धर्म सम्प्रदायों की अनेकानेक प्रथा परम्परायें हैं। अध्यात्मिक तत्व दर्शन की अनेकानेक शाखा-प्रशाखाएँ हैं। उन सबके निष्कर्ष प्रतिपादन का यदि सार संक्षेप देखा जाय तो तथ्य एक ही उपलब्ध होता है। व्यक्तिगत जीवन में आत्मपरिष्कार और सामूहिक जीवन में पुण्य परमार्थ। किसी धर्म या दर्शन का विस्तार कितना ही अधिक क्यों न हो, प्रतिपादन किसी भी शैली में क्यों न किया गया हो, पर उद्देश्य इतना ही है। आस्तिकता, आध्यात्मिकता, धार्मिकता की त्रिविधिक मान्यताओं का प्रयोजन यदि ढूँढ़ा जाय तो इतना ही मिलता है कि व्यक्तिगत जीवन में मनुष्य को श्रेष्ठ उत्कृष्ट बनना चाहिए और सामूहिक जीवन में उसमें से उदारता होनी चाहिए। इसी छोटे से तथ्य को अनेक मनीषियों ने अपने-अपने ढंग से विविध मान्यताओं एवं तर्कों के साथ प्रतिपादित किया है।
इन्हें सरल और व्यवहारिक भाषा में कहना हो तो नागरिकता और सामाजिकता कहा जा सकता है। नागरिकता में कर्तव्य पालन,सदाचार, संयमी होने के लिए दबाव दिया गया है। सामूहिक जीवन में उसका व्यवहार सज्जनता, सेवा भावना से भरा-पूरा होना चाहिए।
नागरिकता का प्रयोजन वही है जो अध्यात्म का। इस स्तर के समस्त-प्रतिपादन एक ही परामर्श देते हैं कि व्यक्ति शिष्ट, सभ्य, विनीत एवं कर्तव्य निष्ठ बने। सामाजिकता का अर्थ भी वही है जो धर्मधारणा या उदारता, सेवा भावना का। करुणा, दया, दान आदि इसी परिधि में आते है। पिछड़ों की सहायता करने एवं सत्प्रवृत्तियों को अधिकाधिक विस्तृत करने की प्रेरणा धर्म तत्व से मिलती है। यही सामाजिकता है।
ईश्वर, परलोक, सद्गति का विशालकाय ढांचा इन्हीं दोनों मान्यताओं को अपनाने के लिए प्रकाश देता है। इन दोनों का सम्मिश्रण ‘नीति’ के अंतर्गत है। दूसरे शब्दों में इसे विवेक और न्याय भी कह सकते हैं। विवेक यह है कि अपना चिन्तन और चरित्र उत्कृष्ट स्तर का हो। व्यवहार में उदार-सज्जनता का गहरा पुट लगा हुआ हो। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए अपराधियों को दण्ड देना भी आता हो। यह व्यक्ति और समाज के हित में है। उद्दण्डता पर नियन्त्रण करने के लिए प्रताड़ना की भी आवश्यकता है। न्यायाधीश इसे करते रहते हैं। पर उसमें उनका व्यक्तिगत द्वेष नहीं है। अपराधी को दण्ड सहकर प्रायश्चित का अवसर मिलता है। साथ ही सामाजिक मर्यादाओं के उल्लंघन का क्या परिणाम होता है, यह समझने का सर्वसाधारण को अवसर मिलता है। न्याय के साथ उत्पीड़न भी जुड़ा हो सकता है, पर है वह व्यक्ति और समाज के हित में। इसलिए उसे नीति के अंतर्गत ही सम्मिलित किया गया है। उदारता का अर्थ उद्दण्डता को छूट देना नहीं है और न अनाचार को सहन करना। अवाँछनीयता को सहन करते रहा जाय तो इससे अनाचार को ही प्रोत्साहन मिलेगा। इस प्रकार की क्षमा तो अनर्थकारी हो जायेगी। अहिंसा का तात्पर्य अपनी ओर से किसी को अकारण दुःख न देना है। अहिंसा की रक्षा के लिए यदि अनिवार्य हो तो हिंसा भी अपनायी जा सकती है।
