ज्योतिर्विज्ञान और वेधशालाएँ

December 1986

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आकाश में अवस्थित ग्रह नक्षत्रों का भला बुरा प्रभाव धरती के वातावरण, प्राणियों, वनस्पतियों तथा ऋतु परिवर्तनों पर पड़ता देखा गया तो प्राचीन काल के मनीषियों ने इस संबंध में अधिक खोज करने का निश्चय किया। इसके लिए सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक समझा गया कि आकाश में घूमते ग्रहों की स्थिति को समझा जाय कि वह कब कहाँ किस स्थिति में होती है? यह कार्य आरम्भिक दिनों में लम्बी नलिकाओं के सहारे होता था। जो निष्कर्ष निकलते थे, उसके आधार पर ग्रह गणित की विधाएँ विनिर्मित की गईं। लम्बे समय तक इस गणितीय आधार पर ही ज्योतिष की गाड़ी को चलाया जाता रहा।

इतने पर भी स्थिति निश्चित न हुई। गणित का निष्कर्ष सही नहीं बैठता था। ग्रहों के उदय-अस्त में घंटों का नहीं दिनों का अंतर पड़ने लगा तब गणित के नये-नये फार्मूले खोजे और अपनाये जाने लगे। इस पर भी अनिश्चितता किसी न किसी रूप में बनी ही रही। कारण यह था कि पृथ्वी की तरह सौर मण्डल के अन्यान्य ग्रहों की चाल की नापतौल पृथ्वी की घड़ियों से सही नहीं हो पा रही थी। दोनों के बीच अंतर बना ही रहता था और वह घटता बढ़ता भी रहता था। एक दो वर्षों में ही यह आवश्यक पड़ जाती थी कि ग्रह नक्षत्रों की स्थिति को आंखों से देखते रहा जाय और उसके आधार पर समय-समय पर किये गये गणितों की प्रक्रिया में आवश्यक हेर-फेर किया जाता रहे। इस प्रयोजन के लिए वेधशालाओं के निर्माण का सिलसिला शुरू हुआ। तब भारत की दूरवर्ती विशालता थी। यहाँ के विद्वान समूची धरती को अपना ही घर तथा कार्य क्षेत्र मानते थे। इसलिए वे मात्र भारत में ही बैठे रहने की अपेक्षा जहाँ आवश्यकता अनुभव करते थे वहाँ बस जाते थे। ज्योतिष के लिए उपयुक्त भौगोलिक स्थिति यूनान की समझी गई और वेधशालाओं का अभिनव सिलसिला उसी भूमि से चला। यद्यपि उस विधा की जन्मदात्री भारतभूमि ही बनी रही। यूनान को वह ज्ञान निर्यात होता रहा। मध्य एशिया में औरंगजेब के प्रपौत्र उलूखवेग ने खगोलवेत्ताओं की सहायता से एक वेधशाला बनाई जिसमें लकड़ी से बने यंत्र लगाये थे वाराहमिहिर की “पंच सिद्धान्तिका” में इन वेधशालाओं को बनाने के सूत्र संकेत हैं। उन्हीं के आधार पर निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ।

भारत में यह स्थापनाएँ इसके उपरान्त हुई। दिल्ली की कुतुबमीनार इसी आधार पर बनी। उसमें ग्रहों तथा राशियों का मापन प्रबंध है। समीप ही 27 नक्षत्रों की स्थिति जानने के लिए सत्ताईस ऐसे यंत्र बने हैं जिनकी सहायता से नक्षत्रों स्थिति भी आँकी जा सकती थी।

इस विषय में जयपुर के तत्कालीन शासक जयसिंह ने विशेष रुचि ली। उन्होंने इस विधा के ग्रन्थ देश-देशान्तरों से मंगाये और उनके अनुवाद कराये। उन्होंने यह आवश्यक समझा कि यदि ज्योतिष शास्त्र को सही स्थिति में रखा जाना है तो इसके लिए मात्र गणित की पुरानी विधियाँ ही पर्याप्त न होंगी, वरन् इसके लिए सुनियोजित वेधशालाएँ स्थान-स्थान पर बनानी पड़ेंगी, जिससे ग्रह चाल और पृथ्वी की सीध से संबंधित प्रकाश का तारतम्य सही रीति से संभव हो सके। इसी प्रकार उन दिनों प्रचलित नवजात शिशु की जन्मकुण्डली बनाने के लिए भी आवश्यक यह समझा गया कि समीपवर्ती वेधशाला द्वारा प्रमाणित जन्माक्षरों को ही सही माना जाय। यह सभी कारण ऐसे थे जो खगोलवेत्ताओं को इस बात के लिए बाधित करते थे कि यदि इस शास्त्र की प्रामाणिकता स्थिर रखनी हो तो इसके लिए स्थान-स्थान पर वेधशालाएँ बनाई जायँ।

इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए महाराजा जयसिंह ने अपने संग्रहित ज्ञान तथा निजी सूझ-बूझ के आधार पर कई वेधशालाएँ एक के बाद एक खड़ी कीं। दिल्ली के तत्कालीन शासक मुहम्मदशाह से आज्ञा पत्र प्राप्त करके प्रथम वेधशाला दिल्ली में बनाई गई जिसके उपरान्त उज्जैन में वेधशाला बनी। कर्क रेखा उज्जैन से होकर ही गुजरती है। महाकाल की गणना का भी उससे संबंध है। इसके पश्चात मान मंदिर में वाराणसी की छोटी वेधशाला बनी उसमें मात्र 6 प्रधान यंत्र बनाये गये।

जयपुर की वेधशाला बनाने का कार्य सन् 1718 से लेकर 1738 तक सम्पन्न हुआ। उसे देश की सबसे बड़ी वेधशाला कहा जा सकता है। इसमें यंत्र अपेक्षाकृत अधिक लगे हैं और गणकों की सुविधा के लिए कुछ बड़े आकार के भी बनाये गये हैं।

मथुरा की वेधशाला छोटी थी। मद्रास की वेधशाला तत्कालीन गवर्नर आकले ने सन् 1792 में बनायी। इसमें नवीनतम जानकारियों का भी समावेश किया गया। देव प्रयाग में भी ऐसी ही एक यंत्र की वेधशाला है। पुरातन इतिहास को खोजने पर नवीं शताब्दी में राजा रतिवर्मा ने महोदय पुरा (दक्षिण भारत) में एक वेधशाला बनाई थी। रामायण काल में महर्षि अत्रि की तूर्य वेधशाला प्रसिद्ध थी। इन वेधशालाओं के माध्यम से आकाशीय पिण्डों के उन्नतांश, दिशांश, अक्षांश आदि की गणना होती थी। कई जगह मजबूत मिट्टी और चुना पत्थर की सहायता से ज्योतिष संस्थान बने थे। उनका नाम जहाँ कहीं ‘ग्रह मंत्रालय’ भी दिया गया था।

भास्कराचार्य ने अपने ‘सिद्धान्त’ शिरोमणि और ‘करण कौतूहल’ ग्रन्थों में खगोल वेध के निमित्त अनेक विधान रखे हैं। पर उनमें से छोटे बड़े यंत्र बनाने का विधान रखा है। पर उनमें से इन दिनों विनिर्मित वेध-शालाएँ वक्रयंत्र, चापयंत्र, तर्घयंत्र, मौलयंत्र, नाड़ीयंत्र, वलययंत्र, पट्टिकाययंत्र, शंकु यंत्र, दिगंशयंत्र, पलभायंत्र, वृत्तयंत्र, भित्तियंत्र, कपालयंत्र आदि ही मिलते हैं। निर्माणकर्ताओं ने अपने नाम को प्रख्यात करने के लिए सम्राटयंत्र, राययंत्र, जय प्रकाशयंत्र आदि नाम भी रख लिये। इनका पुराना वास्तविक नाम क्या था यह जाना नहीं जा सका। पीछे ऐसी भी प्रयत्न किये गये कि कुछ यंत्र ऐसे भी बनाये जायं जिनमें कई यंत्रों का समावेश हो और उनके सहारे कई प्रकार के गणित एक साथ किये जा सकें। इस प्रयोजन के लिए मिश्रित यंत्र बना। नियति यंत्र में एक साथ दिनमान, क्रान्तिवृत आदि की जाँच पड़ताल की जा सकती है।

कोणार्क (उड़ीसा) का सूर्य मंदिर वस्तुतः एक सूर्य वेधशाला है। सूर्य को खुली आँखों से देखना कठिन है। इसलिए इसकी अंशगणना अति कठिन समझी जाती है। इसको हल करने के लिए खगोलवेत्ताओं की एक मंडली ने राज-सहयोग से कोणार्क का सूर्य मंदिर बनाया और उसमें सूर्य का वेध संधान किया।

इन दिनों ज्योतिष की मूल दिशा मरोड़कर उसे पूजा भाष्य, भविष्य कथन, मुहूर्त शोधन, ग्रहशान्ति आदि के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। ग्रह गणित की वस्तु स्थिति की ओर किसी का ध्यान नहीं है। यही कारण है कि छह शास्त्रों में प्रमुख गिना जाने वाला ज्योतिष शास्त्र अपनी मौलिक विशेषता और गरिमा से विलग होता चला जा रहा है।

इस क्षेत्र में आशा की एक किरण के रूप में शांतिकुंज की नवनिर्मित वेधशाला को देखा जा सकता है, जिसमें प्राचीन सिद्धान्तों और अर्वाचीन अनुभवों का समावेश करते हुए एक छोटा किन्तु सर्वांगपूर्ण ग्रह मंत्रालय विनिर्मित किया गया है और नेपच्यून, यूरेनस, प्लेटो नाम तीन नवीन ग्रहों का अभिनव गणित भी सम्मिलित करते हुए दृश्य गणित पंचांग भी गत तीन वर्षों से प्रकाशित किया जाने लगा है। इस प्रसंग में अभी अधिक शोध प्रयत्नों की आवश्यकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles