यज्ञ से अग्निहोत्र प्रक्रिया भिन्न है। अग्निहोत्र निर्धारित विधि व्यवस्था के अनुरूप कोई भी कर सकता है। शुद्ध शाकल्य, शुद्ध शरीर, शुद्ध वातावरण और शुद्ध विधि विधान का ध्यान रखकर उसे कोई भी गायत्री मंत्रों से आहुतियाँ देते हुए कर सकता है। उसका तात्कालिक प्रभाव भी इन्द्रियों या यंत्रों से देखा जा सकता है। समय स्वयं बताता है कि उसकी गुणवत्ता कितनी है।
अग्निहोत्र हेतु ऐसे विधान भी हैं कि निर्धन वर्ग के लोग अति सस्ते में इस प्रक्रिया की पूर्ति कर सकें। अन्य कोई वस्तु न हो तो समिधा वाले काष्ठों की ही छोटी-छोटी तीली बना कर उन्हें शाकल्य मान कर हवन किया जा सकता है। हवन सामग्री की अपेक्षा गुड़ और घी के सम्मिश्रण से बनी हुई गोलियाँ भी इस प्रयोजन के लिए प्रयुक्त की जा सकती हैं। उनमें चंदन चूरा डाल कर और भी सुगंधित एवं सुव्यवस्थित बनाया जा सकता है ताकि वे आपस में चिपकें नहीं, अपना अस्तित्व अलग से बनाये रह सकें। शर्करा और घृत का अग्निहोत्र में विशेष महत्व है, पर इन्हें शुद्ध स्थिति में ही लेना चाहिए। चीनी की अपेक्षा गुड़ उन रसायनों से रहित होता है जो मिलों में उसे सफेद करने के लिए मिलाये जाते हैं। गौ घृत मिलना अब सरल नहीं रहा है। मिलावट की सब ओर भरमार है। इसलिए गाय का थोड़ा सा शुद्ध दूध लेकर उसका एकाध तोला मक्खन निकाला जा सकता है। उसे गुड में मिलाकर ऐसी सामग्री बन सकती है। जो सर्व सुलभ हो और उसके लिए बहुत पैसा भी खर्च न करना पड़े। वनस्पतियों की बनी शुद्ध सामग्री मिल सके तो और भी अच्छा। गौ घृत अधिक मात्रा में मिल सके तो उसे सौभाग्य ही समझना चाहिए।
यज्ञ शब्द वहाँ प्रयुक्त होता है जहाँ उसके साथ वेद मंत्रों का शुद्ध समावेश हो। इसके लिए पहले से ही शुद्ध उच्चारण का अभ्यास करके प्रवीणता प्राप्त करनी पड़ती है। किसी पारंगत वक्ता के स्वर में स्वर मिलाकर भी इस प्रयोजन की पूर्ति हो सकती है।
यज्ञ में मंत्रों के शुद्ध उच्चारण का महत्व है पर जिनके द्वारा उनका उच्चारण किया जा रहा है, उनका व्यक्तित्व और चिन्तन-चरित्र भी उच्चस्तरीय होना चाहिए। उनका आहार-विहार ऐसा होना चाहिए जिसे ऋषि कल्प कहा जा सके। अभक्ष्य खाने वाले, मादक द्रव्य पीने वाले, लम्पट व्यसनी प्रकृति के व्यक्ति वेद मंत्रों के उच्चारण में प्राण नहीं भर सकते। इन दिनों ऐसे ब्रह्म परायण मनःस्थिति और परिस्थिति को अपनाने वाले मिलते नहीं। सभी पर असंयम सवार रहता है। यही कारण है कि ऋषि की तरह शाप वरदान दे सकने वाले ब्रह्मवेत्ता कहीं दृष्टिगोचर नहीं होते। फलतः उनकी वाणी का कोई प्रभाव भी नहीं होता।
यज्ञ व्यक्तिगत भी हो सकता है और सामूहिक भी। व्यक्तिगत यज्ञों में पति-पत्नी सम्मिलित होते हैं। घृत के लिए गाय पालते हैं। घर में देवालय स्तर की यज्ञशाला बनाकर रखते हैं जिसमें हर मौसम में बिना किसी कठिनाई के यज्ञ किया जाता रहे। यह दीर्घकालीन होता है, नियमित भी रहता है। ब्रह्मतेज की वृद्धि के लिए गायत्री मंत्र से न्यूनतम 24 आहुतियाँ नित्य देने का विधान है। इससे अधिक बन पड़े तो और भी उत्तम। अधिक का अधिक फल होता ही है। यह दैनिक जप का दशाँश नहीं हो तो न्यूनतम शताँश तो होना ही चाहिए। यदि अनुष्ठान के साथ व्रत पूर्वक जप चल रहा है तो ऐसा भी हो सकता है कि उसकी पूर्णाहुति का यज्ञ नित्य न बन पड़ने पर पूर्णाहुति के समय एक दिन ही सम्पन्न कर लिया जाय। उसमें अन्य कुटुम्बी भी सम्मिलित किये जा सकते हैं। अन्यथा नित्य यज्ञ का उद्देश्य आत्म शक्ति का अभिवर्धन ही होता है। ब्रह्मतेज उपलब्ध करने के लिए उसे किया जाता है। ब्राह्मण के छह कर्मों में यज्ञ स्वयं करना और दूसरों को करने की प्रेरणा देना यह दोनों ही पक्ष सम्मिलित हैं।
