पृथ्वी का धरातल जितना है उतना ही रहेगा। उसे तान कर बढ़ाया नहीं जा सकता, पर उसके ऐसे अनेक क्षेत्र हैं, जिनसे संपर्क नहीं साधा गया और दोहन नहीं किया गया। यदि इस सारी सम्पदा को अधिकार क्षेत्र में लिया जा सके और उसका सदुपयोग किया जा सके तो सुनिश्चित है कि इन दिनों वस्तुओं का जो अभाव दीख पड़ता है वह भविष्य में न रहेगा और पीढ़ियों तक उसके सहारे सुखपूर्वक जिया जा सके। अभी तो सिर्फ एक मीटर गहरी धरती की उर्वरा तक जो कुछ उगाया जा सकता है उसी से काम चलाना पड़ता है। उतने भर को ही हम उपलब्धियों की चरम सीमा मानते हैं।
धरती की गहराई में प्रवेश करने का सिलसिला जब से चला है, तब से खनिज सम्पदा के भण्डार हस्तगत होते चले गये हैं। किसी जमाने में गोबर और पेड़ों को ही जला कर ऊर्जा उत्पन्न की जाती थी, पर अब पत्थर का कोयला, गैस और तेल के भण्डार भूतल से कुरेद कर उस आवश्यकता की बहुत कुछ पूर्ति की जा रही है। यह सम्पदा थी तो अनादि काल से, पर मनुष्य ने उसे उपलब्ध करने तथा प्रयोग में लाने की विधि नहीं सीखी थी। अब भौतिक जगत को अधिक तत्परतापूर्वक खोजा जाना आरम्भ हुआ है तो सम्पदाएँ भी प्रचुर परिमाण में हाथ लगी हैं। लोहा, सोना, चाँदी, ताँबा, शीशा जैसी अनेक धातुएं एवं पेट्रोलियम आदि भी धरातल की गहरी परतें खोदने पर ही हाथ लगे हैं।
समुद्र में मोटेतौर पर खारा और भारी पानी भरा दीखता है। उसकी खतरनाक स्थिति को समझते हुए कभी समुद्र पार करने का निषेध रहा है। कारण कि अन्य क्षेत्रों में एक तो भाषा सम्बन्धी कठिनाइयाँ थीं, दूसरी समुद्र के तूफान, ज्वार-भाटों के कारण भी नौकायन को खतरे से भरा हुआ देखा जाता था। कितनी ही किंवदंतियां भी डराती थीं। पर वह समय चला गया। अब बढ़े हुए ज्ञान के आधार पर समुद्र की गोद में मनुष्य जाति खेलती है। पानी की सतह का सड़क जैसा उपयोग करने वाले छोटे-बड़े अनेकों द्रुतगामी जलयानों का आविष्कार हो चुका है। हजारों यान उस क्षेत्र में दौड़ते हैं और कइयों टन माल इधर से उधर ढोते हैं। ऐसे यानों की योजना विचाराधीन है जिसके अनुसार समुद्र में तैरते हुए नगर बनाये जा सकेंगे और भूमि पर आबादी के रहने के लिए जो कमी पड़ती जा रही है उसकी पूर्ति हो सकेगी। समुद्र में बहुमूल्य धातुओं के भण्डार भी हैं। कहा जाता है कि भूगर्भ से मनुष्य ने जितना अधिक पाया है उतना ही वैभव उसे अगले दिनों समुद्र से मिलने जा रहा है। थल एक तिहाई है और जल दो तिहाई। समुद्र के सुविस्तृत क्षेत्र से ही बादल उठते और थल को सींचते हैं। पानी से वनस्पति उगती और मनुष्य के जीवन का आधार बनती है। अन्न, जल ही नहीं, हवा भी समुद्र के थपेड़ों की चोट सहकर ही गतिशील रहती है। इस प्रकार धरती पर रहने वाले मनुष्य सहित सभी प्राणियों का परोक्ष आधार समुद्र को माना जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी। अगले दिनों उसके भीतर पाई जाने वाली शैवाल जैसी वनस्पतियों का भी अन्न जैसा उपयोग होने लगेगा। समुद्र तल से तेल और गैस मिलने की पूरी संभावना है। पनडुब्बियों और युद्ध पोतों ने समुद्र क्षेत्र को भी कुरुक्षेत्र की भूमिका निभाने योग्य बना दिया है। समुद्र भी पृथ्वी के साथ ही जुड़ा हुआ है पर उसका दृश्य भर देखा जाता है। उपयोगिता नहीं खोजी गई थी और न कुछ पा सकने का सुयोग बना। अब गंभीर ज्ञान के सहारे प्रकृति के रहस्यों को खोजने का ही परिणाम है कि हम पूर्वजों की तुलना में अधिक बड़े क्षेत्र में क्रीड़ा कल्लोल करते हैं और कहीं अधिक वैभव के अधिकारी हैं।
