महात्माओं की संगति का चस्का (Kahani)

December 1986

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कर्नाटक के बीजापुर क्षेत्र में जन्में विश्वेश्वर जी को सन्त महात्माओं की संगति का चस्का लगा। उनके संपर्क से वे ईश्वर दर्शन, देवताओं का वशीकरण, मंत्र सिद्धि, कुण्डलिनी जागरण, चमत्कार प्रदर्शन जैसे आकर्षक दिवास्वप्नों में उलझ गये। इस प्रयोजन के लिए अनेक गुरुओं की बताई हुई अनेक साधनाएं भी कीं, पर उनने कुछ ही समय में यह अनुभव कर लिया कि इस जाल जंजाल में कुछ सार नहीं। भ्रान्तियों के भटकाव और व्यवसाइयों के आडम्बर भर पर यह सारा खेल खड़ा है। उनने गहन चिन्तन, मनन और आप्त जनों के परामर्श से यह निष्कर्ष निकाला, कि जीवनचर्या में आदर्शों का समावेश और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन की सेवा साधना ही सच्चे आध्यात्म का प्रयोजन पूरा करती है। वे सीमित उपासना का क्रम बनाकर शेष समय लोक साधना में लगाने लगे।

सन्त विश्वेश्वर गृहस्थ थे। सादे कपड़े पहनते थे। स्थानीय जागीरदार की शासन व्यवस्था में भी योगदान करते थे। इतने पर भी उनका लक्ष्य और कार्यक्रम साधु पुरुषों जैसा ही रहा। लोगों ने उन्हें स्वेच्छा से सन्त कहा और माना।

सन्त विश्वेश्वर जी ने व्यावहारिक अध्यात्म का मार्ग अपनाया और अपने प्रबल प्रयत्न से उसी में हजारों को लगाया।

उस क्षेत्र में प्रचलित ऊँच-नीच, छुआछूत और स्त्री को हीन समझे जाने की मूढ परम्परा को मिटाने का व्रत लिया। कीर्तन अयोजकों की पद्धति अपनाई। उसमें स्त्री और छुद्र भी समान रूप से भाग लेते थे। फलतः पुरातन पंथियों के विरोध का सामना करना पड़ा। इस झंझट में उन्हें बार-बार अपमान और कष्ट सहने पड़े, पर वे मार्ग से तनिक भी विचलित नहीं हुए।

उन्होंने उस सारे क्षेत्र में घूमकर कीर्तन आयोजनों के महत्व में पशुबलि, मृतक भोज, भिक्षा व्यवसाय, जादू टोना जैसी अनेक कुरीतियों, प्रचलनों को हटाने में आशातीत सफलता प्राप्त की। वे अपने समय के माने हुए समाज सुधारक सन्त थे।


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