दिव्य ज्योति दर्शन की ध्यान धारणा

December 1986

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गायत्री माता को “सूर्य मण्डल मध्यस्था” सूर्य मण्डल के मध्य में विराजमान कहा गया है। इस महामन्त्र के विनियोग में गायत्री छंद- विश्वामित्र ऋषि एवं सविता देवता का उल्लेख है। प्रातःकालीन स्वर्णिम सूर्य को सविता कहा गया है। वस्तुतः यह ज्ञान स्वरूप परमात्मा का नाम है। अग्नि पिण्ड सूर्य तो उसकी स्थूल प्रतिमा भर है। ईश्वर की स्वयंभू प्रतिमा सूर्य को कहा गया है। ॐ उसका स्वोच्चारित नाम है।

सूर्य को प्रकाश और तेज का प्रतीक माना गया है। चेतना क्षेत्र में इस ज्ञान को प्रकाश कहा गया है। लेटेन्ट लाइट, डिवाइन लाइट, ब्रह्मज्योति आदि शब्दों में मानवी सत्ता में दैवी अवतरण के प्रकाश के उदय की संज्ञा दी गई है। सूर्य का ध्यान करते समय साधक की भावना रहती है कि सविता देव से निस्सृत दिव्य किरणें मेरे कायकलेवर में प्रवेश करती हैं। फलस्वरूप स्थूल शरीर में बल, सूक्ष्म शरीर में ज्ञान और कारण शरीर में श्रद्धा का संचार करती हैं। तीनों शरीर इन अनुदानों सहित अवतरित होने वाले प्रकाश से परिपूर्ण होते चले जाते हैं। यह संकल्प जितना गहरा होता है, उसी अनुपात से चेतना में उपरोक्त विविध विशेषताएं विभूतियाँ उभरती चली जाती हैं। इस प्रकार यह ध्यान आत्म-सत्ता के बहिरंग एवं अन्तरंग पक्ष को विकसित करने में असाधारण रूप से सहायक सिद्ध होता है।

प्रकाश ध्यान का आरम्भ सूर्य को पूर्व दिशा में उदय होते हुए परिकल्पित करने की भावना से होता है। उसकी किरणें अपने काय-कलेवर में प्रवेश करती हैं और तीनों शरीरों को असाधारण रूप से सशक्त बनाती हैं। स्थूल शरीर को अग्निपुंज, अग्निपिण्ड-सूक्ष्म शरीर को प्रकाशमय, ज्योतिर्मय, कारण शरीर को दीप्तिमय, कान्तिमय, आभामय बनाती हैं। समूची जीवन सत्ता ज्योतिर्मय हो उठती है। इस स्थिति में स्थूल शरीर को ओजस्, सूक्ष्म को तेजस् और कारण शरीर को वर्चस् के अनुदान उपलब्ध होते हैं। इस ध्यान धारणा का चमत्कारी प्रतिफल साधक को शीघ्र ही दृष्टिगोचर होने लगता है। स्थूल शरीर में उत्साह एवं स्फूर्ति, सूक्ष्म शरीर में संतुलन एवं विवेक, कारण शरीर में श्रद्धा एवं भक्ति का दिव्य संचार इस प्रकाश ध्यान के सहारे उठता, उभरता दीखता है। मोटी दृष्टि से यह लाभ सामान्य प्रतीत हो सकते हैं। किन्तु जब इस अन्तःविकास की प्रतिक्रिया सामने प्रस्तुत होगी तो प्रतीत होगा कि यह सामान्य साधना कितना असामान्य प्रभाव परिणाम उपलब्ध कराती है।

सूर्य के प्रकाश ध्यान का प्रथम चरण बाहर के सूर्य की दिव्य किरणों का प्रवेश आत्मसत्ता में कराने का है। दूसरा चरण अन्तः सूर्य की मान्यता परिपुष्ट करके उसका प्रकाश बाह्य जगत में फैलाने का है। इस अपने अनुदान विश्व मानव के लिए प्रेरित करने की प्रक्रिया कह सकते हैं। प्रथम चरण को संग्रह और दूसरे को विसर्जन कह सकते हैं। द्वितीय चरण की अंतःक्षेत्र में सूर्योदय होने की मान्यता है। स्थूल शरीर का मध्य केन्द्र- नाभिचक्र, सूक्ष्म शरीर का आभाचक्र और कारण शरीर का हृदयचक्र है। इनमें से किस साधक को किस केन्द्र पर ब्रह्म चेतना के प्रतीक सविता देव के उदय की भावना करनी चाहिए। इसका निर्धारण अपनी व्यक्तिगत स्थिति का सूक्ष्म पर्यवेक्षण करते हुए करना होता है।

