्धन के लिए आहार शुद्धि पर सर्वाधिक जोर दिया है। उनका कहना है कि मनुष्य केवल हाड़-माँस का पिण्ड तो है नहीं, उसमें बौद्धिक, आत्मिक हलचलें भी सम्मिलित हैं। अतः आहार में उनके समुचित पोषण की भी व्यवस्था होनी चाहिए। गीता के सत्रहवें अध्याय में इसी दृष्टि से त्रिविध आहार का वर्गीकरण किया है जो मानवी चेतना पर सात्विक, राजसिक और तामसी प्रभाव छोड़ते हैं। गीताकार के अनुसार भोजन का प्रयोजन केवल शरीर का पोषण और बल संवर्धन ही नहीं है, वरन् उससे मानसिक और आत्मिक पोषण भी मिलना चाहिए। बहुत से पदार्थ ऐसे होते हैं जो शरीर की शक्ति-सामर्थ्य को तत्काल बढ़ा देते हैं, परन्तु मनुष्य को मानसिक एवं आँतरिक दृष्टि को इसी प्रकार के भोजन की श्रेणी में रखा जा सकता है।

यों आहार के रासायनिक तत्वों, पोषक घटकों का विश्लेषण तो बहुत पहले से होता रहा है कि भोजन में कौन सा पदार्थ कितनी मात्रा में होना चाहिए। किन्तु मन-मस्तिष्क पर पड़ने वाले विभिन्न और विचित्र प्रभावों का अनुसंधान इन्हीं दिनों हुआ है। इस संदर्भ में हुए प्रयोग-परीक्षण सिद्ध करते हैं कि मस्तिष्क का स्तर आहार की परिधि में ही आता है और उससे प्रभावित होता है। आहार विशेषज्ञों का निष्कर्ष है कि केवल स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन, मनन से ही नहीं, भोजन के साथ घुले हुए सूक्ष्म तत्वों का सन्तुलन बनाकर मनुष्य के सोचने का तरीका भी समुन्नत किया जा सकता है। इतना ही नहीं भावनाओं को दिशा भी बदली जा सकती है। अवाँछनीय दिशा में चल रही भाव विकृति को आहार शुद्धि के माध्यम से वाँछित दिशा में मोड़ा और सुधारा जा सकता है। दुष्प्रवृत्तियों में लगे हुए दुर्भावना ग्रस्त मनुष्य के अन्तःकरण को परिष्कृत किया जा सकता है और उसकी प्रवृत्ति में, मनोवृत्ति में अभीष्ट परिवर्तन किया जा सकता है।

ब्रिटेन के मैनचेस्टर मेडिकल रिसर्च इन्स्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने इस सम्बन्ध में गंभीरतापूर्वक अनुसंधान किया है और निष्कर्ष निकाला है कि आहार का मनुष्य और प्राणियों के स्वभाव, गुण तथा प्रकृति पर भारी प्रभाव पड़ता है। इसके लिए कितने ही परीक्षण किये गये जिनमें से एक चूहों पर था। चूहा स्वभावतः शाँत प्रकृति का होता है, किसी से लड़ता-झगड़ता या आक्रमण नहीं करता। प्रयोगशाला में पाले गये चूहों में से कुछ को बाहर निकाला गया और उन्हें सामान्य आहार न देकर मिर्च-मसाले तथा माँस और नशीली चीजों से बना आहार दिया गया। इसे खाने से पूर्व वे चूहे बेहद शान्त थे, पर इसके कुछ ही घंटे बाद, उद्दण्ड और आक्रामक बन गये। उन्हें वापस पिंजरे में छोड़ा गया, तो वे आपस में ही लड़-झगड़ कर लहू-लुहान हो गये।

इसके बाद उन्हीं चूहों को दूसरी बार सरल, शुद्ध और सात्विक भोजन दिया। इस पर भी पिछला प्रभाव तो बाकी था, किन्तु चूहे अपेक्षाकृत शान्त थे। कई बार इस तरह का आहार लेने के बाद ही वे अपनी वास्तविक स्थिति में आ पाये। इस तरह के सैकड़ों प्रयोगों द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता कि जो कुछ खाया पिया जाता है, उससे शरीर का पोषण ही नहीं होता वरन् लिया गया भोजन, मनुष्य का व्यक्तित्व बनाने में भी असाधारण भूमिका निबाहता है।

