शेखसादी के नीति वचन

December 1986

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

“यह सही नहीं है कि प्रपंचों और विज्ञापनों के आधार पर किसी को सम्मान दिलाया या बदनाम किया जा सकता है। सत्य अपने आप में इतना समर्थ है कि अपनी स्थिति स्वयं स्पष्ट कर देता है। दिनमान उदय होने पर बदली छाने या कुहासा फैलने पर हल्का सा धुंधलापन आ सकता है, पर रात्रि हो जाने जैसा अंधकार किसी भी व्यवधान के कारण उत्पन्न नहीं हो सकता।”

“अपने आप को खरा रखो। अन्तर को टटोलो। देखो कि कहीं उसमें खोट तो छिपा हुआ नहीं है। चिनगारी छोटी होने पर भी अवसर पाकर प्रचंड ज्वालमाल बन सकती है। अपनी ही कमियाँ चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को गर्हित बनाती हैं। प्रकाश की ओर पीठ करके चलने वाला मात्र अपनी काली परछाई ही देखता है। आदर्शों से विमुख होकर कोई व्यक्ति न तो गरिमा अर्जित करता है और न ओछे उपायों से प्राप्त की गई ख्याति को बनाये रह सकता है। छद्म में देर तक पैर जमाये रहने की सामर्थ्य नहीं है।”

“नास्तिक से पाखंडी बुरा है। नास्तिक ईमानदार होता है। वह अपने विश्वासों को प्रकट करता है और बहुमत का विरोध सहने के लिए भी जोखिम भरा साहस करता है। किन्तु पाखंडी पहले आत्महनन करता है पीछे दूसरों की आँखों में धूलि झोंकता है। इस प्रकार पोल खुलने पर सामाजिक दंड मिलने के पूर्व ही वह उस भार से लद चुका होता है, जो कमर तोड़ती और गरदन मरोड़ती है।”

“छद्म एक प्रकार की जादूगरी है, जिससे बाल बुद्धि को भरमाया और नासमझी का कौतुक कौतूहल जैसा आडम्बर जता कर प्रभावित किया जा सकता है, पर वह स्थिति देर तक नहीं टिकती। बाजीगर के पास यदि वस्तुतः सिद्धियाँ रही होतीं तो यह तमाशा क्यों दिखाता, मजमा क्यों जुटाता, घर बैठे क्यों न पुजता।”

“देखभाल कर चलो और जाँच परख कर खरीदो। इस दुनिया में सब कुछ वैसा ही नहीं है जैसा कि बाहर से दिखता है। असल की नकल बनाने में लोग बहुत चतुर हैं। असली हीरे बड़े जौहरियों की दुकान पर ही मिलते हैं, पर नकली काँच के टुकड़े उनसे भी अधिक चमकते हैं और सन्दूक लेकर बैठने वाले बिसातियों की चादरों पर फैले पड़े रहते हैं। इस प्रचलन को रोका नहीं जा सकता। समझदारी इसी में है कि आँख खोल कर चला जाय और ठोकर खाने से बचा जाय।”

“न किसी पर विश्वास करो न अविश्वास। मनुष्य का स्वभाव परिवर्तनशील है। वह आज ऐसा है तो कल वैसा भी बन सकता है। परिवर्तनशीलता को ध्यान में रखो और हर परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार रहो। ऐसा न हो कि विश्वास में आकर विश्वासघात सहने के लिए बाधित हो जाओ। अच्छा यही है कि अति उत्साह से भरकर स्वयं को प्यार या द्वेष की सीमा में न रखा जाय, अपितु संतुलन बनाये रखा जाय। यही जीने की सच्ची रीति नीति है।”


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118