सामर्थ्य के हाथी पर जब विवेक का अंकुश नहीं रहता तो वह रौंदने और कुचलने को ही जुट पड़ता है।
वस्तुतः समता का तात्पर्य मानसिक सन्तुलन से है। समयानुरूप परिस्थितियाँ अनुकूल भी होतीं और प्रतिकूल भी होती हैं। इन भिन्नताओं के बीच अपना सन्तुलन बनाये रखा जाय। सुख दुःख के आवेगों को इतना न बढ़ने दिया जाय कि वे हड़बड़ी पैदा कर दें और यह विचार करना कठिन हो जाय कि अनुकूलता का लाभ किस प्रकार उठाया जाय और प्रतिकूलता से निपटा किस प्रकार जाय? आवेशग्रस्त व्यक्ति एक प्रकार से अर्ध विक्षिप्त की स्थिति में पहुँच जाता है। अधीर स्थिति में वह न करने योग्य भी कर बैठता है और कठिनाइयाँ बढ़ जाती हैं।
लाभ में प्रसन्नता और हानि में खिन्नता स्वाभाविक है। इसे रोका नहीं जा सकता, पर इतना तो हो सकता है कि इन स्थितियों में मानसिक सन्तुलन बिगाड़ने की अति तक न जाया जाय। विवेकवान इसीलिए ऐसे अवसरों पर अपना विवेक कायम रखते हैं ताकि आगे क्या कदम उठाया जाना है, इसका सही निर्णय कर सकें।