यज्ञ सामूहिक भी होते हैं पर उनका उद्देश्य वायुमंडल शोधन जैसा भौतिकता भर तक सीमित नहीं रहता। यह प्रयोजन तो सामान्य है। बड़ी बात है- वायु मंडल का साधन। वायु मंडल और वातावरण के अन्तर को अधिक अच्छी तरह समझा जाना चाहिए। वायु प्रदूषण का निराकरण और प्राण तत्व का अभिवर्धन अग्निहोत्र प्रक्रिया में हो सकता है। किन्तु व्यक्तित्व का परिष्कार ओजस्, तेजस् और वर्चस का निखार आदि उच्चस्तरीय हैं, इसलिए इनके साथ अनेक अनुबंध भी जुड़े हुए हैं। अधिक सतर्कता और सात्विकता का समावेश करना होता है। यज्ञ कराने वाले ब्रह्मा, आचार्य, अध्वर्यु, उद्गाता चारों को यज्ञ काल से कहीं पूर्व से ही आहार शुद्धि, ब्रह्मचर्य साधना नित्यकर्मों की कठोरता का प्रतिपालन नियमपूर्वक करना होता है। आहुति देने वाले होता- यजमान भी यज्ञ के दिनों में व्रत धारण करते ही हैं, परिपूर्ण संयम भी बरतते हैं। यज्ञ के दिनों में स्वेच्छाचार बरतने की तनिक भी गुंजाइश नहीं रहती। व्रतशील रहे बिना यज्ञ कृत्य फलप्रद नहीं होता। उसका उद्देश्य आत्मिक क्षेत्र की प्रगति है। इसके संयमशीलता, तपश्चर्या जितने अधिक ऊँचे स्तर की हो सके, उतना ही उत्तम है। यज्ञ में मंत्रों के शुद्ध उच्चारण का भी विशेष महत्व है। यह उच्चारण विधिवत सीखा हुआ तथा परीक्षा में खरा उतरा होना चाहिए।
सामूहिक यज्ञो में दो प्रकार प्रधान होते हैं- एक राजसूय- दूसरे बाजपेय। राजनीतिज्ञों- शासकों-दलों द्वारा राजनैतिक प्रयोजनों के लिए बड़े आयोजन सम्पन्न बनाये किये जाते हैं, उन्हें राजसूय यज्ञ कहते हैं। लंका विजय और कंस जरासंध वध के उपरान्त तत्कालीन मूर्धन्य राजनेताओं को आमंत्रित किया गया था और आहुतियों के अतिरिक्त भावी राजनीतिक विधि व्यवस्थाओं का भी निर्धारण किया गया था। इस प्रकार इन यज्ञों के रूप में समय समय पर क्षेत्रीय-प्रान्तीय आयोजन भी होते रहते थे, उसमें विचार मंथन होता था और मूर्धन्यों की सलाह से एक निर्णय पर पहुँचा जाता था ताकि शासन सत्ता में स्वेच्छाचारिता का समावेश न होने पाये।
बाजपेय यज्ञ धर्म पुरोहितों द्वारा आयोजित किये जाते थे उनमें विद्वानों, मनीषियों, विचारकों, धर्माचार्यों को आमंत्रित किया जाता था। इनमें तत्कालीन वैयक्तिक एवं सामाजिक समस्याओं के कारण समझते हुए इसके वातावरण का योजनाबद्ध हल निकाला जाता था। ऐसे आयोजन किन्हीं तीर्थों में किन्हीं नियत तिथियों पर तीर्थ स्थानों में निर्धारित रहते थे। सत्प्रवृत्तियों में निरत साधु ब्राह्मण उनमें बिना किसी के निमंत्रण की प्रतीक्षा किये स्वयमेव जा पहुँचते थे। परस्पर भेंटे भी हो जाती थी। क्षेत्रीय समस्याओं, परिस्थितियों की जानकारी मिलती थी और स्थानीय तथा सर्वजनीन समाधानों का सिलसिला चलता था। कुंभ पर्व ढाई-ढाई वर्ष बाद देश के प्रमुख स्थानों पर होते थे। आज तो उनमें साज-सज्जा, स्नान, पूजन, भोजन भण्डारा आदि की विडम्बना ही शेष रह गई है, पर पुरातन काल में ऐसा नहीं होता था। तब लोग समय की समस्याओं और आवश्यकताओं पर विचार करते थे। अपने प्रयासों को उसी दिशा में मोड़ते थे। सुधार के निर्धारित लक्ष्य को पूरा करके रहते थे। प्रव्रज्या में निरत बिखरे हुए साधुजनों का एकत्रीकरण, विचार-विनिमय और निर्धारण का यह सुनिश्चित अवसर था। देश के अन्य क्षेत्रों में, तीर्थों में भी ऐसे ही समारोह एकता सम्मेलन होते रहते थे।
