इक्कीसवीं सदी की भवितव्यताएँ - 4 - नारी की प्रतिभा उभरेगी- क्षमता निखरेगी

December 1986

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नर और नारी का मध्यवर्ती अन्तर कृत्रिम है। दोनों ही मनुष्य वर्ग के अविच्छिन्न अंग हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक एवं सहयोगी हैं। दोनों की अपनी-अपनी विशिष्टता एवं उपयोगिता है। एक के बिना दूसरे का काम नहीं चल सकता। एकाकी रहने पर दोनों ही अपूर्णता एवं खीज-असंतुष्टि अनुभव करते हैं और नीरसता, निराशा के दो पाटों के बीच आकार अनाज में रहने वाले घुन की तरह पिस जाते हैं।

दोनों अपने आप में समर्थ एवं स्वावलम्बी हैं। एक दूसरे की सेवा-सहायता, श्रद्धा और सद्भावना के आधार पर करते हैं। किसी को किसी के हाथों अपना स्वाभिमान बेचने की आवश्यकता नहीं पड़ती। कोई किसी पर भौतिक क्षेत्र में आश्रित नहीं है, पर फिर भी पारस्परिक सद्भावना अर्जित करके अपनी श्रेष्ठता तथा प्रसन्नता को कई गुना बढ़ा लेते हैं। यह आदान-प्रदान विश्व-ब्रह्मांड की स्थिरता और गतिशीलता का आधार है। नर-नारी चेतना के पिण्ड और पुंज होने के कारण शोभा, सुन्दरता और उपयोगिता बढ़ा लेते हैं।

मानवी गरिमा की स्थिरता और अभिवृद्धि में नर-नारी का समान योगदान है। कोई किसी से न तो वरिष्ठ है, न कनिष्ठ। यह सदाशयता और सज्जनता ही है, जिसमें नम्रता और कृतज्ञता से प्रेरित होकर वे एक दूसरे से छोटे बनने का प्रयत्न करते हैं और समर्पित रहने में अनुभव करते हैं- संतोष, गर्व और उल्लास। इस पारस्परिक सद्भाव के उत्पादन से किसी के ऊपर किसी का दबाव नहीं है और न इसमें हीनता के लिए कहीं कोई गुंजाइश।

दोनों मिल जुलकर अपने-अपने हिस्से का काम करते हैं तो भिन्नता एकता में परिणत होती है। गाड़ी दो पहियों पर चलती है। ताली दो हाथ से बजती है। यात्रा के निमित्त दोनों पैर उठते हैं। दो आंखों को, दो कानों को, दो नथुनों को, दो फेफड़ों, गुर्दों को परस्पर पूरक ही कहा जा सकता है। इनमें से एक रहे दूसरा न हो तो कुरूपता तो बनेगी ही, दोनों का काम एक के करने पर शक्ति का क्षरण भी अनावश्यक रूप से होगा।

दोनों के काम अलग-अलग हैं। किन्तु यह कोई पत्थर की लकीर नहीं है। आवश्यकतानुसार कामों को अदल बदल भी सकते हैं। काम सो काम। न उसमें कोई ऊँचा है न नीचा। न किसी का किसी क्षेत्र में छोटापन है, न बड़प्पन। सुविधा के लिए काम का विभाजन, वर्गीकरण किया जाता है। चलने में बायाँ पैर आगे उठता है और खाने में दाहिने ही हाथ की पहल होती है। इसमें न किसी की इज्जत घटती है, न बढ़ती। जहाँ ऐसा भेदभाव पैदा हुआ, समझना चाहिए कि अनर्थ का बीजारोपण हो गया। इसका प्रतिफल बुरा ही होकर रहेगा।

जनसंख्या का आधा भाग नर है तो आधा भाग नारी। प्रगति और अवगति के लिए दोनों समान रूप से जिम्मेदार हैं। यदि किसी की योग्यता को प्रतिबंधित किया जाता है तो समझना चाहिए कि मानवी आचार संहिता का हनन हो रहा है। परस्पर प्रोत्साहन ही दिया जा सकता है। आगे बढ़ाने में सहयोग भी। यह कार्य प्रतिष्ठा एवं प्रशंसा का उपहार देकर ही कराये जा सकते हैं। दोनों एक दूसरे के लिए उदार और सच्चाई भरे मन से एक दूसरे के लिए यह अनुदान प्रस्तुत करें और व्यक्तित्व को बलिष्ठ समर्थ प्रखर बनाने में सहयोगी भी बनें। गलतियों को हँसी में उड़ाते रहने और सेवाओं को अविस्मरणीय रखने से ही घनिष्ठता बनती और कड़ी गाँठ की तरह बँधती है।

