परमात्मा की प्रतीक प्रतिनिधि– आत्मसत्ता

December 1986

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जीवात्मा परमात्मा की अंशधर सत्ता है तथा मानवी काया ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट संरचना एवं इस निखिल ब्रह्मांड का एक छोटा रूप है। इस काया को सर्वव्यापी प्रकृति की अनुकृति कहा गया है। ईश्वर का व्यष्टि रूप- लघु जगत- माइक्रोकाज्म मनुष्य है जिसके अंतर्गत विराट् का वैभव बीज रूप में प्रसुप्त स्थिति में पड़ा है। प्राचीनकाल के दार्शनिकों, अध्यात्मवादी ऋषि-मनीषियों ने मनुष्य के स्वरूप का विशद् रूप से अध्ययन किया और विवेचन प्रस्तुत किया है। उन्होंने मानव की विशिष्टताओं, श्रेष्ठताओं एवं गुणों को प्रतिष्ठित करने के साथ ही यह भी खोजने का प्रयत्न किया है कि पिण्ड का ब्रह्मांड से, मनुष्य का सृष्टि से, लघु जगत्- माइक्रोकाज्म का विराट् विश्व-माइक्रोकाज्म से किस प्रकार का रहस्यपूर्ण एवं गूढ सम्बन्ध है।

ईश्वर की व्याख्या करते हुए सुप्रसिद्ध दार्शनिक ज्योतिर्विद् राबर्ट जोलर ने अरबी ज्योतिष तत्व के प्राचीनतम ग्रंथ ‘द अरेबिक पार्ट्स’ की व्याख्या में कहा है कि सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्मांड का- समष्टि जीवन का मूलभूत आधार तत्व प्रथम अनादि चेतन सत्ता “मोनेड”- परमात्मा है। दिक् काल से परे इस सत्य को सब कालों में दार्शनिकों, अध्यात्मवादियों, रहस्यवादियों और संतों ने माना है एवं इसे विभिन्न नामों से सम्बोधित किया है। दार्शनिक प्लेटो ने इसे स्वयंभू- “क्रिएचर इटसेल्फ” एवं राबर्ट फ्लड ने “फर्स्ट फार्म” कहा है। जर्मनी प्रख्यात अध्यात्म वेत्ता जेकब बोहम ने इसे ‘फ्लेगरेट’ के नाम से जाना है, जिसका अर्थ होता है- प्रकाश विस्फोट। उनके मतानुसार मोनेड अर्थात् ईश्वर स्वयं अपनी आहुति देकर इस सृष्टि की रचना करता है।

कुछ दार्शनिकों ने मोनेड का स्पलेन्डर, प्रोटियस एवं फेन्स के नाम से जाना है, तो बहुतों ने इसे ‘गॉड’ कहा है। गुरुग्रन्थ साहब में उसे ‘चाँदना’ कहा गया है। अन्यों ने इसकी संगति सूर्य से बिठाई है। बाइबिल में परमेश्वर को ‘ज्योति’ कहा गया है। हजरत मूसा को कोहिनूर पर ‘जलवा’ रूप में वह दिखाई दिया था। उपनिषद् में उसे ‘परम ज्योति’ कहा गया है। अध्यात्म शास्त्र में इसी को ‘दिव्यआलोक’ कहा गया है। ‘डिवाइन लाइट’ नाम इसी को दिया गया है। ‘अरेबिक पार्ट्स’ में उसे ही प्रथम मूल तत्व कहा गया है जिसमें सम्पूर्ण जीव जगत की विराट् सत्ता समाविष्ट है। यह प्रथम मूलतत्व ही व्यष्टि और समष्टि में, जीव और जगत में उनके मूलाधार रूप में समाया हुआ है। उस एक तत्व से ही जीवन की सभी घटनाएँ एवं अनुभूतियाँ, प्राकृत के समस्त रूप एवं जातियाँ तथा विश्व के सभी दृश्य प्रपंच उद्भूत होते हैं। उसी के अटल दिव्य विधान के अनुसार ही सबका प्रकटीकरण होता है। यही चेतन शक्ति दृश्य-अदृश्य जगत् एवं उसके विविध पदार्थों को अपनी मूल एकता में सबको एक साथ माला के मनकों की भाँति बाँधे हुए है।

