प्रज्ञायोग की एक सहज सुगम साधना पद्धति

August 1991

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भोजन सभी करते हैं पर इसके उपरान्त किसी को दूध लेना हो, दवा का सेवन करना हो तो इसका निषेध भी नहीं है। दोनों साथ-साथ चल सकते हैं। कोई व्यवसाय के साथ-साथ संगीत का अभ्यास जारी रखना चाहे तो इसे परस्पर विरोधी नहीं कहा जायेगा वरन् पूरक या समन्वय ही माना जायेगा। इसी तरह अध्यात्म क्षेत्र में भी अभ्यस्त साधनाओं के अतिरिक्त “प्रज्ञायोग“ को एक विशेष बलवर्धक रसायन सेवन करने की तरह अपनाया जा सकता है।

प्रज्ञायोग सार्वभौम एवं सार्वजनीन है। इसे सभी धर्म, सम्प्रदाय, मत, वाद वाले लोगों द्वारा बिना पूर्व मान्यताओं का उथल-पुथल किए अतिरिक्त रूप से किया जा सकता है। यदि इस अकेले से ही काम चलता प्रतीत हो और पिछले अभ्यास को छोड़ने में कोई हिचक न होती हो तो प्रज्ञायोग के अकेले विधान को अपनाकर भी आगे बढ़ा जा सकता है। कारण कि यह सर्वांगीण एवं सर्वतोमुखी है। इसमें देवोपासना के अतिरिक्त आत्मपरिष्कार के सारे तत्वों का भी समावेश है। इसे विश्व साधना या युग साधना का नाम भी दिया जा सकता है। यह विशुद्ध मंडन है। इसमें किसी प्रक्रिया के खण्डन का कोई प्रतिपादन नहीं, मतभेदों के उभरने के स्थान पर एक ऐसी सार्वभौम साधना प्रक्रिया युग मनीषी द्वारा प्रस्तुत की गयी है, जिसे हर मान्यता और हर पंथ का व्यक्ति अपना सकता है। साथ ही उन असमंजसों का वैकल्पिक समाधान भी पा सकता है। जो अनेक विधानों पर दृष्टिपात करने पर कौन सही कौन गलत के रूप में सामने आते रहते हैं।

प्रज्ञायोग के छह पक्ष हैं।

(1) आत्मबोध-तत्वबोध- प्रातःकाल उठते ही नये जन्म का अनुभव। आज की दिनचर्या का निर्धारण तथा रात्रि को सोते समय दिन भर के कार्यों की समीक्षा। मृत्यु का स्मरण। जीवन का सदुपयोग न कर सकने पर अंत समय होने वाले पश्चाताप से मुक्ति दिलाने वाला निर्धारण।

(2) भजन- नित्य कर्म से निवृत्त होने पर जप ध्यान वाला भजन।

(3) मनन- अपराह्न में आत्मपर्यवेक्षण करते हुए आत्म समीक्षा, आत्मसुधार, आत्मनिर्माण और आत्मविकास की सामयिक योजना बनाना और उसे कार्यान्वित करने के लिए संकल्पपूर्वक अग्रगमन।

(4) तप साधन- सप्ताह में एक दिन उपवास, ब्रह्मचर्य, मौन, स्वाध्याय।

(5) अंशदान- में तप−साधनाओं का क्रियान्वयन। हर दिन यज्ञ सप्ताह में एक दिन की कमाई परमार्थ प्रयोजनों को निमित्त सुनियोजन। न्यूनतम यह राशि प्रतिदिन बीस पैसे तो होनी ही चाहिए।

(6) प्रकाश वितरण- अनुष्ठानों के कर्म-कृत्यों की पूर्णाहुति ब्रह्म-भोज के रूप में किए जाने की परम्परा है। प्राचीन काल में धर्माचरणों का परिपोषण ही ब्रह्मभोज माना जाता था। वह न बन पड़ने पर प्रसाद वितरण की परम्परा चल पड़ी। किए गये धर्मकृत्यों का प्रभाव-परिचय अन्य लोग भी इस माध्यम से ग्रहण करते थे तथा अनेकों को इस मार्ग पर चलने का प्रोत्साहन मिलता था। अब यह कार्य हर साधक को स्वयं ही करना चाहिए।

प्रज्ञायोग सार्वभौम होने के कारण उसमें गायत्री मन्त्र का प्रयोग नितान्त अनिवार्य नहीं है। ऊँकार जप से भी वह प्रयोजन पूरा हो सकता है। ऊँकार में किसी भाषा का व्यवधान भी नहीं पड़ता है। नित्य नियमित रूप से सभी साधनायें समुचित फल प्रदान करती हैं। अनियमित, अस्त−व्यस्त, उपेक्षापूर्ण, अन्यमनस्क भार से किसी प्रकार चिन्ह पूजा की तरह निपटाई हुई साधनायें प्रायः निष्फल ही सिद्ध होती है। हर साधना में मनोयोग और भाव संवेदन का समुचित समावेश सहज ही चाहिए। प्रज्ञायोग में भी।