विश्व का विचारपरक वातावरण जब तक उच्चस्तरीय रहता है तब तक सतयुगी परिस्थितियाँ बनी रहती हैं, पर जब उनमें दुर्बुद्धिजन्य दुर्गुणों का प्रभाव बढ़ने लगता है, तो उसकी प्रतिक्रिया सर्व साधारण में उद्दंडता, आवेश, अनाचार भरती है। उनकी परिणति शोक संताप के रूप में सामने आती है। थोड़ी प्रतिभाएं अनेकों को अपने साथ घसीट ले जाती हैं और शीतयुद्ध, गृहयुद्ध, अपराधों का घटाटोप जैसे परिणाम बन कर सामने आती हैं। यह वातावरण का प्रदूषण है, जिसे वायुमंडलीय प्रदूषण से भी अधिक भयंकर माना जाता है। वायुमंडल की विषाक्तता रोग फैलाती और दुर्भिक्ष लाती है, किन्तु वातावरण में दुष्टता और भ्रष्टता के तत्व भर जाने से प्रकृति कुपित होकर ऐसे कहर बरसाती है, जिसे मनुष्यकृत ‘कत्लेआम’ से भी अधिक भयंकर समझा जा सकता है।
इन दिनों परिस्थितियाँ ऐसी ही हैं। उन्हें विकृत मनःस्थिति की देन माना जा सकता है। सभी जानते हैं कि इन दिनों कुमार्गगामिता अपनी चरम सीमा पर चल रही है। बढ़ती हुई जनसंख्या तथा उभरती दुष्प्रवृत्ति का विस्फोट इस प्रकार हो रहा है कि वह कभी भी नक्षत्र युद्ध या असाध्य महामारियों के रूप में फूट सकती है। विज्ञान और बुद्धिवाद का दुरुपयोग ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर सकता है, जिसमें मानवी सत्ता और सभ्यता का अंत होने जैसी स्थिति आ पहुँचे।
ऐसे भयंकर समय में भौतिक उपाय उपचार तो शासकों एवं धनाध्यक्षों द्वारा अपने-अपने ढंग से चल ही रहे हैं। अध्यात्म क्षेत्र के मनस्वियों को इन दिनों दिव्य प्रतिकारों का आश्रय लेना चाहिए और व्यक्ति तथा समाज को नरक जैसे दल-दल में फंस जाने से पूर्व ही उबारना चाहिए। इसके लिए सर्वसुलभ उपचार यज्ञ प्रक्रिया को पुनर्जीवित करने के स्तर पर प्रयास करना चाहिए। इस आधार पर ही वातावरण का परिशोधन संभव हो सकता है। तपस्वियों के द्वारा किये गये ऐसे आयोजन अन्तरिक्ष में ऐसी उथल-पुथल कर सकते हों और विकास के नये आयाम आरम्भ हो सकें।
पदार्थ यजन के साथ-साथ मंत्रोच्चार की स्वर विद्या, प्रयोक्ताओं की प्रखर पवित्रता का सम्मिश्रण होने से ही यज्ञीय विद्या उस स्थिति तक पहुँचती है, जिसमें प्रस्तुत आशंकाओं, आतंकों और अपराधों से लोहा ले सकना, उनके दावानल को बुझा सकना संभव हो सके। यज्ञ मात्र प्रतिकार ही नहीं है। उसके साथ परिष्कार भी जुड़ा हुआ है। अदृश्य का दृश्य जगत पर प्रभाव पड़ता है। अध्यात्म अदृश्य की विकृति से निपटने और उसमें सुखद संभावनाएं भर सकने में समर्थ है। अध्यात्म का अभिवर्धन एवं अभिसरण योग और तप द्वारा हो सकता है, पर उसका प्रत्यक्ष रूप यज्ञ प्रक्रिया के रूप में कार्यान्वित होता है। ऐसी प्रक्रिया जिसमें स्वर विज्ञान पदार्थ विद्या और उच्च स्तरीय व्यक्तित्वों का शास्त्रीय विधि से समावेश हो।