शिव भारतीय धर्म के प्रमुख देवता हैं। ब्रह्मा और विष्णु के त्रिवर्ग में उनकी गणना होती है। पूजा उपासना में शिव और उनकी शक्ति की ही प्रमुखता है। उन्हें सरलता की मूर्ति माना जाता है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों के नाम से उनके विशालकाय तीर्थ स्वरूप देवालय भी हैं। साथ ही यह भी होता है कि खेत की मेंड़ पर किसी वृक्ष की छाया में छोटी चबूतरी बनाकर गोल पत्थर की उनकी प्रतिमा बना ली जाय। पूजा के लिए एक लोटा जल चढ़ा देना पर्याप्त है। सम्भव हो तो बेल पत्र भी चढ़ाये जा सकते हैं। फूलों की अपेक्षा वे नहीं करते। न धूप-दीप, नैवेद्य, चन्दन, पुष्प, जैसे उपचार अलंकारों के प्रति उनका आकर्षण है।
क्या शिव कहीं हैं? हैं तो उनकी क्रिया पद्धति क्या है? इन प्रश्नों का उत्तर बाल-विनोद की तरह नहीं दिया जाना चाहिए। उनका वर्चस्व साधारण मनुष्यों जैसा नहीं है कि उन्हें रोटी, कपड़ा और मकान जैसी अनिवार्य साधन सामग्री जुटानी पड़े। वे सर्वव्यापी और निराकार हैं। सूक्ष्म तत्वों को शरीर धारण नहीं करना पड़ता। सूक्ष्म अपने आप में एक आकार है। इतना विस्तृत और व्यापक, जिसमें यह अपना विश्व और ब्रह्मांड सभी आसानी से समा सकें।
इस सृष्टि के प्राणी और सभी पदार्थ तीन स्थितियों में होकर गुजरते हैं- एक उत्पादन, दूसरा अभिवर्धन और तीसरा परिवर्तन है। सृष्टि की उत्पादक प्रक्रिया को ब्रह्मा, अभिवर्धन को विष्णु और परिवर्तन को शिव कहते हैं। मरण के साथ जन्म का यहाँ अनवरत क्रम है। बीच गलता है तो नया पौधा पैदा होता है। गोबर सड़ता है तो उसका खाद पौधों की बढ़ोतरी में असाधारण रूप से सहायक होता है। पुराना कपड़ा छोटा पड़ने या फटने पर उसे गलाया और कागज बनाया जाता है। नये वस्त्र की तत्काल व्यवस्था होती है। इसी उपक्रम को शिव कहा जा सकता है। वह शरीरगत अगणित जीव कोशाओं के मरते जन्मते रहने से भी देखा जाता है और सृष्टि के जरा-जीर्ण होने पर महाप्रलय के रूप में भी। स्थिरता तो जड़ता है। शिव को निष्क्रियता नहीं सुहाती। गतिशीलता ही उन्हें अभीष्ट है। गति के साथ परिवर्तन अनिवार्य है। शिव तत्व को सृष्टि की अनवरत परिवर्तन प्रक्रिया में झाँकते देखा जा सकता है। भारतीय तत्वज्ञान के अध्यवसायी कलाकार और कल्पना भाव संवेदना के धनी भी रहे हैं। उन्होंने प्रवृत्तियों को मानुषी काया का स्वरूप दिया है, विद्या को सरस्वती, सम्पदा को लक्ष्मी एवं पराक्रम को दुर्गा का रूप दिया है। इसी प्रकार अनेकानेक तत्व और तथ्य देवी देवताओं के नाम से किन्हीं काय कलेवरों में प्रतिष्ठित किये गये हैं। तत्व ज्ञानियों के अनुसार देवता एक से बहुत बने हैं। समुद्र का जल एक होते हुए भी उसकी लहरें ऊँची-नीची भी दीखती हैं और विभिन्न आकार प्रकार की भी। परब्रह्म एक है तो भी उसके अंग अवयवों की तरह देव वर्ग की मान्यता आवश्यक जान पड़ी। इसी अलंकारिक संरचना में शिव को भी मूर्धन्य स्थान मिला।