अन्तः सूर्य की धारणा परिपक्व होने पर उसका प्रकाश निकटवर्ती क्षेत्र को प्रकाशित करता ही है, साथ ही उसका प्रभाव बाह्य जगत में भी फैलता है, इससे वातावरण में किन्हीं सामयिक सत्प्रेरणाओं को सुविस्तृत किया जा सकता है। मनुष्य के किसी वर्ग विशेष को उपयोगी प्रेरणाओं से प्रभावित किया जा सकता है। किसी व्यक्ति विशेष के अभावों की पूर्ति भी इस आधार पर की जा सकती है। मनुष्येत्तर प्राणियों पर भी इसका प्रभाव पड़ सकता है। इसी प्रकार वनस्पति जगत-पदार्थ सम्पदा की स्थिति में सुधार करने के लिए भी अन्तः सूर्य की क्षमता का परिपोषण होना सम्भव है। यह कितना प्रभाव उत्पन्न कर सकेगा, यह इस पर निर्भर है कि साधक का संयम बल, मनोबल और श्रद्धाबल किस स्तर का है। यह समर्थता साधना की प्रखरता और व्यक्तित्व की उत्कृष्टता पर निर्भर रहती है।

ध्यानयोग में ज्योति दर्शन की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं:-

नत्तेजो दृश्यते येन क्षणमात्रं निराकुलम्।

सर्वपाप विनिर्मुक्तः स याति परमां गतिम्॥

-शिव संहिता

भावार्थ:- आत्मा का यह परमतेज जो पुरुष चिर स्थित होकर क्षण मात्र भी देखता है वह सब पाप से मुक्त होकर परमगति को प्राप्त होता है।

ज्योतिः पश्यति योगीन्द्रः शुद्धं शुद्धा चलोपमम्। तत्राभ्यास बलेनैव स्वयं तद्रक्षको भवेत्॥

-शिव संहिता

ज्योति का ध्यान करने वाले साधक की ज्योति जब अचल हो जाती है तब वह साधना ही अपने बल से साधक की रक्षा करती है।

ध्यानयोग में ज्योति दर्शन के भेद उपभेद समझाते हुए शास्त्रकार कहते हैं:-

स्थूलं ज्योतिस्तथासूक्ष्मं ध्यानस्यत्रिविधं बिंदु।

स्थूलं मूर्तिमयं प्रोक्तं ज्योतिस्तेजो मयं तथा।

सूक्ष्म बिन्दुमयं ब्रह्म कुंडलनी पर देवता॥

-घेरण्ड संहिता 6/1

ध्यान तीन प्रकार का होता है- स्थूलध्यान, ज्योतिर्ध्यान एवं सूक्ष्मध्यान जिसमें मूर्ति, इष्ट देवता अथवा गुरु का चिन्तन हो उसे स्थूल और जिसमें तेजोमय ब्रह्म या शक्ति की भावना हो उसे ज्योतिर्ध्यान कहते हैं। जिस ध्यान के द्वारा बिन्दुमय ब्रह्म कुण्डलिनी शक्ति का ध्यान हो उसे सूक्ष्म ध्यान कहते हैं।

गायत्री महाशक्ति की आरम्भिक साधना में माता के रूप में साकार उपासना की आवश्यकता पड़ती है, किन्तु उच्चस्तरीय साधना के लिए प्रकाश ध्यान को ही अपनाना पड़ता है। गायत्री की उच्चभूमिका सवितामय बन जाती है। गायत्री का प्राण प्रकाश पुंज सविता देवता ही है, अस्तु समुन्नत भूमिका के साधक प्रकाश के ध्यान का ही अवलम्बन करते हैं। विभिन्न प्रसंगों में श्रुति यही कहती आयी है। ताण्ड्योपनिषद (10/5/3) कहता है- “तेजसा वे गायत्री एवं ज्योतिर्वे गायत्री छन्दसाम्” (13/7/2) यजुर्वेद कहता है- “सविता वे प्रसकानामीशे अर्थात् सबको उत्पन्न करने वाला परमेश्वर सविता है।” छांदोग्योपनिषद् में ऋषि कहते हैं-

य एष आदित्ये पुरुषोदृश्यते सोहमस्मि स एवाहम स्मीति॥

अर्थात् “आदित्य-मण्डल में जो पुरुष देखा जाता है वह मैं हूं। उसे अपना ही स्वरूप समझना चाहिए” शास्त्रकार आगे कहते हैं-

