सन्तों के वरदान और अनुदान

December 1986

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किसी के पास अपनी उपार्जित सम्पत्ति हो, वह इच्छानुसार चाहे जिसे दे सकता है, चाहे जिस काम में खर्च कर सकता है। उस वैभव को अपनी सुख-सुविधा में लगावे या किसी और को हस्तांतरित कर दे, यह उसकी अपनी मन-मर्जी की बात है। यह क्रम आदिकाल से चलता रहा है और अनन्तकाल तक चलता रहेगा।

लोग अपनी कमाई को पूरी तरह अपने लिए खर्च नहीं करते, वरन् स्त्री-बच्चों की सुख-सुविधा में खर्चते रहते हैं और मरने के उपरान्त उसे उन्हीं के लिए छोड़ जाते हैं।

आध्यात्मिक उपार्जन भी धन कमाने की तरह है। उसे इतनी मात्रा में भी कमाया जा सकता है कि उससे आत्म कल्याण जैसे प्रयोजन पूरे हो सकें और बचत को किसी अन्य उपयोगी काम के लिए किसी प्रामाणिक व्यक्ति को हस्ताँतरित किया जा सके। ऐसे क्रिया-कलापों को शक्तिपात या वरदान कहते हैं।

रामकृष्ण परमहंस के पास आध्यात्मिक सम्पदा प्रचुर मात्रा में थी। वे उसका उपयोग भारतीय संस्कृति के प्रसार-विस्तार में लगाना चाहते थे; पर स्वयं इस स्थिति में नहीं थे कि विश्व भ्रमण कर सकें। नई पीढ़ी के बुद्धिजीवियों को अपनी क्षमता के आधार पर प्रभावित कर सकें, इसके लिए उन्हें किसी सहायक की आवश्यकता थी। विवेकानन्द उन्हें मिल गये। ठोंक-बजाकर परख लिया कि आदमी प्रामाणिक भी है और सुयोग्य भी। उनने निश्चय किया कि इस युवक के लिए चिर साध्य साधना में लग कर अपनी कमाई के बलबूते वह प्रयोजन पूरा कर सकना कठिन पड़ेगा। इसमें लम्बा समय चला जायेगा और जो काम तत्काल किये जाने योग्य हैं, उनमें विलम्ब हो जायेगा। सरल उपाय यही था कि वे अपनी आध्यात्मिक सम्पदा हस्तान्तरित कर दें। परमहंस जब शरीर छोड़ने लगे तो पास ही बैठे विवेकानन्द के शरीर पर अपना पैर रखा उनके शरीर में बिजली कौंध गयी। चकित होकर उनने गुरु की ओर देखा। उत्तर मिला- “जो कुछ पास में था, सो सब दे दिया। अब इसे अभीष्ट प्रयोजनों में लगाना। मैं इस शरीर से जा रहा हूँ सो इस काया को ठिकाने लगा देना।” विवेकानन्द ने वही किया। अमानत को उन्हीं के काम में लगाया। अपनी निज की किसी महत्वाकांक्षा के लिए उसमें से रत्ती भर भी खर्च नहीं किया। वे जब विदेशों में प्रचार के लिए गये तो उन्हें हर घड़ी यही अनुभव होता रहा कि कोई दिव्य शक्ति उनकी वाणी और मस्तिष्क पर छाई हुई बोल रही है। अस्त-व्यस्त होती हुई संस्कृति में प्राण लौट आये। शक्तिपात सार्थक हो गया।

समर्थगुरु रामदास को देश की पराधीनता पर बड़ा क्षोभ था। चारों ओर जो अत्याचार हो रहे थे, वे उनसे सहन न होते थे। किन्तु अपना स्वरूप और उद्देश्य छोड़ना भी उनसे नहीं बन पड़ता था। अपना कार्य उन्हें किसी अन्य के माध्यम से कराने की सूझी। पर इसके लिए पात्रता आवश्यक थी। कुपात्र के हाथ में शक्ति जाने में तो सर्प को दूध पिलाने और अनर्थ ही हस्तगत होता है। उनकी निगाह शिवाजी पर गई; पर बिना जाने अपना उपार्जन ऐसे ही किसको दे दिया जाय? सिंहनी का दूध लाने और मुस्लिम तरुणी को माँ कहकर लौटा देने के उपरान्त उन्हें पात्रता पर विश्वास हो गया। उन्होंने शिवाजी को शक्ति दी। भवानी तलवार भी। सामान्य मराठा बालक को उन्होंने छत्रपति बना दिया और स्वतंत्रता संग्राम का शुभारम्भ चल पड़ा।