मूल प्रश्न यह है कि नीति की रक्षा किस प्रकार हो। व्यक्ति को सदाचार के पालन के लिए समझाया भी जा सकता है और बाधित भी किया जा सकता है। इसी प्रकार लोकहित में उदारता बरतने के लिए, सेवा धर्म अपनाने के लिए प्रशंसा से लेकर भर्त्सना तक का उपयोग किया जा सकता है। संकीर्ण स्वार्थपरता के वशीभूत होकर लोग मात्र अपनी ही सुविधा देखते हैं। पड़ोसी पर क्या बीत रही है, इतना सोचने के लिए उनके पास भाव संवेदना ही नहीं होती। ऐसी कृपण निष्ठुरता की भर्त्सना की जाती है। स्वर्ग का प्रलोभन और नरक का भय इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए है कि व्यक्ति संयमी, सदाचारी रहे और अपने साधनों को मिल−बांट कर खाये। जिनकी सहायता अपेक्षित है उनके लिए सेवा सहायता की नीति अपनाये।
पुण्य व्यक्तिगत सज्जनता को कहते हैं-परमार्थ प्रयोजनों के लिए उदारता का परिचय देने को। पुण्य परमार्थ का युग्म दूसरे शब्दों में नागरिकता और सामाजिक का समन्वय कहा जा सकता है। पुण्य ही अध्यात्म है और परमार्थ धर्म। पुरातन भाषा में जिसे अध्यात्म और धर्म कहा जाता है उसी को सरल सुबोध भाषा में इन दिनों नागरिकता-सामाजिकता कहा जा सकता है।
व्यक्ति की वरिष्ठता इसी कसौटी पर कसी जाती है कि वह व्यक्तिगत जीवन में कितना सज्जन, सदाचारी रहा और सामूहिक जीवन में उसने कितनी सेवा भावना का परिचय दिया। पर पशुओं और देव मानवों में यही अन्तर है कि एक उद्दंड अनाचारी होता है और दूसरा आदर्शवादी, संयमी-सदाचारी। देव मानव उदारता अपनाये रहते हैं और सामर्थ्य भर सज्जनता को सींचते रहते हैं। मानवी गरिमा का पौधा मुरझाने नहीं देते।
दूसरों से जैसा व्यवहार हम अपने लिए चाहते हैं वैसा ही बरताव दूसरों के साथ भी करें, इसी आदर्श को शास्त्रकारों ने “आत्मवत् सर्व भूतेषु” की मान्यता के अंतर्गत लिया है। हमारी आकाँक्षा रहती है कि हर कोई हमारे साथ सद्व्यवहार करे, सहायक बने, उदारता बरते। वैसी ही इच्छा हर कोई अपने सम्बन्ध में भी करता है। जो न्याय का समर्थक है उसे वह मात्र अपने लिए ही उपलब्ध नहीं करना चाहिए वरन् हजारों को उपलब्ध कराने के लिए तत्पर रहना चाहिए।
कर्तव्य पालन में उपेक्षा न करें। अधिकार प्राप्त करने में यदि कुछ कमी रहती हो तो उसे किसी प्रकार सहन भी करें। यही है नीति। अपने आपको समर्थ, बलिष्ठ, सम्पन्न बनाया तो जाय पर वह मात्र अपनी ही तृष्णा, वासना, अहंता की पूर्ति के लिए न हो। उसका समाज में सभी को लाभ मिले। न्याय की रक्षा में वे बढ़े हुए साधन काम आयें तभी उनकी वास्तविक उपयोगिता है। समाज का सभ्य सदस्य होने के नाते मनुष्य पर अनेक जिम्मेदारियाँ आती हैं। वह अपने को सुविकसित बनाने के लिए इसलिए प्रयत्न करे ताकि वह दूसरों को भी ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो सके। अन्याय को रोक सके। दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन में एक बलिष्ठ योद्धा की भूमिका निभा सके। सत्प्रवृत्तियों के क्षेत्र विस्तार में वह कुशल माली की तरह अपना कौशल एवं पुरुषार्थ प्रकट कर सके।
निजी समस्याओं का समाधान औचित्य की मर्यादाओं में रहकर किया जाय। प्रतिपक्षियों के साथ विचार विनिमय द्वारा गलतफहमियों के निवारण के लिए प्रयत्न करने का द्वार कभी बन्द न किया जाय। दिग्भ्राँतों को वास्तविकता समझाये और सही मार्ग पर लगाने की जिम्मेदारी भी वहन की जाय। यह बिना माँगे सहायक होने पर भी याचक को दान देने की प्रत्यक्ष दानशीलता की अपेक्षा कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। याचक तो मात्र अपने अभावों की पूर्ति के लिए साधन माँगता है। उससे कुछ समय की उसकी कठिनाई हल