आत्मज्ञानं परं ज्ञानम्

December 1986

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जानकारियाँ जितनी अधिक हों, उतनी ही उत्तम हैं। ज्ञान को मस्तिष्क का रत्न भण्डार कह सकते हैं। जो जितना अधिक विज्ञ है, वह अपनी सूझ-बूझ को इतनी विकसित कर लेता है कि अपनी ही नहीं, दूसरों की समस्याओं का भी समाधान कर सके। स्वयं ही ऊँचा न उठे वरन् दूसरों को भी ऊँचा उठा सके, आगे बढ़ा सके। अन्यान्य सम्पदाएँ तो आती-जाती रहती हैं, पर ज्ञान का वैभव भण्डार ऐसा है जिसे काम में लाते रहने पर भी वह निरन्तर बढ़ता ही रहता है, घटता नहीं।

इसीलिए स्वाध्यायशील होना एक बड़ा सद्गुण बताया गया है। सिसरो ने कहा है- “प्रकृति की अपेक्षा स्वाध्याय से अधिक मनुष्य श्रेष्ठ बने हैं।” जबकि शेली का कहना है कि “जितनी ही हम अध्ययन करते हैं, उतना ही हमको अपने अज्ञान का आभास होता जाता है।” इसी कारण श्रुति में कहा गया है- “स्वाध्यायान्नाप्रमदः” अर्थात् स्वाध्याय के क्षेत्र में मनुष्य को प्रमाद नहीं करना चाहिए। वस्तुतः प्रगतिशील विचार धारा-प्रेरणा एवं तत्परता उत्पन्न करने के लिए सत्साहित्य नितान्त आवश्यक है। सत्संग से भी यही प्रयोजन आँशिक रूप से पूरा होता है।

इन दो के अतिरिक्त दो उपाय-उपचार ज्ञान वृद्धि के और भी हैं। इनमें से एक है चिन्तन, दूसरा मनन। अपनी समस्याओं का कारण एवं निदान तलाश करने पर अपने आप भी मिल सकता है। सत्य तो यह है कि अपनी समस्याओं के संबंध में दूसरा कोई इतनी अच्छी तरह जान नहीं सकता जितना कि हम स्वयं जानते हैं। पर पक्षपात, पूर्वाग्रह की एक परत मन-मस्तिष्क पर ऐसी जमी होती है जो अपने को सदा निर्दोष बताती रहती है। जो विग्रह या संकट हैं, उनके दोष दूसरों पर मढ़ती रहती है। दूसरों को सुधारना, बदलना अपने हाथ में नहीं है। जब अपना मन ही कहना नहीं मानता तो दूसरों को उस प्रकार के परिवर्तन हेतु सहमत कैसे किया जा सकता है? जब दूसरों की विवशता और परिस्थितियाँ हम नहीं समझ पाते तो उनके साथ न्याय भी कैसे कर सकेंगे? आमतौर से होता यही है कि हम अपनी कठिनाई, अड़चनों का कारण स्वयं ही होते हैं। यह तथ्य समझ में नहीं आता। जब किसी तथ्य की जड़ तक नहीं पहुँचा गया तो उसका निश्चित एवं सही समाधान भी कैसे निकले?

ज्ञान के क्षेत्र में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है- आत्म ज्ञान, क्योंकि अपना आपा ही सदा अपने साथ रहता है। उसी की निकृष्टता-उत्कृष्टता के आधार पर हमारा पतन और अभ्युदय होता है। अपनी दुर्बलताएँ और त्रुटियाँ दूसरों के ऊपर आरोपित होती हैं। रंगीन चश्मा पहन लेने से सारी वस्तुएँ रंगीन दिखाई पड़ती हैं। इसी प्रकार अपना अनगढ़ पर दूसरों पर तरह-तरह के दोषारोपण करता है। यों इस संसार में भले-बुरे सभी प्रकार के लोग हैं। दुष्ट और भ्रष्टों की भी कमी नहीं, पर उनसे निपटना सन्तुलन बनाये रहकर जितनी अच्छी तरह हो सकता है, उतना विग्रह और आक्रमण-प्रत्याक्रमण के आधार पर नहीं। दुरात्मा भी प्रायः उन्हीं पर हाथ छोड़ते हैं, जिन्हें अपने शिकंजे में कस लेने में सरलता देखते हैं। जब उन्हें प्रतीत होता है कि मक्खियों के छत्ते में हाथ डालने पर हाथों हाथ परिणाम भुगतना पड़ेगा तो वे भी मौन साध लेते हैं। इसलिए अपनी समर्थता बनाये रहना भी दुष्ट दुरात्माओं का आक्रमण रोकने या उससे निपटने का सही तरीका है।


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