कलमी आदमी नहीं बन सकते!

December 1986

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मूर्धन्य वैज्ञानिकों में एक विशेष महत्वाकांक्षा इन दिनों इस दिशा में जगी है कि प्राणियों का रूपांतरण करके उन्हें अधिक उपयोगी बनायें। इस दिशा में वे एक प्राणी की कोशिकाएँ दूसरे शरीर में प्रविष्ट कराते और यह देखते हैं कि संकरत्व का कैसा प्रतिफल होता है। इस दिशा में उनने वनस्पति वर्ग पर अधिक सफलता पाई। वस्तुतः प्रयास वैज्ञानिक मेण्डल द्वारा सर्वप्रथम वनस्पति जगत में ही किये गए एवं एक पौधे में दूसरे की कलम लगाकर क्रास ब्रीडिंग कर तीसरी किस्म का बनाने में उन्हें सफलता मिली।

शाक भाजियों, फूलों और फलदार वृक्षों पर यह प्रयोग बहुत सफल हुए हैं। यहाँ तक कि एक ही पेड़ पर अलग-अलग प्रकार के फलों की कलमें सफलतापूर्वक लगा ली गयीं। वनस्पतिजन्य धान्यों की भी कई किस्में उत्पन्न की गई हैं। ये संकर प्रजातियाँ कहलाती हैं। इनके बीज भी बोये जाते हैं वे छोटी (ड्वार्फ) या बड़ी पौद भी लगाई जाती है।

चूंकि वनस्पतियों को भी उथले प्राणी वर्ग में ही गिना जाता है, अतः यह दुस्साहस किया गया कि सचेतन मन एवं बुद्धि वाले प्राणियों पर भी वह प्रयोग करके देखा जाये। इन प्रयासों में उतनी सफलता नहीं मिली जितनी कि उन्हें वनस्पतियों में मिली थी। प्राणियों में ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं, साथ ही अपनी पृथक जाति एवं रुचि भी। इनका संकरस्य अधिक सफल नहीं हो सका। विजातीय रज एवं वीर्य परस्पर सम्मिश्रित नहीं हो सकते। जर्सी गायें तो उन्हीं गायों के परिवर्धित संस्करण हैं। अपवाद एक ही सामने आया है। गधे और घोड़ी के सम्मिश्रण से खच्चर उत्पन्न हुआ। किन्तु खच्चरों के युग्म न बन सके। वे नपुंसक ही रहे। इसके विपरीत गधी के गर्भाशय में घोड़े का वीर्य भी फलित न हुआ। कुछ समय पूर्व चीन में एक मादा चिंपैंजी का गर्भाधान पुरुष के शुक्राणु से कराया गया था। उद्देश्य एक ही था- ऐसी प्रजाति उत्पन्न हो जिसमें शक्ति-पौरुष चिम्पैंजी का हो किन्तु बुद्धि मनुष्य की। ऐसे प्रयोग असफल ही रहे हैं। वस्तुतः सभी प्राणि गंध प्रधान होते हैं। यौनाचार क्रिया में उन्हें सजातीय ही स्वीकार होते हैं। उत्तेजना होने पर भी एक वर्ग दूसरे वर्ग के प्राणी के साथ कामाचार हेतु उद्यत नहीं होते। कारण कि एक की उत्तेजना दूसरे पक्ष को प्रभावित नहीं करती।

फिर भी बायो इंजीनियरिंग के इस क्षेत्र में वैज्ञानिक अभी हारे नहीं हैं। वे सोचते हैं कि आज नहीं तो कल वनस्पति स्तर के प्रयोग पशुओं में भी सफल होंगे। मुर्गे की कई प्रजातियाँ उत्पन्न की गयी हैं। इसी प्रकार क्षेत्र विशेष के सजातीय पशुओं का भी संकरत्व बन पड़ा है और उनके दुधारुपन श्रमशीलता एवं माँसलता में भी वृद्धि हुई है। इस हेरा-फेरी में भी मौलिक वर्ग वही रहा है। उस लक्ष्मण रेखा से हटकर कलम लगाने का प्रयोग एक प्रकार से कौतूहल बनकर ही रह गया है।

