समत्व कितना सम्भव कितना असम्भव

December 1986

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गीताकार ने समत्व को योग कहा है। यह समत्व क्या है? मोटे अर्थों में समानता के बरताव को साम्य कह सकते हैं। साम्यवादी अर्थ व्यवस्था का यही आधार है। तब क्या योगी को साम्यवादी रीति-नीति अपनाने से लक्ष्य की पूर्ति में सफलता मिल जायेगी?

व्यवहार में समत्व का पूर्णतया परिपालन असम्भव है। हाथ की पाँच उंगलियां एक सी नहीं होतीं। घर में बड़ों छोटों के प्रति व्यवहार, शिष्टाचार में अन्तर बरता जाता है। बुद्धिमत्ता की कद्र होती है और मूर्खता दुत्कारी जाती है। समाजसेवी लोकहितैषी जनसम्मान और जनसहयोग अर्जित करते हैं और प्रशंसा प्रतिष्ठा पाते हैं। इसके विपरीत उजड्ड, अनाचारी, आतंकवादी समाज दण्ड, राजदण्ड और आत्मदण्ड भुगतते हैं। उनके साथ सम्बन्ध बनाने से भी सभी डरते हैं। भय यही लगा रहता है कि कहीं यह कालनेमि की तरह मित्रता का आडम्बर ओढ़कर शत्रुता जैसी घात न चला दे। जहाँ भय और आशंका है, वहाँ मित्रता कैसे बने? सहयोग कैसे सधे? सम्मान देने के लिए मन किस प्रकार उत्साह प्रकट करे?

जानवर सभी एक से होते हैं, पर उनमें से गाय को पालते हैं। भेड़िये से डरते हैं। सुअर को दुत्कारते हैं। यह अन्तर स्वाभाविक भी है और आवश्यक भी। उन्मादी से सतर्कता बरतनी पड़ती है। वह न जाने कब क्या कर बैठे? उसे ऐसे स्थान पर नहीं बिठाया जाता, जहाँ समझदारी और जिम्मेदारी निबाहने की आवश्यकता समझी जाती है। पूजा की थाली और कचरे की टोकरी साथ-साथ नहीं रखी जा सकती। यह सब देखते हुए विदित होता है कि समता सापेक्ष है। उसे पत्थर की लकीर नहीं माना जा सकता और हर कहीं एक ही आधार नहीं अपनाया जा सकता। सभी भेड़ें एक लाठी से नहीं हाँकी जा सकतीं। सभी धान बाईस पसेरी नहीं बिक सकते। उनके स्तर और गुण-दोष को निरखा-परखा जाता है और तब यह निर्णय किया जाता है कि किसके साथ किस प्रकार का व्यवहार किया जाय? देवता और दैत्य के बीच समता कैसी? उजाले और अंधेरे का अन्तर तो रहेगा ही। परिस्थितियों को देखकर ही व्यवहार करने के लिए हाथ बढ़ाना पड़ता है। हीरा और काँच एक भाव नहीं बिक सकते। रोगी और निरोगी एक बिस्तर पर नहीं सुलाये जा सकते। अन्तर रहना आवश्यक है। ऐसी दशा में वह सिद्धान्त कटता है जिसमें “समता” पर जोर दिया जाता है एवं उसे नीति और धर्म के समकक्ष बताया गया है।


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