इन सिद्धान्तों की पिछले दिनों उपेक्षा होती रही है। नर को स्वामी और नारी को पालतू पशु का स्थान मिलता रहा है। सामाजिक न्याय की दृष्टि से भारी पक्षपात बरता जाता रहा है। नारी घूंघट निकाले, नर नहीं। नारी सती हो, नर नहीं। नारी को दहेज देना पड़े, नर को नहीं। नारी पिटे, नर नहीं। बिना संरक्षण के नारी घर से बाहर कदम न रख सके और नर स्वच्छंद विचरे। नर एक साथ कई विवाह कर ले पर नारी विधवा होने पर भी नहीं। यह ऐसे प्रतिबंध हैं, जिन्हें न्याय और औचित्य की किसी कसौटी पर खरा नहीं माना जा सकता। किन्तु फिर भी वे रहे हैं और आज भी पिछड़े क्षेत्रों में विशेष रूप से रह रहे हैं। इसका सीधा-सा परिणाम यह हुआ कि केवल पुरुष को ही पूरी गाड़ी धकेलनी पड़ी है। नारी को सहयोग कर सकने का अवसर ही नहीं मिला। फलतः उसकी प्रतिभा छीजती, घटती और गिरती गई। परिणाम समूचे समाज को सहना पड़ा। वह अर्ध विकसित बन कर रहा। अर्धांग पक्षाघात पीड़ित की तरह किसी प्रकार घिसटते हुए चला।

नारी को रमणी, कामिनी, भोग्या और काम कौतुक के लिए विनिर्मित समझा गया। रंग बिरंगे वस्त्र, आभूषण श्रृंगार प्रसाधन, इसलिए उस पर लादे गये ताकि वह अधिक आकर्षक, उत्तेजक प्रतीत हो। लाल सिंदूर लगाकर अपने को सधवा, किसी की सम्पत्ति होने की घोषणा करे। नख शिख की सुन्दरता और मांसलता के आधार पर उसका मूल्याँकन किया गया। रूपवती प्रिय लगी और सामान्य बनावट वाली तिरस्कृत होती रहीं। उनका अवमूल्यन और उपहास हुआ। इसका सीधा-सा तात्पर्य है कि जो कामुकता भड़का सके, उस आदेश को अनिच्छा एवं अखरता रहने पर भी शिरोधार्य करती रहे, उसे ही पतिव्रता माना जाय।

इस संदर्भ में शिक्षित अशिक्षित, भारतीय योरोपीय सभी क्षेत्रों की नारियों की अपनी-अपनी कठिनाइयाँ हैं। किन्हीं को दबाव सहना पड़ता है तो किन्हीं को लुभावने आकर्षणों की सुनहरी जंजीर से बाँधा जाता है।

विचारणीय है कि क्या भविष्य में नारी को रबड़ की गुड़िया या कठपुतली की तरह ही जीवन-यापन करना पड़ेगा? क्या वह अपनी प्रतिभा का उपयोग, व्यक्तित्व को प्रखर और समाज को समुन्नत बनाने में कभी भी न कर सकेगी? यदि ऐसा हुआ तो समझना चाहिए कि संसार पर लदा हुआ पिछड़ापन आधी मात्रा में तो अनिवार्य रूप से बना ही रहेगा।

नारी की एक और बड़ी भूमिका है- प्रजनन। वह मात्र प्रसव ही नहीं करती वरन् भावी पीढ़ी का स्तर भी विनिर्मित करती है। वह सच्चे अर्थों में भविष्य की निर्मात्री है। क्योंकि बालक माता के संस्कार लेकर ही जन्मते हैं और शैशव की सारी अवधि उसी के संरक्षण में गुजारते हैं। तद्नुसार उनके गुण, कर्म, स्वभाव का ढाँचा अधिकतर इसी अवधि में ढल लेता है। बाद में तो उस पर खराद होती रहती है।

इस संदर्भ में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण वह मान्यता है जिसमें नारी का मूल्यांकन उसकी सुन्दरता-कामुकता के आधार पर किया जाता है। विवाह का अर्थ है- कामुकता की कानूनी छूट के रूप में नारी का प्रयुक्त होना। हेय मान्यता के कारण ही वह फुसलाई जाती है, बिकती है। व्यभिचार, बलात्कार की शिकार होती है, किसी विभाग में नौकर है तो अफसरों के इशारे पर चलने में ही खैर मनाती है। प्रतिरोध करने पर अभियोगों और लांछनों से लदती है। कालगर्ल्स बनने से लेकर कैबरेडान्सों तक में, वेश्याओं के कोठों में उसकी दयनीय दुर्दशा देखी जा सकती है। भूली भटकी जहाँ-तहाँ नारी निकेतनों में भर्ती होती हैं। तलाक और गर्भपात की विवशता उनके लिए कितनी कष्टकर और आघातपूर्ण होती है। उसे भुक्तभोगी स्थिति में ही जाना जा सकता है। बाल विवाहों से उनका शरीर किस प्रकार खोखला और रोगी हो जाता है, इसकी जानकारी सर्वेक्षणकर्ताओं ने अनेक अवसरों पर प्रकट की है।

