सुरदुर्लभ मनुष्य जन्म की सार्थकता

December 1986

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मनुष्य जन्म को सुर दुर्लभ माना गया है। स्वर्ग में एकरसता है जिसके कारण कोई भी ऊब सकता है। देवता भी। दावतों में षटरस व्यंजन परोसे जाते हैं। गुलदस्ते में विभिन्न रंग के फूल जोड़े जाते हैं। आभूषणों में, वस्त्रों में विभिन्नता और विचित्रता के कारण ही उनका सौंदर्य निखरता है। मनुष्य जन्म में अनेक प्रकार की परिस्थिति का सामना करने में चातुर्य दिखाने तथा चित्र-विचित्र परिस्थितियों में निपटने का अवसर मिलता है।

इस विविधता और बहुलता के कारण मनुष्य जीवन को अधिक सरस और विविध मिश्रित होने के कारण सुखद माना गया है।

मनुष्य स्वर्ग जाने की इच्छा करता है। यह दूर के ढोल सुहावने वाली उक्ति है। जिस प्रकार एक जगह रहते-रहते ऊब आती है, एक जैसा भोजन करते-करते ऊब जाता है और नवीनता ढूंढ़ने को मन करता है। पर्यटन व्यवसाय इसी आधार पर चल रहा है। मनुष्य जिस प्रकार स्वर्ग लोक के तथाकथित आनन्दों का लाभ लेने के लिए लालायित रहता है, उसी प्रकार देवता भी अपनी एकरसता मिटाने के लिए मनुष्य लोक में जन्म लेने के लिए लालायित रहते बताये जाते हैं। देव पूजन में जितनी भी प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित होती हैं वे सभी मनुष्याकृति होती हैं। इससे विदित होता है कि मनुष्यता के साथ देवत्व का घनिष्ठ सम्बन्ध है। इतना ही नहीं अपनी बहुलता और विविधता के कारण वह अधिक आकर्षक एवं अधिक श्रेष्ठ भी है।

सुर दुर्लभ होने के अतिरिक्त मनुष्य जन्म सृष्टा का श्रेष्ठतम उपहार भी है। इस निर्माण में परमात्मा ने अपना सारा कला-कौशल संजो दिया है। प्राणियों में इसकी तुलना का और कोई नहीं है। शरीर बल की दृष्टि से हाथी, सिंह आदि बलिष्ठ भी हो सकते हैं, पर ऐसा सौंदर्य ऐसा कला कौशल, बुद्धि वैभव और किसी को भी उपलब्ध नहीं है। इतनी जगह में इतनी प्रकार मुड़ तुड़ सकने वाला और अतिशय विचित्र कामों को कर दिखाने वाला शरीर और किसी प्राणी के पास नहीं है। यह विशिष्टता खेल प्रतियोगिताओं में सरकसों में भली भाँति देखी जा सकती है। शिल्प और कला-कौशल में उसकी चतुरता बाजीगरी जैसी प्रतीत होती है। अवसर और साधनों के अभाव में भी वह कितनी सफलताएँ प्राप्त कर लेता है, उन्हें जादुई ही कहा जा सकता है।

मनुष्य भौतिक एवं बहिरंग दृष्टि से सफल कहा जा सकता है। उसकी अन्तरंग जगत की जिन विभूतियों सिद्धियों का परिचय मिलता जाता है उससे यह सिद्ध होता है कि अणिमा, लघिमा, महिमा आदि जो देवोपम विलक्षणताएँ योगियों में पूर्व काल में देखी जाती थीं, उन्हें अब भी प्रकट एवं कार्यान्वित किया जा सकता है। सिद्ध पुरुषों की विभूतियाँ कपोल कल्पनाएँ नहीं वरन् ऐसी वास्तविकता थी जिन्हें इन दिनों भी प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है। इसके उद्गम उन अतीन्द्रिय क्षमताओं में विद्यमान हैं जो इसी मानवी मस्तिष्क की विभिन्न गुहाओं में छिपी पड़ी हैं। मनुष्य के अन्तराल की विशिष्टताओं को ही अलंकारिक रूप से बाह्य देवता कल्पित किया गया है। इस मान्यता के अनुरूप तो स्वर्ग के देवता अंश रूप से इसी मानवी काया में विद्यमान माने जा सकते हैं। बाजार में बिकने वाले चित्रों में एक ऐसा भी बिकता है जिसमें गौ के शरीर में विभिन्न स्थानों पर देवताओं की स्थापना दिखाई गई है। गाय के सम्बन्ध यह प्रतिपादन अविश्वस्त भी हो सकता है किन्तु मनुष्य की अतीन्द्रिय क्षमताओं द्वारा हो सकने वाले चमत्कारों को देखते हुए यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि देवगण अंश रूप में मानवी काया में भी रहते हैं। भले ही उनका समग्र अस्तित्व किसी लोक विशेष में स्वर्ग लोक में रहता हो। अतींद्रिय क्षमता केन्द्रों के माध्यम से सम्बन्ध सूत्र तो पहले से ही जुड़ा हुआ है। उसे भीतर से उभार कर बाहरी देवताओं को आमंत्रित-अवतरित किया जा सकता है। इस प्रकार मनुष्य और देव एक बन सकते हैं।