आदित्य मण्डल ध्याये त्परमात्मा नमव्ययम् शौनक स्मृति।

आदित्य मण्डल में अव्यय परमात्मा का ध्यान करना चाहिए।

सविता सूर्व भूतानां सर्वभावांश्च सूयते।

सर्वनात्प्रेरणाच्चैव सविता तेन चोच्यते॥

अर्थात्- “समस्त सत्वों, सभी प्राणियों और समस्त भावनाओं को प्रेरणा देने के कारण ही उसे सविता कहते हैं”।

यो देवः सवितास्माकंधियो धर्मादि कर्मणि।

प्रेरयेत्तस्य तर्द्गस्तद्वरेण्यमुपस्यहे॥

अर्थात्- जो सविता देवता हमें धर्म एवं कर्तव्य की प्रेरणा करता है। उसके वरेण्य भर्ग की हम उपासना करें।

प्रत्यक्ष अग्नि सूर्य भी प्राण-चेतना का प्रतीक है। अस्तु उसका संपर्क सान्निध्य भी साधक में प्राण संचार करता है। यह प्राण प्रतिभा भी आत्मिक प्रगति के लिए कम महत्वपूर्ण नहीं है। प्राणाग्नि उपलब्ध करने के लिए भी सूर्योपासना की उपयोगिता है। इस तथ्य का प्रतिपादन इस प्रकार शास्त्रों में उपलब्ध होता है।

प्राणः प्रजानामुदयत्मेष सूर्यः

-प्रश्नोपनिषद्

प्रजा के लिए प्राण बनकर सूर्य उदय होता है।

समृता को परब्रह्म का प्रतीक माना गया है। शत पथ ब्राह्मण को श्रुति है-

आदित्ये ब्रह्म इति आर्दशः

आदित्य ब्रह्म ही है। वह परंपरागत तथ्य है।

सूर्य को आत्मा और परमात्मा का सम्मिश्रण भी कहा गया है-

यो असौ आदित्य पुरुषः सो असौ अहम्।

-यजु

जो इस सूर्य मण्डल में जो पुरुष है वह मेरी ही आत्मा है।

इसी कारण ऋग्वेद में ध्यान के लिए प्रातःकाल के उदीयमान सूर्य को सर्वोत्तम माध्यम माना गया है। “अथ आदित्य उदयन प्राची दिशां सर्वान् प्राणान् रश्मिसु सन्निधते” मन्त्र में प्रातःकाल के उदीयमान सूर्य की किरणों को प्राण वर्षा करने वाली कहा गया है। आत्मसत्ता में प्राण तत्व का आकर्षण अभिवर्धन करने के लिए इस ध्यान प्रक्रिया का विशेष महत्व है।

उपासना में मध्यकालीन प्रौढ़ सूर्य को नहीं प्रभात कालीन स्वर्णिम सूर्य को ही उपयुक्त माना गया है। भावना संज्ञा उसी की है। ध्यान में स्वर्ण कान्ति वाले नवोदित सविता का ध्यान करने का ही निर्देश है। इसकी फलश्रुतिओं का साधक को शीघ्र ही अनुभव होने लगता है।

प्रकाश ज्योति की साधना करने वाले साधक को कई प्रकार की कई आकृतियों की कई रंगों की ज्योतियों के दर्शन होते हैं। यह भ्रान्तियाँ नहीं हैं वरन् सूक्ष्म लोक की विशेष धाराएँ हैं। जिस प्रकार नादयोग में कई प्रकार की ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं और उन सब के पीछे कुछ दिव्य संकेत संदेश होते हैं। इसी प्रकार बिन्दुयोग साधना के अंतर्गत किये जाने वाली सविता देव की प्रकाश ज्योति की ध्यान धारणा में भी कई रंगों के प्रकाशों का दर्शन होना भी दिव्य अनुभूतियों की श्रेणी में ही गिना जायगा।

ध्यानयोग के लिए आश्रय किसी भी प्रतीक के अथवा परमात्मा के दिव्य विराट् रूप के चिन्तन रूप में लिया जा सकता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन गुणों का ध्यान किया जा रहा है वे साधक को कितना अनुप्राणित कर पाए, उसके जीवन में किस सीमा तक उतरे। ध्यान से सिद्धि बाद की बात है, पहले सविता के ध्यान द्वारा प्राण शक्ति के अपने अन्दर होने की धारणा की जाय वही उत्तम है।


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