आहार का मानवी मस्तिष्क और स्वभाव पर क्या प्रभाव पड़ता है? इस विषय को लेकर पश्चिमी देशों में काफी खोजबीन हो रही है। भारतीय ऋषि-मुनियों ने तो इस विषय पर पहले से ही विशद प्रकाश डाल रखा है कि क्या खाने से बौद्धिक प्रखरता बढ़ती है और कौन सा आहार स्वभाव तथा व्यक्तित्व की मूल परतों को स्पर्श करता है। वैज्ञानिक अन्वेषण भी अब इसी तथ्य की पुष्टि करने में लगे हैं। इसी सम्बन्ध में अमेरिका के वाल्टीमोर शहर के एक स्कूल में 52 विद्यार्थियों को कुछ दिनों तक विशेष आहार एवं औषधि दी गई। परीक्षणोपरान्त पाया गया कि एक महीने बाद उनकी मस्तिष्कीय क्षमता पहले से अधिक बढ़ गयी थी।

इसी तरह से मिशिगन यूनिवर्सिटी के प्राणिशास्त्रियों ने मस्तिष्क पर आहार के प्रभाव जाँचने के लिए अनेक प्रयोग किये हैं। सुप्रसिद्ध जीवशास्त्री डॉ. बर्नार्ड एग्रानोफ ने अपने प्रयोगों के दौरान मनुष्येत्तर प्राणियों की खुराक में फेर बदल कर उन्हें चतुर और भुलक्कड़ बनाने में सफलता प्राप्त की है। उनके अनुसार आहार में सात्विकता की मात्रा घटने-बढ़ने से मस्तिष्क की क्षमता भी घटती-बढ़ती है। दस वर्षों तक लगातार प्रयोग और परीक्षण करने के बाद कैलीफोर्निया विश्व विद्यालय के मूर्धन्य मनोविज्ञानी रिचार्ड थाम्पसन भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि बुद्धि दैवी वरदान नहीं है, वरन् उसे मानवी प्रयत्नों से घटाया अथवा बढ़ाया जा सकता है। इस प्रयोग शृंखला में उन्होंने कुत्तों, बिल्लियों, चूहों और बन्दरों को भी शामिल किया और प्रतिपादन किया कि अन्य शारीरिक परिवर्तनों के समान ही आहार द्वारा मस्तिष्कीय क्षमता में भी हर स्तर का परिवर्तन कर सकना संभव है।

मिशिगन विश्वविद्यालय के ही प्रो. जेम्म मेकानेल ने तो अपने प्रयोगों द्वारा यह भी सिद्ध कर दिया कि आहार में हेर फेर करके स्मरण शक्ति और भाव संवेदनाओं का प्रत्यावर्तन भी किया जा सकता है। ठीक उसी प्रकार जैसे एक व्यक्ति का रक्त दूसरे व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कराया जा सकता है और टूटे-फूटे अवयवों को बदल कर उनके स्थान पर नये अंग का प्रत्यारोपण किया जा सकता है। उनका मत है कि अगले दिनों बुद्धि की मन्दता, अकुशलता और मानसिक विकृतियों का उपशमन भी खाद्य पदार्थों की सूक्ष्म शक्ति के आधार पर किया जाने लगेगा और तब मनुष्य उस आधार पर अपनी स्मरणशक्ति, बुद्धिकौशल और सूझ-बूझ को बढ़ाकर व्यक्तित्ववान बन सकेगा।

आत्मिक प्रगति के लिए की जाने वाली सभी साधनाओं में आहार की कारण शक्ति को विकसित करके उसके उपयोग का विधान है। मनुस्मृति में साधकों के लिए भक्ष्य-अभक्ष्य आहार की लम्बी सूची बताई गई है और कहा गया है कि आत्मोन्नति के इच्छुकों को अभक्ष्य आहार अनजाने में भी नहीं करना चाहिए। यदि ऐसा हो भी जाय तो चांद्रायण स्तर का व्रत करना चाहिए। योगशास्त्रों और साधना ग्रन्थों ने तो अंतःकरण को पवित्र एवं परिष्कृत करने तथा मनः संस्थान को प्रखर प्रतिभाशाली बनाने के लिए सात्विक आहार ही अपनाने को कहा है। गीता में भगवान कृष्ण ने शरीर, मन और भावनाओं पर आहार के संभावित प्रभावों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। आध्यात्मिक प्रगति के आकाँक्षी और साधना मार्ग के पथिक के लिए इस बात का निर्देश दिया गया है कि शाकाहारी सात्विक आहार ही अपनाया जाय और उसकी


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