श्रीमद्भगवद्गीता में इस मोनेड को सर्वोच्च अविनाशी आत्मा कहा गया है। इसका प्रकृति स्वरूप आध्यात्मिक दिव्य चेतना है, जो कि समस्त सृजनात्मक शक्तियों का सृष्टा, सृष्टि का आदि, मध्य और अन्त एवं सूर्य तथा चन्द्रमा में ऊष्मा स्वरूप है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि एवं व्यष्टित्व आदि इसकी श्रेष्ठ प्रकृति, उच्चस्तरीय अभिव्यक्ति आत्मसत्ता-प्राणशक्ति है जो समस्त संसार में प्राण का संचार करती है।

गीताकार ने कहा है कि “जिस प्रकार सूर्य सम्पूर्ण पृथ्वी को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार इस जगत् का स्वामी ईश्वर समस्त विश्व ब्रह्मांड को प्रकाशित करता है।” मोनेड-ईश्वर अपने स्वरूप में एक अखण्ड, अद्वैत, पूर्ण शाँत निराकार एवं निर्गुण सत्ता है। एक से अनेक होने- अनेक रूपों में स्वयं को प्रकट करने के लिए वह संकल्प करता है, ताकि वह अपने अनन्त गुणों एवं स्वरूपों की अभिव्यक्ति कर सके। अपने अव्यक्त स्वरूप को प्रकट करने के लिए उसने स्वयं को तीन सत्ताओं में व्यक्त किया- (1) स्वयं वह-मूल सत्ता-मोनेड (2) विराट् विश्व-ब्रह्मांडीय सत्ता-समष्टि सत्ता एवं (3) लघु जगत् सत्ता-व्यष्टि सत्ता-मानवी सत्ता

ये तीनों सत्ताएँ एक ही मूल स्रोत से प्रकट होकर दृश्य रूप में भिन्न-भिन्न तीन सत्ताएँ दिखते हुए भी अनिवार्य रूप से मूलतः एक-अखण्ड-अद्वितीय हैं। व्यष्टि मनुष्य एवं समष्टि ब्राह्मी चेतना दोनों समान रूप से एक ही कार्य विधि एवं नियम द्वारा संचालित हैं। सभी संतों ने अपनी रचनाओं में हरमेटिक मैक्सिम सिद्धान्त की पुष्टि की है कि- “वह जो ऊपर है, नीचे की तरह ही है और जो नीचे है वह ऊपर की तरह ही है।” अर्थात् जो नियम, विधि-विधान, सृष्टि-विश्व-ब्रह्मांड में लागू हैं, वही नियम पिण्ड, लघु घटक मनुष्य में भी लागू हैं। मनुष्य एवं सृष्टि के समस्त क्रियाकलाप समान नियमों से बँधे हुए हैं।

आत्म सत्ता की महत्ता को सभी अध्यात्मविदों ने एक स्वर से स्वीकार है और परिष्कृत आत्मा को परमात्मा के समतुल्य माना है। कुरान में उल्लेख आता है कि “मनुष्य धरती पर अल्लाह का प्रतिनिधि है (कुरान-सूरा 2 एवं 35/35-)

“अल्लाह ने मानव को सर्वश्रेष्ठ आकार प्रदान किया है।” (कुरान-सूरा 15/4, 64/3, 40/16-)

