एकता और समता का आदर्श

December 1986

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राष्ट्रीय एकता का वास्तविक तात्पर्य है- मानवी एकता। मनुष्य की एक जाति है। उसे किन्हीं कारणों से विखण्डित नहीं होना चाहिए। भाषा, क्षेत्र, सम्प्रदाय, जाति, लिंग, धन, शिक्षा, पद आदि के कारण किसी को विशिष्ट एवं किसी को निकृष्ट नहीं माना जाना चाहिए। सभी को समाज में उचित स्थान और सम्मान मिलना चाहिए। उपरोक्त कारणों में से किसी को भी यह अधिकार नहीं मिलना चाहिए कि अपने को बड़प्पन के अहंकार से भरे और दूसरे को हेय समझे, उसका तिरस्कार करे।

इन दिनों कई प्रांतों में सम्प्रदाय विशेष के सदस्य होने के कारण अथवा पृथक भाषा भाषी होने के कारण अपने वर्ग-वर्ण को पृथक मानने और राष्ट्रीय धारा से कट कर अपनी विशेष भूमि, विशेष पहचान बनाने की प्रवृत्ति चल पड़ी है। इसे शान्त करने के लिए वैसे ही प्रयत्न किए जाने चाहिए, जैसे अग्निकाण्ड आरम्भ होने पर उसके फैलने से पूर्व ही किए जाते हैं। समता और एकता के उद्यान उजाड़ डालने की छूट किसी को भी नहीं मिलनी चाहिए। द्वेष को प्रेम से जीता जाता है। विग्रह को तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण प्रस्तुत करते हुए विवेकपूर्वक शान्त किया जाता है। आक्रमण-प्रत्याक्रमण से तो विषमतायें बढ़ती ही जाती हैं और उस कुचक्र का कभी अन्त नहीं होता। इसलिए दुर्भाव और विग्रहों के पनपते ही उनके शमन समाधान का प्रयत्न करना चाहिए।

यह सामयिक उभार है जो देश का बुरा चाहने वालों की दुरभिसंधि के कारण उठ खड़े हुए हैं। यह विषवेलि पानी न मिलने पर समयानुसार सूख जायगी। पर कुछ व्याधियाँ ऐसी हैं जो चिरकाल से चली आने के कारण प्रथा परिपाटी बन गई हैं और उनके कारण देश की क्षमता तथा एकता दुर्बल होती चली आई है। समय आया है उन भूलों को अब समय रहते सुधार लिया जाय। अन्यथा यह सड़ते हुए फोड़े समूचे शरीर को विषैला कर सकते हैं।

जब सभी मनुष्यों की संरचना- रक्त माँस की बनावट एक जैसी है तो उनमें से किसे ऊँचा, किसे नीचा कहा जा सकता है। ऊँच-नीच तो सत्कर्म और कुकर्म के कारण बनते हैं। उसका जाति वंश से कोई संबंध नहीं। धर्म एक है। सम्प्रदायों का प्रचलन तो समय और क्षेत्रों की आवश्यकता के अनुरूप हुआ है। उनमें से जो जिसे भावे, वह उसे अपनावे। खाने पहनने सम्बन्धी भिन्न रुचि को जब सहन किया जाता है, तो भिन्न-भिन्न देवताओं की पूजा, भिन्न परम्पराओं का अपनाया जाना किसी को क्यों बुरा लगना चाहिए। एक बगीचे में अनेक रंगों के फूल हो सकते हैं, तो एक देश में अनेक सम्प्रदायों के प्रचलन में ऐसी क्या बात है, जिसके कारण परस्पर विद्वेष किया जाय और एक दूसरे को नास्तिक या अधर्मी कहकर निन्दित बताया गया। सम्प्रदायों की एकता पर हम सब को पूरा जोर देना चाहिए। भाषाओं की भिन्नता पर लड़ने की आवश्यकता नहीं। अनेकता को हटाकर हमें भाषायी एकता अपनानी चाहिए ताकि समूचे देशवासी एक विचारों का आदान प्रदान सरलता के साथ कर सकें।

नर नारी के बीच बरता जाने वाला भेद भाव तो और भी निन्दनीय है। हम अपनी ही माताओं, पुत्रियों, बहनों, पत्नियों को हेय दृष्टि से देखें, यह कैसी अनीति है? इस भूल को अपनाये रहने पर आधा समाज पक्षाघात पीड़ित की तरह अपंग रह जाता है। परिवार वैसे नहीं बन पाते जैसे कि सुयोग्य गृहलक्ष्मी के नेतृत्व में वे बन सकते हैं।

भारतीय संस्कृति के दो प्रमुख आदर्श हैं। एक “वसुधैव कुटुम्बकम्” दूसरा “आत्मवत् सर्व भूतेषु”। इन दोनों को हृदयंगम करने पर एकता और समता को ही मान्यता देनी पड़ती है। इन आदर्शों को हमें किसी देश, क्षेत्र, सम्प्रदाय के सुधार तक ही सीमित न रखकर विश्वव्यापी बनाना चाहिए, ताकि समूची मनुष्य जाति सुख शांति से रह सके और सर्वतोमुखी प्रगति कर सके।


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