सन्त इमर्सन के वैदिक विचार

December 1986

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अधिकाँश व्यक्ति संभवतः यह नहीं जानते कि प्रसिद्ध अमेरिकी अंतर्ज्ञान एवं प्राच्यविद्या विशारद राल्फवाडो इमर्सन पूर्वार्त्त दर्शन, वेद-उपनिषद् एवं गीता के प्रकाण्ड विद्वान थे। उनके लेखन में इन प्रतिपादनों की झलक मिलती है। उनका मत था कि आर्ष ग्रन्थों में विवेक एवं दर्शन का खजाना है।

वे सृष्टि की एक नियामक सत्ता को मानते थे, तथा उसे परब्रह्म- परमात्मा कहते थे। आत्मसत्ता पर विश्वास व्यक्त करने वाला उनका दर्शन ठीक वेदान्त पर आधारित था। इसे उन्होंने रिव्रस्तीय प्रतिपादनों के आधार पर बाइबिल के उदाहरणों से समझाने का प्रयास किया क्योंकि उनके पाठक मूलतः ईसाई ही थे। इमर्सन कहते थे कि ‘परमात्मा बिना सूचना दिए अथवा प्रकट हुए जीवात्मा की सतत् सहायता करता रहता है। दोनों के बीच कोई परदा या दीवार नहीं है जो इनके मिलन में बाधक बन सके।’ ईश्वर को उन्होंने अनादि, अनन्त माना एवं माया के दर्शन को ‘ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या’ सिद्धान्त पर जन सामान्य को समझाया।

इमर्सन मानते थे कि जीवन, जवानी, बुढ़ापा, धन-वैभव, प्राणी सब में उस परमसत्ता का माया रूप संव्याप्त है। मानव जीवन को कमल पत्र पर पानी के एक बूँद की तरह विराजमान मानते हुए उन्होंने आद्य शंकराचार्य के प्रतिपादन की ही व्याख्या की। वे भाग्य के सिद्धान्त को मानते थे और पुरुषार्थवाद पर उन्होंने डटकर लिखा है। उनका मत था कि “हर प्राणी को अपने पूर्वजन्मों के कर्मों को भोगने के लिए बार-बार असंख्यों रूपों में जन्म लेना पड़ता है। जो जैसा करता है, वैसा पाता है। जो वैसा बोता है, वैसा काटता है।” ये मान्यताएँ कर्मफल के सिद्धान्त की पुष्टि करती एवं पुनर्जन्म का भी सत्यापन करती हैं।

इमर्सन अपने प्रतिपादनों में विभिन्न उदाहरणों से यह प्रतिपादित करते थे कि “कर्मफल वस्तुतः मनुष्य द्वारा समष्टि में समायी परमात्म सत्ता के साथ किए गए व्यवहार की ही प्रतिक्रिया है। कर्म और फल छाया की तरह मनुष्य के साथ लगे रहते हैं। मनुष्य अपने पापों को प्रार्थना व प्रायश्चित से समूल नष्ट तो नहीं कर सकता, हाँ प्रायश्चित के बाद उसका व्यवहार यदि मानवोचित है तो प्रतिफल उतना तीव्र नहीं होता, थोड़ा-सा कष्ट देकर निकल जाता है।” जितने भी प्रकार के मनोविकार एवं मनोशारीरिक रोग हैं, उन्हें वे कर्मों की प्रतिक्रिया ही मानते थे एवं तद्नुसार ही चिकित्सा किए जाने का निर्देश देते थे।

इमर्सन ने अपने ग्रन्थ “स्वेडनबर्ग” में माया, कर्मफल एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्तों को हिन्दू दर्शन की पृष्ठभूमि पर समझाने का प्रयास किया है। वे लिखते है” कि जीवात्मा को हजारों बार जन्म लेना पड़ता है, जब तक कि वह अपने सभी दुष्कृतों से मुक्ति नहीं पा लेता। किन्हीं-किन्हीं को प्रयास करने पर अथवा अध्यात्म उपचारों द्वारा अथवा अनायास ही पूर्वजन्मों की स्मृति भी बनी रहती है, पर सृष्टा ने हर जन्म के बाद भूलने का ही सिद्धान्त बनाया है। पुनर्जन्म के प्रसंग मात्र पौराणिक निरर्थक नहीं, वरन् यथार्थ हैं।” रव्रीस्त भौतिकवादियों के खडण्नात्मक प्रतिपादनों को उन्होंने जगह-जगह काटा है।

अपने सभी ग्रन्थों में वे पाप और बुराई को अज्ञान का परिणाम बताते हुए लिखते हैं कि “ये भव बन्धन है जो मुक्ति के मार्ग में बाधक होते हैं। यदि परमात्मा का सच्चा प्यार चाहते हो तो उसे अच्छाइयों के समुच्चय, उत्कृष्टता की प्रतिमूर्ति के रूप में समझो एवं अपना व्यवहार वैसा बनाओ जैसा कि वह तुम से अपेक्षा रखता है। वैभव की प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ बुरा नहीं है, पर जब उसके लिए गलत तरीके अपनाए जाते हैं तो उस परमसत्ता का रोष विभिन्न प्रकार के दुर्व्यसनों, मानसिक संत्रास एवं विक्षोभों के रूप में प्रकट होता है।”

इन सभी प्रसंगों को पढ़ने पर लगता है कि विश्वमनीषा एक ही स्तर पर सोचती एवं अपनी अभिव्यक्ति करती है। इमर्सन ने प्रकारांतर से वैदिक वाणी को ही अपने शब्दों में प्रतिपादित किया है।


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