द्रौपदी के स्वयंवर का समय था। राजकुमार बड़ी संख्या में आ गये। समय कम था। जयमाला बाणबेध की प्रवीणता की शर्त पर ही डाली जानी थी। सो प्राथमिक परीक्षा की व्यवस्था की गई। जो उसमें उत्तीर्ण हो, वही असली मत्स्य बेध की प्रतियोगिता में सम्मिलित होगा। द्रोणाचार्य को प्रथम परीक्षक नियुक्त किया गया।
प्रतियोगी राजकुमार बारी-बारी से आते गये। एक नकली मछली निशाने की जगह रखी गई। परीक्षार्थी जब निशाना साधने के लिए उद्यत होते तब उनसे प्रश्न पूछा जाता- “तुम्हें मछली के कौन-कौन से अवयव दिखते है?”
उत्तर में जो अनेक अवयव दिखने की बात कहते उन्हें अनुत्तीर्ण ठहरा दिया जाता। एक अर्जुन ही ऐसा निकला, जिसने कहा- “देव मुझे मछली की आँख के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखता।” इस उत्तर से द्रोणाचार्य संतुष्ट हुए। उसे अन्तिम प्रतियोगिता में भेजा गया जहाँ उसने निशाना बेधा और स्वयंवर जीतकर द्रौपदी को वरण किया।
समग्र एकाग्रता से ही सफलता की सुनिश्चितता होती है/