महत्व की बात मनुष्य से संबंधित है। प्रश्न रह-रह कर यही सामने आता है कि क्या मनुष्य में किसी अन्य प्राणी की या किसी अन्य प्राणी में मनुष्य की कलम लगाई जा सकेगी? शरीर संरचना की दृष्टि से बन्दर और मनुष्य आपस में मिलते जुलते हैं। चिंपैंजी, बनमानुष एवं गोरिल्ला भी बन्दर वर्ग के हैं। जैसा कि ऊपर कहा गया है। इनका मनुष्य के साथ प्रत्यावर्तन तो दूर, इन वानरों की भी मिश्रित प्रजातियाँ पैदा न की जा सकीं। कुत्ते और भेड़िये के सम्मिश्रण से बने वंशजों पर भी यही बात लागू होती है।

मनुष्यों में जलवायु के भेद से गोरी, काली, पीली जैसी कई नस्लें पाई जाती हैं। हड्डी की बनावट व शक्ल के हिसाब से भी कोई काकेशियन है, कोई मंगोलॉइड। पर वे मूलतः हैं सभी मनुष्य ही। इसलिए उनका संकरत्व चल जाता है। एग्लोइंडियन सरीखी जातियाँ माता-पिता के गुणों सम्मिश्रण लेकर भिन्नता लिए हुए विकास करने लगी हैं। नर व नारी में से जिसकी प्रौढ़ता परिपक्वता अधिक होती है, संतानों में उनकी विशेषता का अंश भी अधिक पाया जाता है। पर यह अन्तर आकृति में अधिक, प्रकृति में कम होता है। प्रकृति वातावरण या समाज के अनुरूप बनी है। यह प्रयास निराशाजनक ही रहा कि जाति गत संकरत्व से उनके गुणों में नवीनता उत्पन्न करके ऐसी पीढ़ी को जन्म दिया जाय जो उपयोगिता की दृष्टि से माता-पिता की तुलना में अधिक वरिष्ठ हो। कई बार तो उल्टा भी हुआ। संकरत्व से पैदा जाति पूर्वजों से भी घटिया निकली है।

प्रयोक्ताओं की चिन्ता यह है कि वर्तमान पीढ़ियों की तुलना में अगली पीढ़ियां अधिक समर्थ-बलशाली बनें। वे प्रतिभाशाली हों व सुन्दर भी। इसके लिए कभी माता को प्रमुख उत्पादक इकाई मानकर चलते हैं, तो कभी पिता के पौरुष को। इसी प्रयास में वे ऐसे जोड़ों के संयोग को महत्व देते हैं, जिनमें दोनों पक्ष विशेषताओं से भरे हों। पर बहुत खोजने पर भी मुट्ठी भर जोड़े ही ऐसे मिल सकते हैं। फिर उनका स्वास्थ्य भी समिति उत्पादन की क्षमता वाला होता है। उतने भर से विश्वभर के लिए व्यापक परिमाण में अभीष्ट स्तर के व्यक्ति नहीं पैदा हो सकते, न ही इस बात की कोई गारण्टी दी जा सकती है कि आगामी पीढ़ियां वातावरण से अप्रभावित रहकर अपनी श्रेष्ठता बनाये रखेंगी।

इस संदर्भ में अधिक माथा पच्ची करने से पूर्व वनस्पतियों और प्राणियों की मौलिक संरचना पर ध्यान देना चाहिए। वनस्पतियाँ शरीर मात्र हैं। उनमें यौनाचार नहीं है। बीज या गाँठ से वे अपना वंश चलाती व बढ़ाती रहती हैं। किन्तु प्राणियों में चेतना की अतिरिक्त मात्रा है, साथ ही कामुकता की संवेदना का एक विशेष स्तर भी। यह भी नर-मादा के उत्पादन उभार से संबंधित है। यह स्थिति संतुलित न हो तो मनुष्य या अन्य प्राणी नपुंसक कहलाएँगे। वृद्धावस्था में हारमोन्स के स्तर में परिवर्तन से उफान ठण्डा हो जाता है और संतानोत्पादन की क्षमता होते हुए भी वैसा बन नहीं पड़ता। वनस्पतियों के बारे में यह बात नहीं। गर्मी की सूखी घास वर्षा आते ही फिर हरियाने लगती है, जबकि प्राणी एक बार नष्ट होने पर दुबारा नहीं जीवित होते।


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