बिना किसी सोच-विचार के (Kahani)

December 1986

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पंचतत्वों बनी मण्डली, एक सुरम्य पर्वत पर पहुँची। चर्चा छिड़ी तो अपने-अपने बड़प्पन का प्रसंग उभर आया।

पृथ्वी बोली- सभी दुनिया का बोझ मैं उठाती हूँ। सबका पेट भी मैं ही भरती हूँ।

जल ने कहा- मेरे बिना जीवन ही नहीं। न वनस्पति न प्राणी। सब कुछ सूखने लगे और त्राहि-त्राहि मचे।

पवन बोला- दीखता नहीं हूँ तो क्या? मेरे बिना घुटन ही सबका गला घोंट देगी।

अग्नि ने कहा- गर्मी रोशनी के बिना इस लोक में शान्ति निस्तब्धता के अतिरिक्त और क्या बचेगा?

चारों का कथन पूरा हो गया फिर भी आकाश बोला नहीं। बार-बार पूछने पर उसने एक ही शब्द कहा- आप सब मेरे हैं और मेरी गोद में ही खेलते हैं। बड़प्पन का निर्णय बिना किसी सोच-विचार के हो गया।


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