प्रकृति कंगाल नहीं है उसके पास इतना कुछ है जिसे देखकर आश्चर्यचकित रहा जा सकता है आवश्यकता अब रहस्यमय परतों तक पहुँच सकने वाली और कुरेदने की लगन दिखा सकने वाली प्रतिभा की है। वह प्रसुप्त स्थिति में मनुष्य के पास प्रचुर परिमाण में विद्यमान है आवश्यकता उसे जागृत करने भर की है। अनजान बने रहने वाले अनगढ़ जन तो अच्छी खरी परिस्थितियों में भी अभाव का रोना रोते रहते हैं।
अभी-अभी दक्षिणी ध्रुव का विशाल क्षेत्र खोज निकाला गया है। कुछ दशाब्दियों तक इसकी स्थिति का सामान्य ज्ञान भी लोगों को न था। उत्तरी ध्रुव अपेक्षाकृत छोटा, कम ठंडा और मनुष्य की पहुँच के अंतर्गत है। उसमें आने जाने और प्रकृति की- वातावरण की- अंतर्ग्रही परिस्थितियों की उस संपर्क से महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिलती रही हैं। वहाँ के तटीय क्षेत्र में बसने वाले एस्किमो कबीले भी उस क्षेत्र की खोज में सहायक सिद्ध होते रहे हैं। किन्तु दक्षिणी ध्रुव के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है। उसका आकार सुविस्तृत है। धरती के महाद्वीपों में से उसे भी पांचवां महाद्वीप माना जा सकता है। इतने बड़े क्षेत्र का ओर-छोर ढूंढ़ निकालना पिछले दिनों संभव न था। वैसे साधन भी नहीं थे। पूरे द्वीप पर एक भी मनुष्य नहीं बसता, कारण कि ठंड इतनी अधिक पड़ती है कि तथाकथित गर्मी के मौसम में भी हड्डियों तड़का देने वाली ठंड पड़ती है। फिर बर्फ की इतनी मोटी चादर जमी है जिसे मीलों की ऊँचाई में नापा जा सकता है।
किन्तु आज का तरुण समझा जाने वाला मनुष्य पूर्वजों को बालकों जैसी स्थिति का समझता, मानता है। प्रगति ने उसे तरुणाई प्रदान की है और साथ ही ऐसी बौद्धिक चेतना, साधन, सुविधा भी दी है, जिसके सहारे वह प्रकृति के अनुद्घाटित रहस्यों को समझने और उनसे लाभ उठाने का सफल प्रयास कर सके। भौतिक क्षेत्र में की गयी इस मानवी प्रगति को जितना सराहा जा सके उतना ही कम है।
विशालकाय- किसी भी महाद्वीप की तुलना में अग्रणी बैठने वाला दक्षिणी ध्रुव इतना अद्भुत और सुसम्पन्न है कि उसके वैभव को ललचाई दृष्टि से देखा जाय तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
दक्षिणी ध्रुव प्रदेश के विशाल परिकर में बर्फ की ऊपरी परत को छेदकर इतनी अधिक खनिज सम्पदा उपलब्ध की जा सकती है जितनी कि पिछले दो सौ वर्षों में खुले क्षेत्र से निकाली गयी है। इस प्रकार पता चलता है कि दक्षिणी ध्रुव क्षेत्र में आड़े वक्त के लिए प्रकृति ने जो सम्पदा छिपा कर रखी थी, उसे प्राप्त करके मनुष्य अगली शताब्दियों के लिये निश्चिन्त हो सकेगा।
हमारा विदित तथा विज्ञात काय-कलेवर तथा परिचय क्षेत्र सीमित है। वह हमें अपर्याप्त मालूम पड़ता है और अभावों की बात सोचकर हम असंतुष्ट बने रहते हैं। किन्तु यदि अपने रहस्यमय क्षेत्र को अंतर्जगत में ढूंढ़े तथा बाह्य जगत के उन दैवी क्षेत्रों में प्रवेश करें जिनसे कि अभी तक हम अपरिचित ही बने रहे हैं, तो वैभव और संतोष का नया द्वार खुल सकता है। जरूरत आन्तरिक रहस्यों को उद्घाटित करने और बाह्य जगत में आदर्शवादिता के दैवी क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए आवश्यक साहस जुटाने भर की है।