अंगकोरवाट जिसे अंधविश्वास व पलायन ले डूबा

December 1986

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वे फ्राँसीसी साम्राज्यवादियों के दिन थे। उनने अपनी सेना और सामर्थ्य भरपूर बढ़ाई। पूर्व के राष्ट्र उन्हें बेधने में सरल और प्रतिरोध रहित लगे, इसलिए अपना साम्राज्य उन्होंने उसी दिशा में बढ़ाया। वे अपने देश से लेकर इण्डोनेशिया द्वीप-समूह तक बढ़ते ही चले गये। इसमें उन्हें नाम मात्र की क्षति उठानी पड़ी। लूट में मिले माल से उनने न केवल आक्रमणों का खर्च निकाला, वरन् आक्रान्त देशों की सम्पन्नता और प्रकृति सम्पदा को बड़ी मात्रा में खीचते रहे। यह शोषण और आधिपत्य शताब्दियों तक चला।

इसी बीच प्रकृति सम्पदा का सर्वेक्षण करते हुए फ्राँसीसी सैनिक एक ऐसे घने जंगल में जा पहुँचे जिसमें देवताओं द्वारा बनाया गया एक नगर खोज निकाला। उसका विस्तार, शिल्प-सौंदर्य हर दृष्टि से भव्य था। पर उसे कंटीली झाड़ियों और जंगली पेड़ों ने अपने अधिकार में कर लिया था। सघनता इतनी थी कि पास-पड़ौस के देशवासियों तक को उसके सम्बन्ध में कोई जानकारी तक न थी।

फ्राँसीसियों ने सन 1860 में इसे खोजा और प्रकृति विज्ञानी हेनरी लेकाम्ते के तत्वावधान में साफ सुथरा बनाया। झाड़ियों को काटा, कचरे को हटाया और टूट-फूट को ठीक कराया। जब वह निखरा तो प्रतीत हुआ कि वह खण्डहर अर्ध जीवित स्थिति में मौजूद था। जितना टूटा फूटा था उससे अधिक वह प्रौढ़ स्थिति में इस प्रकार स्थिर था, मानों अभी हजारों वर्ष जीवित रहने के अरमान उसके मन में हैं। राजप्रसाद एवं दिवंगत शासकों के स्मारक तो भव्य थे ही। 10 लाख लोगों के अच्छी स्थिति में रह सकने योग्य अच्छे खासे मकान उस क्षेत्र में बने हुए थे। इर्द-गिर्द का इलाका खोजने पर पता चला कि वहाँ कभी मीठे पानी की नहरें बहती थीं। सिंचाई के अच्छे खासे साधन थे और वहाँ के किसान बढ़िया चावल की तीन-तीन फसलें साल भर में काटते थे। बड़े तालाबों में मछलियाँ पाली और पकड़ी जाती थीं। इस प्रकार उस क्षेत्र में खाद्य का अभाव न था। कारीगरों की भी कमी न थीं। उस प्रदेश में प्रायः सभी जगह बौद्ध संस्कृति छाई हुई थी। ऐसी बौद्ध संस्कृति जिस पर कि दैववाद और ब्राह्मणवाद की भी गहरी छाप थी।

इस प्रभु सत्ता सम्पन्न क्षेत्र के खण्डहरों की बनावट में वे सारे साधन थे जो किसी प्रभु सत्ता सम्पन्न राज्य में होने चाहिए। लगता है भवन निर्माण कला का उन दिनों तक अच्छा विकास हो चुका था। उस राज्य के शासकों ने दूर-दूर से कलाकार इस भव्य संरचना के लिए बुलाये होंगे अथवा अपने शिल्पियों को किन्हीं विकसित सभ्यता वाले देशों में भेजकर प्रशिक्षित कराया होगा। पत्थर, लकड़ी और ताँबे जैसी धातुओं पर अंकित वस्तु शिल्प ऐसा है, जिसे देखकर आश्चर्यचकित ही रह जाना पड़ता है।

जिनने भी इस पुरातन सभ्यता की नई खोज का पता पाया वे सभी उसे देखने दौड़ पड़े। पर आश्चर्य एक बात पर ही करते रहे कि इतना सुविधा सम्पन्न साम्राज्य आबादी से पूर्णतया खाली कैसे हो गया? आक्रमणकारियों की तोड़ फोड़ कत्ले-आम, लूट, महामारी जैसे कोई ऐसे चिन्ह भी नहीं पाये गये, जो आतंक बनकर आये हों और उस क्षेत्र के शासकों और जन साधारण को वह क्षेत्र खाली कर देने के लिए विवश किये हों।

पुरातत्त्ववेत्ताओं ने वहाँ उपलब्ध वस्तुओं के सहारे यह धारणा निश्चित की है कि वहाँ पुरातन काल में एक सुविकसित सभ्यता थी, जिसे “खमेर सभ्यता” कहा जाता था। उसके सदस्य मंगोलियन नस्ल के थे।

