उतावली न करो। प्रकृति के सब काम एक निश्चित गति से चलते हैं।
मानवी विशेषता मात्र शरीरगत नहीं है। अधिक से अधिक काया सुन्दर, सुगठित या बलिष्ठ हो सकती है। पर इसका बुद्धिमत्ता, प्रतिभा या कौशल से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। गांधी, विनोबा, राधाकृष्णन या अष्टाचक्र जैसे कायिक दृष्टि से दुर्बल व्यक्ति भी उच्चस्तरीय हो सकते हैं, जब कि रावण, कुंभकरण जैसे अदूरदर्शियों की भी कभी नहीं होती।
मनुष्य आहार-विहार के संयम से स्वस्थ, दीर्घजीवी हो सकता है। पर इतने भर से काम कहाँ चलता है? महापुरुष, अतिमानव, ऋषि बनने के लिए दूरदर्शिता से भी अधिक शालीनता की आवश्यकता होती है। यह मात्र नर-नारी के कायिक संयोग भर से नहीं होता वरन् उसके लिए पीढ़ियों की परम्परा, पारिवारिक वातावरण चाहिए एवं ऐसे जोड़े जिनमें परस्पर प्रभाव ग्रहण करने की क्षमता हो, तभी वह सम्मिश्रण व्यक्तित्व का गठन करता है। वैसा माहौल बना करके ही व्यक्ति को चिन्तनशील, मनीषी, चरित्रवान एवं व्यवहारकुशल बनाया जा सकता है। इसलिए मनुष्य को वनस्पति व जीव-जंतुओं से भिन्न मानकर उसके निषेचन पर उतना ध्यान नहीं देना चाहिए जितना कि शालीनता के पक्षधर वातावरण पर।