श्वेतकेतु ब्रह्मविद्या जानने के लिए बहुत दिन से गुरु गृह में निवास कर रहे थे, पर अभीष्ट अनुदान उन्हें मिला नहीं।
गुरु की निष्ठुरता से खिन्न होकर एक दिन आश्रम की यज्ञाग्नि ने कहा- “तुम पर दया आती है। गुरु का पल्ला छोड़ो। वे जब तक लौटकर आवें तब तक मैं ही तुम्हें ब्रह्म विद्या बता दूँगी।”
श्वेतकेतु ने अग्निदेव के अनुग्रह का बड़ा उपकार माना। साथ ही अत्यन्त विनम्रता पूर्वक बोले- “सेवा किए बिना आप से जो अनुदान मिलेगा वह बिना मूल्य के कारण फलेगा कहाँ? पात्रता विकसित किए बिना जो उपहार मिलेगा वह टिकेगा कहाँ?”
अग्निदेव लज्जित होकर अंतर्ध्यान हो गए। श्वेतकेतु ने गुरु-सेवा करके अपनी पात्रता परिपक्व की और नियत समय पर अभीष्ट अनुदान लेकर वापस लौटे।