ऋषि प्रणीत ग्रन्थों में न सिर्फ ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न धाराओं का समावेश मिलता है, वरन् उदात्त जीवन और आध्यात्मिक दृष्टिकोण के उच्च मानवी मूल्यों का निर्धारण भी वे करते हैं। इनमें एक ऐसे सार्वकालिक-सार्वदेशिक शाश्वत सत्य का प्रतिपादन मिलता है, जो सदा से मनुष्य का मार्गदर्शन करता आया है, किन्तु जब से हमने उस ओर उपेक्षापूर्ण दृष्टि अपनायी है, एक ऐसे युग का सूत्रपात हुआ है जिसमें मानवी आदर्श और नैतिक मूल्यों का सर्वथा अभाव ही दीखता है एवं उसकी जगह सर्वत्र अनैतिकता व छल-प्रपंच का ही बोलबाला है। यदि इस महामारी का कोई उपयुक्त उपचार नहीं हुआ, तो समस्त मानव जाति ही इसकी चपेट में आ सकती है, और युग-युगों से संजोयी अपनी सभ्यता-संस्कृति को खोकर विस्मृति के गहरे विवर में विलीन हो जायेगी।
ऐसी दशा में आशा की किरण हमें ऋषियों के कर्तव्य और व्यक्तित्व से मिलती है, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे आर्ष ग्रन्थ हैं, अस्तु फिर से हमें उस आप्त वचनों का स्मरण करना पड़ेगा, जो क्षुद्र स्वार्थपरता से ऊपर उठ कर धर्म-धारणा के अवधारण की प्रेरणा ही नहीं देते, अपितु विशाल दृष्टिकोण के अवलम्बन का पक्ष भी प्रस्तुत करते हैं।
श्रुति कहती है- “ध्रुवां भूमिं पृथ्वीं धर्मणा धृतामृ” अर्थात्, यह ध्रुव भूमि, यह पृथ्वी धर्म द्वारा धारण की गई है। यह सही भी है। जब तक धर्माचरण का अनुसरण यहाँ होता रहा, यह पृथ्वी प्रत्यक्ष स्वर्ग की उपस्थिति का एहसास कराती रही, किन्तु इससे विमुख होकर मनुष्यों ने न सिर्फ स्वयं को असुर तुल्य बना लिया, वरन् पृथ्वी पर भी भार बन बैठे। यह भार धर्म द्वारा ही कम हो सकता है। धर्म का अवलम्बन मनुष्य को श्रेष्ठ ही नहीं बनाता, अपितु वह सुख भी प्रदान करता है, जो आज सर्वत्र अनुपलभ्य है। इसी को अपनाये जाने की प्रेरणा देते हुए शास्त्रकार कहते हैं- “सृगां ऋतस्य पन्थाः” अर्थात् धर्म का मार्ग धारण योग्य है, यह सुखमय है, किन्तु यह स्थिति बोध कैसे हो? यह सुख कैसे मिले? इसका भी वेद में समाधान है। ऋषि कहते हैं- “समानो मंत्र समिति समानो समानं मनः सहचितमेषाम् समानो व आकूतिः समाना हृदयानिवः समानमस्तु वो मनोयधावः सुसहासति”, अर्थात् हम सब की मंत्रणा में, समितियों में, विचारों में समानता हो, दुर्भावना और वैषम्य न रहे, अभिप्रायों में, हृदयों व मनों में समता-एकता का भाव हो। स्पष्ट है, मनुष्य में जब ये भाव जगेंगे, तो उसका देवत्व उसकी क्षुद्रता को उखाड़ फेंकेगा, तभी उसे सच्चे सुख-शान्ति की प्राप्ति हो सकेगी।
लोक कल्याण की इस नैतिक वांछनीयता के साथ ही ऋषियों ने शोषण-वृत्ति और मत्स्य न्याय जैसे अवाँछनीय तत्वों की कटु आलोचना की है। जरूरतमंदों की अन्न-धन से सहायता नहीं करना, इसे अनैतिक माना गया है और इससे बचने की सलाह दी गई है। स्व-उपार्जित धन का सामान्य-निर्वाह स्तर तक उपभोग तो उचित बताया गया है, पर इससे आगे व्यय करने को सामाजिक अन्याय कहा गया है- “नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाधो भवति केवलांदी”
आगे श्रुति कहती है- “शतहस्तं समाहरं सहस्रहस्तं संकिर” अर्थात् सैंकड़ों हाथों में इकट्ठा करो और सहस्रों हाथों से बाँट दो।
ऋषि आत्म कल्याण के लिए प्रार्थना करता है- “यद भद्रं तन्न आसुव”, अर्थात्, जो भद्र है, कल्याण है, उसे हमें प्राप्त करायें, किन्तु वह मात्र आत्मकल्याण की ही बात नहीं सोचता, विश्वकल्याण के भी भाव उसमें उमंगते हैं, इसलिए वह कहता है-
“संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्व सं जानाना उपासते॥”
जिस प्रकार सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि, आदि देव अविरोध भाव से प्रेमपूर्वक अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते हैं, वैसे ही हे मानवों! तुम भी समष्टि भाव से प्रेम-सौहार्दपूर्वक साथ-साथ कार्य सम्पादित करो।