बाइबिल में इस बात का अनेक स्थलों पर उल्लेख मिलता है कि “विराट् ब्रह्म का सारा रहस्य मानव में निहित है, क्योंकि नर ही नारायण के अति निकट है। सृष्टि में वही परमात्मा का साकार रूप है। मनुष्य ही ईश्वर का जीवन्त मन्दिर है। (बाइबिल - जेनेसिस 1/2, 6/27, 5/1, 9/6)

ईसा ने मनुष्य की सेवा को ईश्वर की पूजा के समकक्ष माना था।

“अल्लाह ने मानव को सर्वश्रेष्ठ आकार प्रदान किया है।” कुरान-सूरा 95/4, 64/3, 40/96

पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रख्यात लैटिन दार्शनिक हेनरी कार्नेलियस एग्रीपा ने अपनी कृति ‘डि ऑकल्टा फिलॉसॉफिया’ में लिखा है कि मनुष्य की आत्मा एक अलौकिक दिव्य प्रकाश है। इसमें व्यष्टि और समष्टि दोनों समाये हुए हैं। आत्मा वास्तविक रूप में अविकारी, आत्म निर्भर, सर्वज्ञ एवं सभी शरीरों और भौतिक पदार्थों से परे है। वह भौतिक तत्व से उत्पन्न नहीं हुई है। वस्तुतः आत्मा एक दिव्य मूल तत्व है एवं उसकी उत्पत्ति दिव्य स्रोतों से हुई है।

ग्रीक दार्शनिक प्लेटो के अनुसार “मनुष्य की आत्मा ईश्वर से सीधे प्रकट होकर उपयुक्त स्थूल शरीर से जुड़ जाती है। वास्तविक रूप में जीवात्मा का धरती पर जब सर्वप्रथम अवतरण होता है तो वह दिव्य सूक्ष्म शरीर, वायवीय शरीर रूप में अवतरित होकर स्थूल देह में प्रवेश करती है। इस वायवीय सूक्ष्म शरीर को आत्मा का पारलौकिक वाहन (वेहीकल) कहा जाता है। ईश्वर, जो चराचर जगत का केन्द्र है, उसी के आदेश से जीवात्मा मनुष्य के हृदय में प्रविष्ट होती है। इस तरह अविनाशी आत्मा पारलौकिक वाहन के माध्यम से स्थूल एवं नाशवान शरीर के भीतर बन्द कर दी जाती है। जब शरीर तथा उसके विभिन्न अंग अवयव बीमारी अथवा अन्य दोषों के कारण क्षीण काय जर्जर हो जाते हैं, प्राण शक्ति कमजोर पड़ जाती है, ऊष्मा मंद होती चली जाती है, तब उस स्थिति में जीवात्मा शरीर को छोड़ देती है और शरीर मृत हो जाता है जीवात्मा सूक्ष्म शरीर के माध्यम से ईश्वर के सामने जाती है। गार्जियन जेनी और डेमन्स भी उसके पीछे-पीछे जाते हैं और उस जीवात्मा के अच्छे-बुरे कर्मों की रिपोर्ट जीवन का लेखा-जोखा ईश्वर के सामने प्रस्तुत करते हैं। जिसके आधार पर ईश्वर अच्छे कर्म करने वाली जीवात्मा को स्वर्ग सुख प्रदान करता और बुरे कर्म करने वाले को नरक में भेजता व दंड देता है।” प्लेटो का यह प्रतिपादन भारतीय दर्शन का चित्रगुप्त व यमराज वाली मान्यता से मिलता जुलता है।

दार्शनिकों का मत है कि गुण, कर्म स्वभाव में उत्कृष्टता का समावेश होने तथा सत्कर्म करने पर ही अशुभ कर्मों का विनाश होता है और भावी जीवन उज्ज्वल एवं सुखमय बनता है। भगवान महावीर उत्तराध्ययन सूत्र (3/7) में कहते हैं- “अशुभ कर्मों के नाश होने पर ही आत्मा शुद्ध, निर्मल और पवित्र बनती है। जीवात्मा तब जाकर मनुष्य योनि प्राप्त करती है।”

सोलहवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध दार्शनिक संत गियारडेनो ब्रुनो की मान्यता है कि मनुष्य के अन्दर कोई ऐसा दक्ष रचनात्मक तत्व है, जिसके द्वारा उसके चारों ओर एक विलक्षण शरीर की संरचना संपन्न होती है। यह कोई बाहरी नहीं वरन् अन्तःशक्ति है जो भीतर से गढ़ती, उन्हें सुरक्षित रखती और परस्पर विरोधी तत्वों को एकता एवं सामंजस्य के सूत्र में बाँधकर एक साथ रखने की क्षमता रखती है। यह मूलतत्व ही सही अर्थों में मनुष्य है। यही मूलतत्व विशिष्ट दैव तत्व देव शक्ति है, प्रेरक आत्मा है, चैतन्य शक्ति है जो शरीर को चलाती है, उसका संचालन करती है।

इजिप्ट के मूर्धन्य दार्शनिक, हरमेस ट्रिस्मेजिस्टस को वहाँ के निवासी उन्हें अपने ईश्वर ‘थोथ’ के समतुल्य मानते हैं। हरमेस ने मनुष्य को ईश्वर का एक दिव्य चमत्कार माना है। उनके अनुसार मनुष्य के समान गौरवशाली, मर्यादित एवं श्रद्धास्पद कोई भी प्राणी इस धरती पर नहीं है। ईश्वर ने ही मानवी काया में प्रवेश किया है। ईश्वर का प्रतिनिधि होने से वह स्वयं में समस्त ईश्वरीय गुणों से अभिपूरित है। मानवी सत्ता ईश्वरीय नियमों से बँधी हुई है। यही कारण है कि मनुष्य की आँखें निम्नगामिता को छोड़कर सदैव श्रेष्ठता की ओर- परमपिता परमेश्वर की ओर ऊपर उठी रहती है। मनुष्य ही है जो सबको प्यार बाँटता और बदले में स्नेह सहयोग पाता है। उसका आविर्भाव, अर्जित सम्पदा एवं प्रतिभा सबके कल्याण के लिए- “सर्वभूत हिते रतः” है।

प्रख्यात ग्रीक दार्शनिक पिको डेला मिरानडोला के अनुसार ईश्वर ने मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सभी प्राणियों के स्वभाव को अपने नियमों द्वारा सीमित एवं नियंत्रित कर दिया है और मनुष्य को विचार करने तथा कर्म करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र रखा है। वह इच्छानुसार सोच सकता है अपना निर्माण कर सकता है और अपने को गढ़ सकता है। वह चाहे तो कर्मों के माध्यम से निम्न योनियों में जन्मता और भ्रमण करता रह सकता है एवं चाहे तो दिव्य योनियों में जन्म ले सकता है, बन्धन मुक्त हो सकता है और नर से नारायण बन सकता है। अपने विकास अथवा पतन के लिए मनुष्य स्वयमेव जिम्मेदार है क्योंकि वरण की स्वतंत्रता उसे मिली है।

देवी भागवत् में कहा गया है-

स्वकर्मणा सर्वसिद्धिं अमरत्वं लभेद् ध्रुवम्

सुरत्वं च मनुष्यत्वं च राजेन्द्रत्वं लभेन्नरः।

कर्मणा इन्द्रो भवेज्जीवो ब्रहमपुत्रः स्वकर्मणा,

कर्मणा च शिवत्वं च गणेशत्वं, तथैव च॥

अर्थात्- “मनुष्य अपने कर्मों और प्रयासों के आधार पर ईश्वर, मनुष्य, इन्द्र, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश आदि जो चाहे बन सकता है।” कायसत्ता वस्तुतः परमात्म सत्ता का एक लघु संस्करण है। उसके महत्व को समझा जाना एवं उसका सदुपयोग श्रेष्ठ कार्यों के निमित्त किया जाना चाहिए।


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