भारत पर मध्य एशिया के शक-हूण बार-बार हमला करते और लूट-पाट करके चले जाते थे। इस स्थिति से चाणक्य को बहुत क्षोभ था। उनने आक्रमणकारियों से निपटने और सीमित भारत को विशाल भारत बनाने के लिए एक दासी की कोख से पैदा हुये चन्द्रगुप्त को चुना। वे स्वयं तो नालंदा विश्वविद्यालय की व्यवस्था में संलग्न थे। चन्द्रगुप्त को सफलताएँ मिलती चली गयीं और वे भारत का, सुदूर क्षेत्रों तक विस्तार करने में समर्थ हुये। आक्रमणकारियों की तो उनने कमर ही तोड़ दी।

गान्धी जी सर्वोदय का काम करना चाहते थे। पर राजनीति उन्हें छोड़ नहीं रही थी। उनने विनोबा को चुना और वे देश में रचनात्मक कार्यों को अग्रगामी बनाने में सफल हुये।

यह वे घटनायें हैं, जिनमें उच्च उद्देश्यों की पूर्ति के लिए तपस्वियों ने अपना तप सत्पात्रों को हस्ताँतरित किया है। स्वामी दयानन्द की सफलताओं का परोक्ष श्रेय उनके गुरु स्वामी विरजानंद को जाता है।

यह एक तथ्य है कि उच्च उद्देश्यों के लिए तपस्वियों की एवं देवताओं की कृपा उपलब्ध होती है। गाँधी का व्यक्तित्व दैवी अनुकम्पा से चमका था। महामना मालवीय हिन्दू विश्वविद्यालय की, श्रद्धानंद गुरुकुल कांगड़ी की, हीरालाल शास्त्री वनस्थली बालिका विद्यालय की स्थापना जैसे महान कार्य अपने व्यक्तित्व के बलबूते नहीं, वरन् दैवी अनुकूलता के सहारे ही कर सके। सुग्रीव, विभीषण, नरसी मेहता, सुदामा आदि को उच्चस्थिति प्राप्त कराने में भगवान ही सहायक रहे। भागीरथ द्वारा गंगावतरण की प्रक्रिया में शिवजी का कम योगदान नहीं रहा। शिव से ही परशुराम ने वह कुल्हाड़ा प्राप्त किया था, जिसके द्वारा उन अकेले ने ही अगणित अनीति करने वाले सत्ताधीशों के सिर काट दिये। हनुमान सुग्रीव की चाकरी करते समय नगण्य थे; पर जब वे राम काज के लिए तत्पर हुए तो जामवन्त ने अपना विपुल पराक्रम उनके सुपुर्द कर दिया बुद्ध ने कुमारजीव को वह सामर्थ्य प्रदान की थी जिसके बलबूते वे चीन तथा उसके समीपवर्ती देशों में बौद्ध धर्म व्यापक बनाने में सफल हुये।

उदारमना तपस्वी अनेक बार दीन-दुखियों की भी सहायता करते रहते हैं और व्यक्तिगत सहायता करके ऊँचा उठाने में भी प्रसन्नता अनुभव करते हैं। गुजरात के बापा जलाराम का अन्न क्षेत्र सर्व साधारण के लिए खुला रहा और अब तक खुला हुआ है। यह कार्य व्यक्तिगत पुरुषार्थ के आधार पर संभव नहीं होते। श्रेय प्रदान करने के लिए दैवी अनुग्रह ही पृष्ठभूमि में काम करता है।