कहा जाता है कि यह हिन्द-चीन, इन्डोचाइना के नाम से जाना जाने वाला क्षेत्र भारतीय और चीनी नस्ल के सम्मिश्रण से बना था। भारत से कौडिन्य नामक प्रतापी धर्मोपदेशक वहाँ गये थे। उनने अपनी विद्वता सुन्दरता और कुशलता से वहाँ की रानी को मोह लिया और दोनों का विवाह हो गया। यह हिन्द और चीन का सम्मिश्रण हर क्षेत्र पर छा गया और समीपवर्ती छोटे बड़े देशों में भी वह लहर संव्याप्त हो गई। भारत और चीन के संगम का यह क्षेत्र साक्षी है। बर्मा से लेकर इन्डोनेशिया तक भारतीय सभ्यता की गहरी छाप पायी जाती है। आकृति और प्रकृति में भी चीनीपन भी विद्यमान है।

दक्षिण पूर्व एशिया पर खमेर जाति ने प्रायः 500 वर्ष की लम्बी अवधि तक अपना आधिपत्य जमाये रखा और प्रगतिशीलता के हर क्षेत्र में आशातीत पराक्रम कर दिखाया। खमेर लोग ही थे जिन्होंने उस समूचे क्षेत्र में नया उत्साह जगाया और समृद्धि का भण्डार भरा। उनकी राजधानी अथवा सूत्र संचालक सत्ता वही थी, जिसे “अंगकोरवाट” या “अंकोर” के नाम से जाना जाता है और जहाँ मूलनिवासियों में से एक भी दृष्टिगोचर नहीं होता। यह संसार का अनुपम ध्वंसावशेष है। इसमें देखने और जानने योग्य बहुत कुछ है। समयानुसार फ्रांसीसी अपने देश लोटने के लिए विवश हो गये, पर उन्होंने उस ध्वंसावशेष को जिस प्रकार खोजा और संजोया, उसका स्मरण सदा किया जाता रहेगा।

इस दर्शनीय स्थान की अब राष्ट्रसंघ के कला विभाग द्वारा देख-रेख होती है और पर्यटकों के लिए सप्ताह में दो दिन एक छोटे विमान की उड़ान होती है। सुरक्षा की दृष्टि से समीपवर्ती क्षेत्र में जन जातियों के कुछ लोगों को वहाँ बसा भी दिया गया है।

इसे देखने वाले हर व्यक्ति के मन में यह उत्कंठा बार-बार उठती है कि ऐसा भव्य क्षेत्र सर्वथा जन-शून्य कैसे हो गया? इतिहास की कड़ियाँ जोड़ने वालों ने उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर कहा है कि अंगकोर का अन्तिम शासक यशोवर्मन विलासिता में डूबा तो प्रजा की देखभाल और सुविधाओं में कमी पड़ी। विद्रोह को दबाने के लिए उसने अपने आपको शिव का अवतार कहना शुरू किया और अपने एजेन्टों द्वारा जनता के मन में यह छाप गहराई तब बिठाई ताकि श्रद्धा के वशीभूत होकर कोई उसकी आलोचना न करे, उंगली न उठायें और जैसे भी रखा जा रहा है उसी प्रकार रहें।

जनता तो मान गई पर इस कमजोरी को भांप कर दूरवर्ती आक्रामक कबीले चढ़ दौड़ने के लिए आतुर हो उठे। उनके कई हमले हुए। जिनमें राजा हर बार हारा और प्रजा को बार-बार लुटना पड़ा।

इसी बीच जनता के मन में यह विचार फैलाया गया कि कोई शक्तिशाली दैत्य ऐसा प्रकटा है जिसके आगे शिव जी का भी कुछ वश नहीं चलता। राजा बचे-खूचे वैभव को लेकर किसी अविज्ञात सुरक्षित स्थान को चला गया। प्रजा अनाथ रह गई। उसका मनोबल टूट गया। पुनः संगठित होकर आक्रमणकारियों से जूझने और अपना अस्तित्व बचाने के स्थान पर हर नागरिक को यही सुझाया कि जो रास्ता उनके आराध्य ने अपनाया है वही उनके लिए भी श्रेयस्कर है। भगदड़ मची और जिसने जहाँ सोचा समझा वह वहाँ भाग गया। इस बिखराव में खमेर सभ्यता का भी अस्तित्व न रहा। वे भगोड़े जहाँ भी बसे वहाँ की प्रथा परम्परा में घुल गये।

इस प्रकार मनोबल का टूट जाना एवं अन्ध विश्वास का दलदल खमेर जाति को खा गया और सुविकसित अंगकोरवाट मात्र दर्शकों का कौतूहल-खण्डहर बनकर रह गया। यह खण्डहर साक्षात प्रमाण है कि अंधविश्वास किस तरह एक सुविकसित सभ्यता को नष्ट कर देता है।


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