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December 1986

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“कोई चमत्कार दिखाइये तो जानूँ कि संसार में सचमुच आत्मा और परमात्मा नाम की कोई वस्तु है।” एक सज्जन ने महर्षि रमण से प्रश्न किया। महर्षि शाँत हो गये और गम्भीर विचार की मुद्रा में बोले- तात! अनन्त काल से सूरज आ जा रहा है, मर मरकर जी रहा है, तारागण चमक रहे हैं इस विराट् से बड़ा और चमत्कार क्या हो सकता है। जिज्ञासु की शंका का समाधान हो गया, उन्होंने अनुभव किया जीवन का प्रादुर्भाव ही ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट रचना है।

सबसे बड़ी कमजोरी अपने में यह पाई जाती है कि हम आत्मावलोकन नहीं कर पाते। अपने को हर स्थिति में निर्दोष मानते हैं और दूसरों की कमियों को बढ़ा चढ़ा कर देखते हैं। किन्तु इतने पर भी यह संभव नहीं कि दूसरों को अपनी इच्छानुसार बदल या ढाल सकें।

सड़क में गड्ढे हों तो शॉक एब्जार्बर्स एवं कमानी वाली गाड़ी उस पर चलने पर झटके नहीं अनुभव होने देती। पैरों में जूते हों तो कंटीले, पथरीले पथ पर भी आसानी से चला जा सकता है। संसार का प्रवाह-प्रचलन बदलना कठिन है पर हम अपनी रीति-नीति और आदतें तो आसानी से बदल सकते हैं। इससे पूर्व आवश्यकता इस बात की है कि आत्म समीक्षा की बुद्धि विकसित हो। हम अपने गुण, कर्म और स्वभाव का पर्यवेक्षण करें एवं जो अनुपयुक्त है, उसे सुधारें। जिन सद्गुणों की कमी हो, उन्हें बढ़ायें। आत्मसमीक्षा का सबसे सही तरीका यही है कि अपनी दुष्प्रवृत्तियों को खोज-खोज कर बुहारते चलें एवं सज्जनता में जितनी कमी है, उसे पूरी करते चलें। आलस्य और प्रमाद से बचना, अपने को नियमित, संयमित एवं मृदुल बनाना, ऐसा उपचार है, जिसे अपनाकर अपने को सही अर्थों में प्रगतिशील और समुन्नत बनाया जा सकता है।

आत्मबोध की एक ऊँची कक्षा भी है, जिसमें अपने को ईश्वर का युवराज मानते हुए उसके विश्व उद्यान को सींचने-समुन्नत करने में दायित्व रहने का दायित्व कंधों पर आता है। अपनी अपूर्णताओं को दूर करने के लिए सेवा धर्म अपनाना पड़ता है। सभी आध्यात्मिक कृत्यों में कुछ न कुछ कर्मकाण्ड जुड़ा रहता है। आत्मशोधन और लोकमंगल यह दो कार्य ऐसे हैं जिन्हें सरलतम, श्रेष्ठतम साधन-विधान समझा जा सकता है। जप-ध्यान से, पूजा-अर्चा से तो मात्र आत्मशुद्धि का प्रयोजन ही आँशिक रूप से सधता है, किन्तु परमार्थ पारायणता का- सेवा साधना का- उपचार ऐसा है जिसके सहारे व्यक्ति अनायास ही सद्गुणी और परमार्थी बनता जाता है। यह आत्मिक प्रगति की ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें आत्मशोधन के अतिरिक्त लोक कल्याण भी जुड़ा हुआ है और अपना ही नहीं, सभी का भला होता है।

आत्म ज्ञान की उच्च भूमिका में अपने को ईश्वर का अंश मानने का निर्देशन है। ईश्वर सत्प्रवृत्तियों का, श्रेष्ठता का समुच्चय है। अंशी और अंशधर में समानता होनी चाहिए। आग के साथ सट जाने वाला ईंधन अग्निवत् ज्वलन्त हो जाता है। अपने को ईश्वर मानने की कल्पना करते रहने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। बात तब बनती है, जब मान्यता को व्यवहार में उतारा जाय। जो अपने को ईश्वर का अंश या ज्येष्ठ पुत्र मानेगा, वह उसे कल्पना की उड़ान तक सीमित न रखकर उसे कार्यान्वित भी करेगा। इस कर्तृत्व में दो बातों का समावेश होता है। एक यह कि अपने कायकलेवर व मस्तिष्क को देवालय के रूप में विनिर्मित किया जाय, जिसमें चिन्तन, चरित्र और व्यवहार की उत्कृष्टता के रूप में प्रतिष्ठित देखी जा सके और व्यक्तित्व में देवोपम सत्प्रवृत्तियों का समावेश हो।


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