राजा दिलीप को कोई संतान नहीं होता थी। वे गुरु वशिष्ठ के आश्रम में कुछ समय तपस्यारत रहे और वहाँ से पुत्र प्राप्ति का वरदान लेकर वापस लौटे। कुन्ती की मनोकामना देवताओं ने पूर्ण की थी। च्यवन अपने जर्जर शरीर का कायाकल्प करने में अदृश्य शक्ति की कृपा से ही समर्थ हुये थे। कर्ण को कवच-कुण्डल और अर्जुन को गाण्डीव देवताओं से ही प्राप्त हुआ। यह व्यक्तिगत सहायता थी। इसके पीछे ऐसी शर्त नहीं थी, कि इन अनुदानों का उपयोग परमार्थ के लिए ही करना पड़ेगा। टिटहरी समुद्र से अण्डे वापस लेने के लिए चोंच में भर-भर कर बालू डाल रही थी। उसके सत्साहस से प्रभावित अगस्त्य मुनि ने समुद्र सोख कर उस पक्षी के अण्डे वापस दिलाये थे। यह सर्वथा व्यक्तिगत अनुदान थे। प्याऊ, अस्पताल, अन्न क्षेत्र आदि जाकर कोई खाली हाथ नहीं लौटता।

रोते को हँसता देखकर प्रसन्न होने के लिए भी कितने ही उदारमना दानवीरों की तरह अपनी अध्यात्म सम्पदा खर्चते रहते हैं। बच्चे गुब्बारा खिलौना पाकर उछलते-कूदते हैं। पैर में चोट लगने पर मरहम पट्टी कर देने, भूखे को रोटी खिला देने और प्यासे को पानी पिला देने पर जो खुशी उन्हें होती है, उसे देख कर सेवा करने वाले को भी कम प्रसन्नता नहीं होती। संतजन ऐसी बिना बदले की आशा के भी बहुधा सेवा-सहायता किया करते हैं। सूर्य-चन्द्रमा का प्रकाश हर घर तक पहुँचा है। पवन सभी को प्राण बाँटता है। धरती सभी का बोझ सहती है। बादल सर्वत्र बरसते हैं; वे यह नहीं देखते कि यह भले का खेत है या बुरे का। रोतों को हँसा देने में आत्मवादियों को कम प्रसन्नता नहीं होती।

बहुमूल्य सिद्धियाँ अपनी सुयोग्य बेटियों की तरह होती हैं, जिन्हें बड़े लाड़-चाव से, धन खर्च करके बढ़ाया और पढ़ाया जाता है; उन्हें किसी के हाथ सौंपते समय पिता को यह सोचना पड़ता है कि यह किसी कुपात्र के घर न चली जायं। उसे जान बूझकर कोई पिता कुपात्र के याचना करने पर भी देने को तैयार नहीं होता; किन्तु साधारण कठिनाइयों में सेवा-सहायता करना तो मानवी धर्म है। दयालुता को छोड़ते भी नहीं बनता। घर पर आये भिक्षुक को कोई खाली हाथ नहीं जाने देता। पानी घर में होते हुये भी प्यासे को दुत्कार देने से सज्जनता चली जाती है। जब वृक्ष अपनी छाया में हर किसी को बैठने देते हैं और अपनी टहनियों के बीच पक्षियों को प्रसन्नतापूर्वक घोंसला बनाने देते हैं, तो फिर मनुष्य ही ऐसा क्यों कर बने कि जिनकी कष्ट कठिनाइयाँ अपनी सामर्थ्य के भीतर हैं, उन्हें निराश लौटने दें। अतिथि-सत्कार का कर्तव्य पालन सन्तजन भी करते हैं और कठिनाइयों से उबारने के लिए स्वयं पानी में कूद कर डूबतों को बचा लेते हैं यह रीति-नीति तपस्वियों को भी सुहाती है। पर वे औचित्य की सीमा को सदा ध्यान में रखते हैं। ऐसा नहीं होने देते कि उनके किसी अनुदान का दुरुपयोग हो। किसी की बन्दूक उधार माँगकर कोई शिकार खेलता फिरे, तो ऐसी सहायता भी अनुपयुक्त ठहराई जायेगी। नशा पीने के लिए सहायता करते रहना दान नहीं, वरन् दूसरे का भविष्य बिगाड़ना है। दिये हुए का उपयोग किसने किस प्रयोजन के लिए किया, यह तो विचार करने और ध्यान रखने योग्य ही है।

ऋषि का यह कथन उचित ही है कि “मैं राज्य नहीं चाहता न सुख, न स्वर्ग न मुक्ति। दूसरों के दुःख दूर करने भर की मेरी कामना है।” मरते समय भगवान बुद्ध ने कहा था कि जब तक एक भी प्राणी बंधन में बँधा है, तब तक उसे मुक्त करने के लिए मैं बार-बार जन्म लेता रहूँगा। ऐसी उदारता अध्यात्म चेतना के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है और हमेशा रहेगी।


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