हजरत उमर– उनके जीवन के कुछ प्रसंग

December 1986

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इस्लाम धर्म को ऊँचा उठाने वाले कुछ गिने-चुने व्यक्तियों में हजरत उमर साहब का नाम बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है। उनके जीवन से संबंधित कुछ प्रसंग ऐसे हैं जो उस आदर्शवादिता का परिचय देते हैं जो सार्वभौम है, सभी धर्मों का मर्म है।

एक बार कूफे के गवर्नर ने अपने लिए एक बड़ा महल बनवाया और उसमें कीमती फाटक लगवाया। शान के लिए दरवाजे पर दरबान बिठाया। खबर हजरत उमर तक पहुँची और जाँच कराने पर सही भी निकली। उनने बड़े अफसर कूफे को भेजा और उन्होंने गवर्नर के फाटक तथा महल में आग लगवा दी। इस घटना से सारे राज्य के कर्मचारियों के कान खड़े हुए और उन्होंने आगे से सरकारी इमारतों को जनता के स्तर के अनुरूप ही बनवाया।

हजरत उमर ने अपने खानदान वालों के लिए यह रोक लगा रखी थी कि उन्हें किसी ऊँचे सरकारी पद पर अफसर न बनाया जाय। जिनने इस्लाम के लिए कुर्बानियाँ दी थीं और बड़े-बड़े कष्ट उठाये थे उन्हें भी पूर्वजों की ख्याति का कोई अनुचित लाभ न उठाने दिया।

एक बार युद्ध विजेताओं को एक-एक हजार दिरहम इनाम दिए गये। पर उनके पुत्र अब्दुल्लाह को उससे आधा ही पैसा मिला। उसने नाइंसाफ़ी की शिकायत की तो हजरत ने कहा- “तुम्हें मेरी आदर्शवादिता का भी हिस्सेदार होना चाहिए।” इसी प्रकार बेटे का काम अधिक भारी होते हुए भी उसकी अपेक्षाकृत कम वेतन पर नियुक्ति की गई। उनने अपने कबीले के लोगों से कह रखा था कि अपना आचरण दूसरों से ऊँचा रखें, अन्यथा उन्हें साधारण लोगों की तुलना में अधिक दण्ड दिया जायगा।

एक बार राज्य कोष में कस्तूरी जमा होने के लिए आई। तौलने के लिए उनकी पत्नी तराजू लेकर आगे आई। खलीफा ने उन्हें रोक दिया और कहा- “कस्तूरी की महक तुम्हारे हाथों और कपड़ों में लगेगी। ऐसी दशा में वह अतिरिक्त लाभ तुम्हें मात्र मेरी पत्नी होने के नाते क्यों उठाने दिया जाय?” उनके हाथ से तराजू छीनकर दूसरे कर्मचारी को दे दी गई।

हजरत उमर की पत्नी का रूस के सम्राट की पत्नी के साथ मेलजोल और पत्र व्यवहार था। एक बार पत्नी ने साम्राज्ञी को इत्र की शीशी उपहार में भेजी। बदले में साम्राज्ञी ने कुछ रत्न भेजे। खलीफा को पता चला तो उनने इत्र के पैसे पत्नी को देकर बाकी सारी रत्नराशि राज्यकोष में जमा करा दी।

एक बार हजरत उमर के लड़के अब्दुल्लाह ने एक ऊँट खरीदा। उसे सरकारी चरागाह में चरने के लिए छोड़ दिया गया। वह मोटा हो गया। हाट में बिकने बहुत से ऊँट पहुँचे। मोटा ऊँट किसका है? इसकी खलीफा ने जाँच कराई। मालूम पड़ने पर उसे बाजारू ऊंटों जितना ही पैसा दिया गया। जो बढ़ी हुई कीमत थी वह जब्त करके सरकारी चरागाह में चरने के कारण खजाने में जमा करा दी गई।

एक बार राज्य कोष की वार्षिक गिनती हुई। उसमें एक दीनार अधिक पायी गयी। कोषाध्यक्ष ने उसे हजरत के छोटे लड़के को दे दिया। मालूम होने पर उसे लौटा दिया गया और फिर से राज्य कोष में उसे शामिल किया गया। उनने कहा- “हमारे बच्चे प्रजा के धन को मुफ्त में लेने की आदत नहीं सीख सकते।”

ईराक के गवर्नर ने अपने क्षेत्र की आय केन्द्रीय सरकार को भेजी। उसमें कुछ जेवर भी थे। हजरत की भतीजी अस्मा ने उस ढेर में से एक छोटी अंगूठी अपने लिए लेनी चाही। हजरत ने उस माँग को अस्वीकार कर दिया। लड़की मन मार कर रह गई। “बिना हक की चीज कोई भी न ले, चाहे वह शासक का कितना ही निकटवर्ती क्यों न हो।” यह हजरत साहब का सिद्धान्त था।

