योगविज्ञान को त्रिवेणी संगम की तरह तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। हमारे कायिक आवरण भी तीन हैं- स्थूल, सूक्ष्म और कारण। इन तीनों की स्वच्छता और प्रगति के लिए तीन स्तर के उपाय-उपचारों को प्रचलन है।
स्थूल शरीर को स्वस्थ रखना आवश्यक है। बीमार व्यक्ति तो अपने तथा दूसरों के लिये भारभूत ही होता है। उससे न भौतिक प्रगति सधती है, न आत्मिक। इसीलिए योगी को सर्वप्रथम शरीर से संबंधित क्रियायोग को अपनाना पड़ता है। इसके दो प्रमुख आधार हैं। एक आहार, दूसरा व्यायाम। साधना हेतु आहार की सात्विकता आवश्यक है। उसका स्तर और अनुपात भी ऐसा रहना चाहिए जिससे आलस्य या अपच का प्रकोप न होने पाए। इसके अतिरिक्त इसी क्षेत्र में व्यायाम का महत्व माना गया है। आसनों का अभ्यास इसी निमित्त किया जाता है। बन्ध-मुद्राओं के अभ्यास भी इस प्रयोजन में मदद करते हैं। संचित मलों के निष्कासन के लिए हठयोग के अंतर्गत इसी निमित्त नेति, धौति, वस्ति, कपाल, भाति इत्यादि का प्रयोग किया जाता है। यह क्रिया प्रधान होने से क्रियायोग के नाम से जानी जाती है। इसी निमित्त कई बार चान्द्रायण व्रत, दूध-तक्र कल्प आदि किए जाते हैं।
योग का दूसरा चरण है- मनोनिग्रह। इसे सूक्ष्म शरीर की साधना कहा गया है। मन की कुकल्पनाएँ और इच्छाएँ इसके अंतर्गत नियन्त्रित की जाती हैं। एकाग्रता की साधना अपने विभिन्न रूपों में इसी निमित्त करते हैं। ध्यान के अनेकानेक प्रयोग प्रचलन इसी निमित्त हैं।
मन की चंचलता का निरोध इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम, विचार संयम इन चार अनुशासनों से बंधा हुआ है। निरंकुश स्वेच्छाचारी मन न नीति, मर्यादा का अंकुश मानता है और न सही मार्ग पर चलने के लिये सहमत होता है। उसे सरकस के रिंगमास्टर की तरह हंटर के बल पर अनुशासन मानने के लिये बाधित किया जाता है। यही मनोनिग्रह है। एक काम से छुड़ाने का एक ही उपाय है- वह यह कि दूसरी आदत छुड़ाने के लिये नई कार्य पद्धति में उसे जुटा दिया जाय। जप या ध्यान का युग्म मनोनियंत्रित करके उसे लक्ष्य बिन्दु पर केन्द्रित होना सिखाता है।
कारण शरीर की साधना में अन्तःकरण का उदात्तीकरण करना पड़ता है। आस्थाएँ, भावनाएँ, आकाँक्षाएँ विचारणाएँ आदर्शों के अनुरूप ढालनी पड़ती हैं। जन्म जन्मान्तरों के संचित कुसंस्कार इस मार्ग में पग-पग पर बाधा पहुँचाते हैं इसलिए उनकी ओर से विमुख होने की बैरागी प्रवृत्ति अपनानी होती है और आदर्शों के समुच्चय भगवान के साथ आन्तरिक भक्ति भावना जोड़नी पड़ती है। यही योग है। इसी को अद्वैत एवं समर्पण की स्थिति कहते हैं। जिस प्रकार आग में ईंधन डाल देने पर वह सामान्यता खोकर असामान्य बन जाता है, उसी प्रकार ‘प्रेम’ रूपी भगवान में अपने आपको होम देने पर मनुष्य का जीवनक्रम विश्व प्रेम से ओत-प्रोत हो जाता है। आत्मीयता की परिधि सीमित न रहकर असीम हो जाती है। जिससे भी प्रेम किया जाता है, उसकी प्रसन्नता के लिए सेवा सहायता करने की उत्कंठा होती है। विराट् विश्व को ईश्वरमय मानते हुए लोक मंगल के कार्यों में निरत होना पड़ता है। भगवान की विश्व-वाटिका को सींचना, उसे हरी-भरी सुरम्य-सुविकसित बनाना वास्तविक ईश्वर प्रेम है। यह कल्पना लोक की उड़ाने उड़ने से नहीं, जनकल्याण की सेवा-साधना का व्रत लेने से संभव होती है। योग की यही तीन धाराएँ हैं, जिनका साधक को समुचित समन्वय करते हुए ही आगे बढ़ना होता है।