सतयुग लौटने वाला है।

December 1986

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भारत भूमि देवभूमि है। यहाँ की विभिन्न परिस्थितियों का रसास्वादन करने के लिए देवगण उसी प्रकार पृथ्वी पर जन्मने की आकाँक्षा करते हैं, जिस प्रकार कि हम सब स्वर्ग जाने और वहाँ के वैभव का लाभ लेने की सोचते हैं।

प्राचीन काल में इस स्वर्गादपि गरीयसी भारतभूमि पर देव-मानवों का ही बाहुल्य था। उनकी जीवनचर्या आदर्शों से ओत-प्रोत रहकर ही व्यतीत होती थी। चंदन वृक्ष की तरह वे समीपवर्तियों को अपने सदृश बनाते थे और समूचे वातावरण में ऐसी गंध बिखेरते थे, जिससे हर किसी का मन शान्ति सन्तुलन से भरा पूरा रहे।

संसार का हर पदार्थ गतिशील है। सौर मंडल के ग्रह उपग्रह तो अपनी धुरी तथा कक्षा में परिभ्रमण करते ही रहते हैं। पदार्थ की लघुतम इकाई के रूप में विद्यमान परमाणु तक को अपने साथ बाँधे रहते हैं। साथ ही उन्हें गतिशील भी बनाते हैं।

भारत भूमि पर अवतरित हुए देव-मानवों के लिए सर्वाधिक आनन्ददायक काम था प्रव्रज्या। प्रव्रज्या कहते हैं धर्म धारणा के विस्तार के लिए किया गया परिभ्रमण। एक स्थान पर स्थिर रहने की नीति वृक्षों या चट्टानों की है। वे जहाँ जन्मते हैं, वहाँ पर मरण की इति श्री भी करते हैं, किन्तु जिनमें जीवन है उन्हें गतिशीलता अपनानी पड़ती है। गति अर्थात् चलना। कहाँ चलना? किस कार्य के लिए चलना? इस प्रश्न का उत्तर महामानवों की ओर से सदा एक ही मिलता रहा है। प्रसुप्ति को जागृति में बदलना। अनगढ़ को सुगढ़ बनाना। निष्क्रियों में सक्रियता का प्राण फूँकना, अविनीत को प्रगति में बदलना। यही है वह प्रयोजन जिसके लिए देव-मानव अपने आपको सूर्य चन्द्र की तरह गतिशील बनाये रहते हैं एवं किसी स्थान विशेष से मोह नहीं जोड़ते।

बादल एक जगह नहीं टिके रहते। यों उनका जन्म स्थान समुद्र है, पर वे समुद्र के आश्रित बनकर उसी के इर्द-गिर्द मंडराते नहीं रहते, वरन् लम्बे प्रवास पर निकल जाते हैं, जहाँ पानी की आवश्यकता अनुभव करते हैं। बिना अपने पराये का भेद-भाव किए वे मूसलाधार बरस पड़ते हैं। अपने को गला देते हैं, पर यह गलना भी निरर्थक नहीं जाता। मिट्टी में जलधार के आत्मसात् होने पर जो हरीतिमा उगती है, उससे न केवल धरित्री की शोभा सुषमा बढ़ती है, वरन् उनके प्राणियों को जीवन धारण करने का अवसर भी मिलता है। ग्रीष्म से तपती जमीन शान्त होती है और कुम्हलाये हुए मुरझाये हुए पादपों को नवजीवन उपलब्ध होता है। बादल इसी में अपने को कृतकृत्य हुआ अनुभव करते हैं।

पवन अनिवार्य रूप से चलता रहता है। हर किसी को हिलाता और गोदी में लेकर झूला झुलाने जैसा मोद प्रदान करता है। इतना ही नहीं, वह इस प्राण तत्व को भी न केवल बाँटता है, वरन् फेफड़ों के भीतर पहुँचाता भी है, जिसके बिना किसी जीवधारी का जीवित रह सकना संभव नहीं।

नदी, निर्झर बहते हैं। उसके प्रयास से कितनों की प्यास बुझती है। खेत, उद्यान हरे भरे रहते और फल फूल से लदते हैं। नदियाँ समीपवर्ती क्षेत्रों से जल समेटती चलती हैं और सबको लेकर मार्ग में सिंचाई करती हुई समुद्र केन्द्र का भण्डार भरती हैं ताकि थलजीवों की तरह जलजीवों का भी पोषण होता रहे।

मनुष्यों और देवमानवों की रीति, नीति, विधि, दिशाधारा यही होती है। वे अपने निजी वैभव और यश की ओर ध्यान नहीं देते। औसत नागरिकों जैसा निर्वाह करने की व्यवस्था तो किसी प्रकार बन जाती है। प्रश्न है ऐसे काम करने का, जिनके साथ जीवन की सार्थकता जुड़ी हुई है। ऐसे काम एक स्थान पर बैठ कर तो कदाचित ही किसी सीमा में हो सकते हैं। जहाँ आवश्यकता है वहाँ दौड़कर स्वयं जाना पड़ता है। रेल, मोटरें स्वयं दौड़ती हैं और यात्रियों को अपने कंधे पर लादकर स्थान-स्थान पहुंचाती हैं। नावें भी यही करती हैं। स्वयं पानी में भीगी रहती हैं, पर बैठने वालों को भीगने से बचाकर पार उतारती हैं। उन्हें भी चलना दौड़कर पड़ता है, जबकि लाभ उठाने वाले उसकी पीठ पर जमे बैठे रहते हैं।

पानी का स्वभाव है कि जहाँ गड्ढा होता है वहाँ दौड़कर स्वयं जा पहुँचता है और तब तक भरता रहता है जब तक कि जल थल की सतह एक नहीं हो जाती। पिछड़े हुओं को प्राथमिकता मिलनी चाहिए और उन्हें इतना सहयोग मिलना चाहिए कि वे समुचित स्तर तक ऊँचे उठ सकें। पिछड़ गये हों तो आगे बढ़ सकें। यह उनकी माँग पर नहीं, अपनी उदारता और आत्मीयता की प्रेरणा से किया जाना चाहिए।

माली स्वयं एक सीमा तक ही ऊँचा बढ़ता है, पर उसके लगाये पेड़ पर्याप्त ऊंचाई तक उठ जाते हैं। अनेक पक्षियों और कीट पतंगों का आश्रय बनते हैं तथा फल फूलों से छाया, ईंधन से अनेकों का हित-साधन करते हैं। इसका श्रेय माली को ही है कि उसने नन्हें बीज को शोभायमान समुन्नत वृक्ष बनाकर गौरवशाली बनने का श्रेय प्रदान किया। देवता भी यही करते हैं।

देवता उन्हें कहते हैं जो देते बहुत और लेते कम हैं। लेने के लिए मनुष्य की वास्तविक आवश्यकतायें ही कितनी हैं। पेट भरने को रोटी और तन ढकने को कपड़ा कुछ ही घंटों के परिश्रम से ही उपार्जित किया जा सकता है। कठिनाई तो तृष्णा की है। वही ऐसी खाई है जिसे कुबेर जितने खजाने से भी नहीं भरा जा सकता। अहंता का दर्प ऐसा है जिसके लिए इन्द्र जैसा वर्चस्व भी कम दिखाई पड़ता है। जो इन्हीं की पूर्ति में लगे रहते हैं उन्हें न समय मिलता है, न संतोष, न चैन। कोल्हू के बैल की तरह किसी के स्वार्थ साधन बनते हैं और बेगार भुगतते हुए दम तोड़ते हैं।

भारत सदा से देवभूमि रहा है। यहाँ से नर-रत्न उपजते और पुण्य परमार्थ के लिए अपना श्रम, समय, मनोयोग निछावर करते रहे हैं। साधु और ब्राह्मण के नाम से पहचाना और पूजा जाने वाला वर्ग शरीर संरचना की दृष्टि से तो अन्य मनुष्यों जैसा ही होता है, पर प्रवृत्ति में उत्कृष्ट आदर्शवादिता घुली रहती है। उन्हीं प्रेरणाओं से प्रेरित होकर वे अपनी रीति-नीति और गतिविधि का निर्धारण करते हैं। अपने लिए न्यूनतम लेते हैं और दूसरों के लिए अधिकतम देने के कारण ही पुरोहित वर्ग को भूसुर की- धरती के देवता कहलाने की प्रतिष्ठा मिली।


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