वे प्रकृति क्रम के साथ गुँथकर पतझड़ के पीले पत्तों को गिराते और बसन्त के पल्लव और फूल खिलाते रहते हैं। इसीलिए उन्हें श्मशान वासी कहा जाता है। मरण भयावह नहीं है और न उसमें अशुचिता है। गंदगी तो सड़न से फैलती है। काया की विधिवत् अन्त्येष्टि कर दी गई तो सड़न का प्रश्न ही नहीं रहा। हर व्यक्ति को मरण के रूप में शिव सत्ता का ज्ञान बना रहे, इसलिए उनने अपना डेरा श्मशान में डाला है। वहीं बिखरी भस्म को शरीर पर मल लेते हैं। ताकि ऋतु प्रभावों का असर न पड़े। मृत्यु को जो भी जीवन के साथ गुँथा हुआ देखता है उस पर न आक्रोश के आतप का आक्रमण होता है और न भीरुता के शीत का। वह निर्विकल्प निर्भय बना रहता है। वे बाघ का चर्म धारण करते हैं। जीवन में ऐसे ही साहस और पौरुष की आवश्यकता है। जिसमें बाघ जैसे अनर्थों और अनिष्टों की चमड़ी उधेड़ी जा सके और उसे कमर में कसकर बाँधा जा सके। शिव जब उल्लास विभोर होते हैं तो मुण्डों की माला गले में धारण करते हैं। यह जीवन की अन्तिम परिणति और सौगात है- जिसे राजा व रंक समानता से छोड़ते हैं। न प्रबुद्ध ऊँचा रहता है और न अनगढ़ नीचा। सभी एक सूत्र में पिरो दिये जाते हैं। यही समत्व योग है, विषमता यहाँ नहीं फटकती।
शिव को नीलकण्ठ भी कहते हैं। कथा है- कि समुद्र मंथन में जब सर्वप्रथम अहंता की वारुणी और दर्प का विष निकला तो उसे शिव ने उस हलाहल को अपने गले में धारण कर लिया। न उगला, न पिया। उगलते तो वातावरण में विषाक्तता फैलती, पीने पर पेट में कोलाहल मचता। मध्यवर्ती नीति यही अपनाई गई। शिक्षा यह है कि विषाक्तता को न तो आत्मसात करें, न ही विक्षोभ उत्पन्न कर उसे उगलें। उसे कण्ठ तक ही प्रतिबन्धित रखें।
शिव का वाहन वृषभ है जो शक्ति का पुंज भी है, सौम्य-सात्विक भी। ऐसी ही आत्माएं शिव तत्व से लदी रहती और नन्दी जैसा श्रेय पाती हैं। शिव का परिवार भूत पलीत जैसे अनगढ़ों का परिवार है। पिछड़ों, अपंगों, विक्षिप्तों को हमेशा साथ लेकर चलने से ही सेवा सहयोग का प्रयोजन बनता है।
शिवजी का मस्तक ऐसी विभूतियों से सुसज्जित है जिन्हें हर दृष्टि से उत्कृष्ट एवं आदर्श कहा जा सकता है। मस्तक पर चन्दन स्तर की नहीं, चन्द्रमा जैसी संतुलन शीलता धारण की हुई है। सिर से गंगा की जलधारा बहने से आशय ज्ञान गंगा से है। मस्तिष्क के अन्तराल में मात्र “ग्रेमैटर” न भरा रहे, ज्ञान विज्ञान का भण्डार भी भरा रहना चाहिए ताकि अपनी समस्याओं का समाधान हो एवं दूसरों को भी उलझन से उबारें। वातावरण को सुख शान्ति मय कर दें।
शिव के तीन नेत्र हैं। तीसरा नेत्र ज्ञान चक्षु है, दूरदर्शी विवेकशीलता का प्रतीक जिसकी पलकें उघरते ही काम देव जलकर भस्म हो गया। सद्भाव के भागीरथ के साथ ही यह तृतीय नेत्र का दुर्वासा भी विद्यमान है और अपना ऋषित्व स्थिर रखते हुए भी दुष्टता को उन्मुक्त नहीं विचरने देता, मदमर्दन करके ही रहता है।
तीन भव बन्धन माने जाते हैं- लोभ, मोह, अहंता। इन तीनों को ही नष्ट करने वाले ऐसे एक अस्त्र की त्रिपुरारि शिव को आवश्यकता है, जो हर क्षेत्र में औचित्य की स्थापना कर सके। यह शस्त्र त्रिशूल रूप में धारण किया गया- ज्ञान, कर्म और भक्ति की पैनी धाराओं का है।
शिव डमरू बजाते और मौज आने पर नृत्य भी करते हैं। यह प्रलयंकर की मस्ती का प्रतीक है। व्यक्ति उदास निराश और खिन्न विपन्न बैठकर अपनी उपलब्ध शक्तियों को न खोए, पुलकित प्रफुल्लित जीवन जिए। शिव यही करते हैं, इसी नीति को अपनाते हैं। सर्पों को वे गले लगाते हैं ताकि वे काटना छोड़ें, अपनी सुन्दर चमक-दमक से जन-जन का मन मोहें।
ऐसी ही अनेक सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय है- शिव। उनकी इन विशेषताओं को हम समझें भी और अपनायें भी।