मनुष्य जीवन अनुपम एवं अद्भुत है। कहा जाता है कि चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करने के उपरान्त यह अवसर मिलता है। इसका सदुपयोग करने पर निजी अपूर्णताओं को पूर्ण किया जा सकता है और विश्व उद्यान को समुन्नत बनाकर अपना कर्तव्यपालन एवं ईश्वरीय अनुग्रह का सम्पादन किया जा सकता है। महामानव, सिद्ध पुरुष, देवात्मा अवतार आदि ऐसी ही उच्चस्तरीय पदवियाँ हैं जिन्हें दायित्वों को समझने और निबाहने वाले आसानी से प्राप्त कर सकते हैं।

84 लाख वर्ष के भ्रमण की अवधि इतनी बड़ी है कि इतने में प्रायः एक लाख मनुष्य जन्म बीत सकते हैं। इतनी अवधि तक दण्ड भुगतने, प्रतीक्षा करने पर फिर कहीं नये मनुष्य जन्म की बारी आती है। तब फिर वही भूल दुहराई जाने लगती है वासना, तृष्णा और अहंता का त्रिदोष जैसा सन्निपात ज्वर चढ़ बैठता है। उस नशे की खुमारी में उसी की पुनरावृत्ति की जाने लगती है जो पेट प्रजनन को लक्ष्य मानकर क्षुद्र योनियों में क्रियान्वित होती रहती है। इस संदर्भ में सभी प्राणी प्रवीण हैं। सभी पेट भरते हैं। सभी गर्भाधान का रस लेते हैं। सभी अपना बड़प्पन सिद्ध करने के लिए एक दूसरे पर गुर्राते और हमला बोलते हैं। यदि इसी की पुनरावृत्ति मनुष्य जन्म जैसे सुयोग के मिलने पर भी होती रही तो समझना चाहिए कि हीरे को कांच समझा गया और उसे कौड़ी मोल बेच दिया गया।

चन्दन के उद्यान को किसी अनजान लकड़हारे ने कोयला बनाकर बेच दिया था। मनुष्य भी यदि यही भूल करता है तो उसका दुर्भाग्य ही कहना चाहिए। लोभ, मोह और अहंकार की पूर्ति में यदि यह जीवन खप जाय और जिस सृष्टा ने बड़ी आशाओं के साथ यह धरोहर प्रदान की थी, उसके दरबार में खाली हाथ जाना पड़े तो उसे एक प्रकार की दुर्घटना ही कहना चाहिए।

मनुष्य में महत्वाकांक्षाएं उभरती रहती हैं, पर वे बहिर्मुखी होती हैं। उनमें लोकेषणा, वित्तेषणा, पुत्रेषणा का बाहुल्य होता है। यह सभी बहिर्जगत से सम्बन्धित होती हैं। साधन व परिणाम भी बहिर्जगत से संबंधित हैं। पदार्थ द्रुतगति से चलता है। उसमें स्थिरता तनिक भी नहीं, क्षण भर के लिए भी नहीं। ऐसी दशा में विविध कामनाओं की पूर्ति के संदर्भ में भी यही क्रम चलता है। पानी में बुलबुले उठते और फूटते रहते हैं। यह अवरुद्ध हवा का व्यापक हवा से मिलने की व्याकुलता का खेल है। इसी खिलवाड़ में मनुष्य की जिन्दगी बीत जाती है और जब प्रतीत होता है कि सिंहासन पाने जैसा अवसर बालू की भीत बनाने की खिलवाड़ में बीत गया, तो पश्चाताप का ठिकाना नहीं रहता। यह अन्तः वेदना ही मृत्यु के समय भयंकर त्रास बनकर सामने आती है। जो समय महत्व प्राप्त करने का था, वह यदि विडम्बनाओं में ही बीत जाय तो उसकी क्षतिपूर्ति कैसे हो सकती है?

मनुष्य जीवन सुर दुर्लभ है। इसकी एक-एक घड़ी हीरे-मोतियों जैसी बनने योग्य है। इतनी बड़ी सम्पदा का उपयोग किस प्रकार किया जाय, यह जान लेना और कर गुजरता ही सुयोग की सार्थकता है।


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