नारी को इस स्थिति से उबारना होगा। इसके लिए आवश्यक है कि वर्तमान कुदृष्टि, कामुक चिन्तन की शिकार होने से उन्हें बचाया जाय। समानता का वास्तविक तात्पर्य यह है कि मान्यता और भावना की दृष्टि से नर नारी- भाई भाई की- बहिन बहिन की- या भाई बहिन की दृष्टि से पारस्परिक संबंधों को देखें। प्रेत पिशाच की तरह कामुकता को सिर पर न चढ़ी रहने दें। आंखों में शैतान की कुदृष्टि न घुसी रहे। भोग्या और उपभोक्ता का रिश्ता न रहे। कामुकता को न आवश्यक समझा जाय और न महत्व दिया जाय। पशुओं में प्रजनन अवधि आने पर नारी ही प्रथम प्रस्ताव करती है। नर बिना अनुरोध के साथ-साथ जीवन भर रहने पर भी अपनी ओर से छेड़ खानी का कभी कोई प्रसंग उपस्थित नहीं होने देता। यही प्रचलन मनुष्यों में भी रहे तो शरीरों का ऐसा सर्वनाश न हो, जैसा कि इन दिनों होता रहता है। उन मानसिक विकृतियों से छुटकारा मिले जो उत्कृष्ट चिन्तन के लिए गुंजाइश ही नहीं छोड़तीं। बलात्कार, व्यभिचार, अपहरण आदि की जो दुर्घटनाएं आये दिन होती रहती हैं उनकी कोई संभावना या गुंजाइश ही न रहे।

सौंदर्य देखने की- पुलकन की वस्तु है। उसे मरोड़ देने, गला घोट देने के लिए नहीं सृजा गया है। देवियों की प्रतिमाएँ सुन्दर भी होती हैं और सुसज्जित भी। उन्हें मंदिरों में प्रतिष्ठित देखा जा सकता है। दृष्टि सदा मातृ भाव से सनी पवित्रता से ही भरी रहती है। यही दृष्टि हाड़ माँस की नारी के लिए भी रखी जा सकती है। ऐसी स्थिति में सच्चे प्यार की भावनाएँ बनती हैं और गिराने की नहीं, अधिक विकसित करने की इच्छा होती है। इसी मनोभूमि में नर-नारी के बीच पारस्परिक स्नेह सौजन्य पनपता है और उनके सच्चे मन से मिलने पर ही एक और एक ग्यारह होने की उक्ति चरितार्थ होती है।

आज की विषम बेला में तो दाम्पत्य जीवन में और अधिक तप संयम बरतने की ही आवश्यकता है। हँसने मुस्कराने भर से काम क्रीड़ा की मानसिक पूर्ति हो जानी चाहिए। साथ-साथ रहने, काम करने, एक दूसरे को अधिक सुयोग्य बनाने, सम्मान देने, प्रशंसा करने में जो प्रसन्नता होती है उस पर घिनौनी कामुकता को निछावर किया जा सकता है।

अगले दिनों नारी को प्रतिबंधों, दबावों, तनावों, बंधनों से मुक्त करके सामान्य मनुष्य जीवनयापन करने की स्थिति में लाना होगा। उसे काम कौतुक से उबार कर व्यक्तित्व निखारने, प्रतिभा उभारने एवं योग्यता बढ़ाने के लिए समुद्यत करना होगा। यह समय की अनिवार्य आवश्यकता है। उसे साहित्यकारों, चित्रकारों, विज्ञापन वालों, फिल्म व्यवसायियों के लिए मनोरंजन और कमाई का साधन नहीं बनने देना चाहिए। उसे इस रूप में सज्जित प्रदर्शित नहीं किया जाना चाहिए जिससे वह विलास की पुतली दीख पड़े और इस कारण हर ओर से विपदाओं के बादल टूटें।

अगले दिनों नारी को हर क्षेत्र में नर की समता करनी होगी, सहायक की समर्थ भूमिका निभानी होगी। पर यह संभव तभी है जब उसे कामुकता की नारकीय अग्नि में जलने और जलाने से बचाया जाय। अगले दिनों नारी का देवी स्वरूप निखरना है, जिससे वह सर्वत्र सुख शाँति की स्वर्गीय वर्षा कर सके। अध्यात्म क्षेत्र की यह जिम्मेदारी है कि आने वाले वर्षों में नारी को जन नेतृत्व हेतु आगे बढ़ाएँ।


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