ऋषि आगे कहते हैं- मात्र साथ-साथ कार्य करना ही पर्याप्त नहीं है अपने परिवार के सदस्य की भाँति अन्यों की सुरक्षा-सहायता का भी ध्यान रखो- “पुमानं पुमांसं परिपातु विश्वतः।” आगे तो यह आदर्श चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया है। आप्त वचन है- ‘निर्वैरिः सर्वभूतेषु” और “न पाये प्रति पापः स्यात्साधुरेव सदा भवेत्।”
वर्तमान युग के मूर्धन्य विचारक और विद्वान नीतिवेत्ता भी इस युग विपन्नता को दूर करने के लिए उन्हीं मानवी आदर्शों की आवश्यकता पर जोर देते हैं, जिसका प्रतिपादन आर्ष साहित्य में मिलता है। इस क्षेत्र में इस युग के महान अर्थशास्त्री और मानवतावादी कार्लमार्क्स का नाम अग्रगण्य है, जिसने साम्यवादी समाज की विचारधारा की नींव रखी।
मार्क्स ने अपने मानववादी दर्शन में जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति एवं व्यक्ति के यथार्थवादी जीवन को ही अपना आदर्श माना है। वे अपने दर्शन में व्यक्ति को प्रमुखता नहीं देते और समाजगत दृष्टि को सामूहिक जीवन को ध्यान में रखते हुए विचार करते हैं। अस्तु, उनका समाज व्यक्तिवादी समाज न होकर साम्यवादी समाज है, जिसमें किसी व्यक्ति को महत्व न देकर पूरे समाज को महत्व दिया जाता है और “वन फॉर ऑल एण्ड ऑल फॉर वन” के सिद्धान्त पर कार्य करता है।
इस प्रकार मार्क्सवादी समाज में व्यक्ति के बीच सिर्फ आर्थिक-वित्तीय समानता ही नहीं पायी जाती, वरन् भावनात्मक एकता का अद्भुत सामंजस्य भी देखा जा सकता है। पारस्परिक सहयोग-सहकार और प्रेम-सौहार्द इस समाज की पहली विशेषता है, किन्तु इतने में ही मार्क्स व्यक्तित्व की पूर्णता का इतिश्री नहीं मान लेते। वे शारीरिक-मानसिक क्षमताओं के समन्वय में ही इसकी पूर्णता देखते हैं।
मार्क्स वर्तमान समाज से संतुष्ट नहीं हैं। वह इसे अमानवीय समाज की संज्ञा देते हैं और एक ऐसे जनतंत्र के बारे में विचार करते हैं, जो “एक वर्ग-एक राज्य” का पक्षधर हो। उनका पूर्ण विश्वास है कि आज का मानववाद एक दिन विकास के पूर्ण उत्कर्ष पर पहुँचेगा और मनुष्य अपनी खोयी गरिमा को प्राप्त कर पुनः देवोपम बनेगा।
मार्क्स ही नहीं, अन्य अनेक विद्वानों, विचारकों और मनीषियों ने भी इस बात को स्वीकारा है कि हमारे नैतिक मूल्यों में इस हद तक गिरावट आ चुकी है कि अब यदि आगे भी यह पतन जारी रहा, तो हमें दैत्य के धरातल पर पहुँचा देगा। अस्तु सब ने एक स्वर से इस बात की आवश्यकता समझी है कि वर्तमान त्रास से बचने के लिए अब हमें धर्म और अध्यात्म की शरण में जाना होगा। यह एकमात्र विकल्प है, जो हमें महाविनाश की सर्वग्राही स्थिति से बचाकर देवत्व के सर्वोत्कृष्ट स्तर तक पहुँचा सकता है। इसी में हमारा कल्याण है और मानव जीवन की सार्थकता थी।
टी. एस. इलियट ने अपनी प्रसिद्ध रचना “मानववाद पर पुनर्विचार” में देवत्वहीन मानववाद की कल्पना को अस्वीकार कर दिया है। वे धर्म को मानववाद की बैसाखी मानते हैं और एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं स्वीकारते। “ईस्ट एण्ड वेस्ट रिलीजन” नामक अपनी पुस्तक में डॉ. राधाकृष्णन ने धर्म के आधार पर अभिनव मानववाद की कल्पना की है और कहा है कि “मनुष्य के भौतिक और आध्यात्मिक कल्याण का सबसे श्रेष्ठ आधार धर्म है।” मूर्धन्य कैथोलिक मानववादी आकमारितां का कथन है कि सामाजिक विषमता को मिटा कर समता और एकता का भाव जगा सकना अध्यात्म द्वारा ही संभव हो सकता है। वे आज की विपन्न नैतिकता से उबरने का मार्ग बताते हुए लिखते हैं- इस पतनोन्मुख स्थिति से अब हमें धर्म-दर्शन ही त्राण कर विकास की स्थिति तक पहुँचा सकता है।
इन सबका विवेचन कर निष्कर्ष निकालते हुए प्रसिद्ध दार्शनिक बर्गसाँ ने कहा है कि शाँति आज मनुष्य के लिये मृगतृष्णा बनी हुई है। शाँति के सारे भौतिकवादी प्रयास अधूरे हैं। उसे बाह्योपचारों, सुविधा-साधनों द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। काण्ट और शापेन हॉवेर ने योगीराज अरविंद के ही कथन को कुछ और शब्दों में निरूपित करते हुए अन्तराल में उन उच्चस्तरीय मानवी मूल्यों की प्रतिष्ठापना की चर्चा की है, जो मानव-जीवन के बीच सेतु का काम कर सके, उनमें प्रेम-सौहार्द पनपायें और आज के शुष्क जीवन में रसात्मकता और रागात्मकता भर सकें। यही आध्यात्मिक साम्यवाद होगा।