उच्च पदाधिकारी ईराक के गवर्नर अशअरी ने एक कीमती चादर हजरत की पत्नी के लिए उपहार में भेजी, पर उसे स्वीकार नहीं करने दिया गया।

अजरबेजान की विजय पर टोकरे भर कर मिठाई विजेता अफसरों ने उनके लिए भेजी। एक टुकड़ा उठाते ही हजरत उमर को ध्यान आया कि यह सभी साथियों के लिए काफी नहीं हो सकती। अफसर ने कहा- “यह तो सिर्फ आपके लिए है।” इस पर खलीफा ने कहा- “मैं समुदाय का अमीन हूं। उसके हाथों पहुँचने वाली हर वस्तु अमानत है। अगर में उसमें से अपने लिए अलग से कुछ पाऊँ तो वह अमानत में खयानत ही कही जायेगी। बाद में समय आने पर खलीफा के वेतन से और मिठाई खरीद कर दोनों मिलाकर बाँट दी गईं।”

खरी आलोचना से न चूकने की हिदायत देते हुए उन्होंने साथियों से कहा कि “अगर मैं गिरकर टेढ़ा हो जाऊँ, तो तुम उठाने और सीधा करने का प्रयत्न करोगे या नहीं” लोगों ने हाँ कहा तो अपनी बात की पुष्टि मानते हुए उनने कहा- “मैं गलतियाँ करूँ, तो उन्हें बताने और रोकने का तुम्हें पूरा अधिकार है।”

अमीरुल मोमितीन का कुर्ता दूसरों से कहीं अधिक ढीला और लम्बा था। उन्हें टोकते हुए हजरत ने पूछा- “इतना अधिक कपड़ा आपने कहाँ से पाया? “हजरत के लड़के अब्दुल्लाह ने कहा, “यह कपड़ा चोरी का नहीं। मैंने छोटा कपड़ा सिलवाकर बाकी का कपड़ा इनके डीलडौल को देखते हुए दिया है।” बच्चे की आदर्शवादिता पिता के व्यवहार के अनुरूप ही थी।

हजरत कहीं से थके माँदे आ रहे थे। रास्ते में एक गुलाम गधे पर चढ़ा हुआ मिला। उसने प्रार्थना की कि आप सवारी पर चलें, मैं पैदल चलूँगा। हजरत ने इसे स्वीकार न किया। गुलाम का मन रखने के लिए थोड़ी दूर तक उसी के साथ पीठ के पिछली ओर बैठ गये, पर उसे उतरने नहीं दिया।

उन दिनों ऊंटों की खुजली के लिए उन्हें तेल मलने, दवा लगाने का काम गुलामों से कराया जाता था ताकि बदबू से जो परेशानी होती है वह उन्हीं को हो। पर हजरत यह कार्य स्वयं करते और कहते जब इन ऊंटों की सेवा हम लेते हैं तो उनकी हिफाजत भी हमीं को करनी चाहिए।

हजरत उमर प्रारम्भिक दिनों में मदाइन के गवर्नर थे। वे सरकारी कार्य करने के अतिरिक्त बचे हुए समय में खजूर की चटाइयाँ बुनते रहते। एक चटाई तीन दिरहम में बिकती तो एक दिरहम के खजूर के पत्ते खरीद लेते, एक दिरहम दान कर देते और बचे एक से अपना निर्वाह चलाते। राज्यकोष से निर्धारित वेतन उनने कभी स्वीकार ही नहीं किया।

हजरत साहब का विवाह हुआ तो ससुराल वालों ने स्वागत में दीवारों पर पर्दे टाँग रखे थे। उनने पहुँचते ही कहा- “अगर इन से दीवारें खराब नहीं हो गई हों तो कपड़े उतार दो और उनके लिए काम में लाओ जिन्हें तक ढंकने की जरूरत है।” तुरन्त वैसा ही किया भी गया।

एक दिन कुछ चारण बड़ाई के पुल बाँध रहे थे। हजरत ने कहा- “गंदे बूँद से पैदा हुए और खाक में मिलने वाले इंसान की प्रशंसा व्यर्थ है। उससे कुछ भलाई बन पड़ी हो तो उसी की चर्चा करो।”

वास्तव में हजरत उमर जैसे देवदूत, पैगम्बर ही इतिहास में स्वर्णाक्षरों में वर्णित किए जाने योग्य हैं। जिनका जीवन आदर्शों के प्रति समर्पित हो, उन्हीं के प्रति श्रद्धा पनपती एवं अनुकरण की उमंग उठती है।


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