प्रकाश वितरण का प्रसंग अपने आप में अति महत्वपूर्ण है। यों वह पूजापाठ के रूप में नहीं है पर उसे किसी भी धर्मकृत्य से किसी प्रकार कम महत्व का नहीं माना जाना चाहिए।

पुण्य परमार्थ का स्वरूप है अपना सुख बाँटना और दूसरों का दुःख बँटा लेना। इसी बात को पुण्य के संबंध में भी किया जा सकता है। अपने पुण्य प्रयासों, सत्कार्यों, उच्चस्तरीय सिद्धाँतों का प्रकाश दूसरों तक पहुँचाया जाय। दूसरों का अज्ञान, अवसान, अनुत्साह बँटा कर कम कर देने का प्रयत्न किया जाय तो इसे भी सुख बाँटने की तरह ही पुण्य परमार्थ माना जायगा। लोकमंगल के प्रयासों के साथ आत्मकल्याण भी जुड़ा हुआ है।

उत्सव पर्वों पर अपने यहाँ कोई मिष्ठान्न आदि बनते हैं तो उनका वितरण पड़ोसियों में भी किया जाता है। हर्षोत्सवों में मित्र स्वजनों के यहाँ उपहार पहुँचाये जाते हैं। वर्ष के आरंभ में भेंट, उपहार, ग्रीटिंग्स, डायरियाँ आदि भेजने का प्रचलन है। यह उपहार पद्धति सत्प्रयत्नों को व्यापक बनाने के रूप में भी होनी चाहिए। दीपक जलता है तो अपना प्रकाश समीपवर्ती क्षेत्र में अनवरत रूप से फैलाता रहा है। यह सूर्य के प्रकाश वितरण का ही एक छोटा स्वरूप है। तीर्थयात्रा से लौटकर लोग आते हैं तो वहाँ का प्रसाद भी साथ लाते हैं और उसे थोड़ी-थोड़ी मात्रा में अपने संबंधियों तक पहुँचाते हैं। इसमें मुँह मीठा करना जितना ही भाव नहीं है वरन् अपने द्वारा किए गये कृत्य का महत्व समझाना और उसका अनुकरण करने के लिए उत्साह भरा वातावरण विनिर्मित करना भी एक प्रयोजन है।

प्रज्ञायोग के साधकों को उस पुण्यलाभ का प्रकाश विस्तार भी अपने संपर्क क्षेत्र में करना चाहिए। आत्मिक स्तर की अभिरुचि उनमें तनिक भी दीख पड़े तो उनके अंकुर सींचने के लिए अपने परामर्श का लाभ उन्हें देना चाहिए। इस प्रक्रिया का दार्शनिक मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक लाभ समझाना चाहिए और बताना चाहिए कि वह मात्र कर्मकाण्ड की तरह पूजा की तुलना में अधिक समग्र और फलप्रद किस कारण से है। अपने को जो तुष्टि, तृप्ति और शान्ति इस अवलम्बन को अपनाने पर मिली हो उसका परिचय भी लोगों को देना चाहिए।

प्राचीन काल में धर्मकृत्यों के साथ ब्रह्मभोज का भी एक पक्ष जुड़ रहा था। उन दिनों धर्म प्रचारक ही सत्प्रवृत्ति संवर्धन का कार्य करते थे। प्रेस प्रकाशन उन दिनों थे नहीं, सत्संग का प्रयोजन ब्रह्मयात्रा, पदयात्रा, परिभ्रमण द्वारा ही पूरा करते थे। जन जाग्रति का, धर्मधारणा को जीवन्त रखने का प्रयोजन इसी आधार पर पूरा होता था। वह सम्पदा अब लुप्तप्राय होती जा रही है, इसलिए ब्राह्मणों को भोजन देकर पुण्य अर्जित करने का प्रयोजन भी अब निरस्त हो चला है। अब वह कार्य साधकों को स्वयं ही करना चाहिए। अपनी साधना की समग्रता, दार्शनिकता का विवरण अपने संपर्क क्षेत्र में बताते रहना चाहिए। उससे जो सन्तोष एवं आँतरिक आनन्द मिला है, उसका परिचय देते रहना चाहिए। ताकि जिन्हें इस मार्ग में ज्ञान नहीं है, उनकी भी जिज्ञासा जागे और अधिक विवरण जानने पर उस मार्ग पर चलने का उत्साह भी उभरे। स्वयं ही धर्मप्रचारक बनने और अपने परिवार, पड़ोस एवं परिचय क्षेत्र में प्रकाश वितरण की भूमिका निभानी चाहिए। आवश्यक नहीं कि यह पुण्य प्रचार मात्र प्रज्ञायोग तक ही सीमित हो। भावना, विचारणा, आकाँक्षा एवं प्रयास प्रक्रिया में दूरदर्शी विवेकशीलता भरने वाले हर प्रसंग प्रज्ञायोग के साधकों के लिए प्रकाश वितरण का माध्यम हो सकते हैं। आदर्शवादी उत्कृष्टता को अपनाने के लिए उत्साह उत्पन्न करने वाला हर प्रसंग धर्मप्रचार का माध्यम बन सकता है।


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