बड़प्पन के सही मानदण्ड

February 1992

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

बड़प्पन के शिखरों की मोहकता की ओर प्रायः सभी ललचाई नजरों से देखते हैं। सभी उस पर आसीन होना चाहते हैं, परन्तु कैसे? मार्ग नहीं सूझ पड़ता। विचारपूर्ण दृष्टि से देखें, तो अणु से विभु, लघु से महान बनने की चाहत बुरी नहीं है। अपूर्णता को हटाते हुए पूर्णता की ओर बढ़ते कदम अन्तरतम् की उच्चस्तर अभीप्सा के द्योतक हैं। बड़ा कहलाने, बड़ा बनने, विकसित होने, प्रगति करने की अभिलाषा से प्रेरित होकर व्यक्ति नाना विधि प्रयत्न करता है। शारीरिक क्षुधा की पूर्ति के अतिरिक्त अधिकाँश लोगों की शेष सभी क्रियाएँ प्रायः इसी को उपलब्ध करने के उद्देश्य से होती है।

किन्तु अभीप्सा के बाद भी अभीप्सित का न मिलना यह सिद्ध करता है कि क्रियापद्धति में कहीं न कहीं गड़बड़ी हुई, मार्ग तय करने में कहीं भटक गए कोई-न-कोई भूलभुलैया आ पड़ी, आमतौर से सोचा यह जाता है कि जिसका ठाट-बाट जितना बड़ा है, वह उसी अनुपात में बड़ा है। मोटर, कोठी, सोना, जायदाद, कारबार, सत्ता पद आदि के अनुसार किसी को बड़ा मानने का प्रायः सामान्य रिवाज चल पड़ा है। इससे प्रतीत होता है कि लोग मनुष्य के व्यक्तित्व को नहीं, उसकी दौलत को बड़ा माना जाना चाहिए, जिनके पास किसी बड़े किले से अधिक पत्थर होता है। धातुओं की खान भी बहुत अधिक मूल्यवान होती है, फिर उसे ही क्यों न महान मान लिया जाय? धनी होना कोई बुरी बात नहीं है। उससे कई सुविधाएँ मिलती हैं, प्रसन्नता देने वाली परिस्थितियाँ प्राप्त होती हैं, परन्तु बड़प्पन की प्रामाणिकता इतने भर से नहीं सिद्ध हो जाती। इसका वास्तविक संबंध व्यक्तित्व से है। गरीब घरों में उत्पन्न हुए लोग भी बड़े होते हैं। धन का अभाव किसी की महत्ता को कुण्ठित नहीं कर सकता। स्वेच्छापूर्वक गरीबी वरण करने वाले महावीर, पुरुषोत्तम टण्डन, महात्मा बुद्ध को क्या तुच्छ समझ जाएगा?

मनःशास्त्री पिकानस जस्टिन “साइकोलॉजी ऑफ ह्युमन डेवलपमेण्ट” में इसे व्यक्तित्व विकास की एक अवस्था बतलाते हैं। उनके अनुसार उदारता और दूरदर्शिता का नाम ही बड़प्पन है। जो जितना उदार है, वह उतना ही बड़ा माना जाएगा। जिसकी भावना, आकांक्षा और विचारधारा ऊँची होगी, जो आदर्शवाद के प्रति जितनी गहरी आस्था रखता होगा, उसकी कृतियाँ श्रेष्ठ पुरुषों जैसी होंगी। सज्जन व्यक्ति ऊँचे काम करते और ऊँचे स्तर की बात सोचते हैं, जिससे मानवता कलंकित न हो। जिससे व्यक्तित्व का मूल्य घटे, ऐसे काम वे कितना ही कष्ट आने या दूसरों के द्वारा ही परेशान किए जाने पर भी करने को तैयार नहीं होते। यों सुविधा के समय हर कोई बड़ी-बड़ी बातें कर सकता है, पर परीक्षा की घड़ी आने पर ही यह पता चलता है कि कौन उदार, कौन अनुदार है- कौन छोटा, कौन बड़ा है।

मानव मन के मर्मज्ञ सी. जेम्स कोलमैन ने “पर्सनालिटी डायनमिक्स एण्ड इफेक्टिव बिहेवियर” में इसकी कसौटी प्रभावी व्यवहार को माना है। बच्चों का व्यवहार विचित्र अव्यवस्थित रहने पर प्रायः उपेक्षणीय ही रहता है। इसका कारण उनकी ना समझी को माना जाता है। उनके इस व्यवहार पर अभिभावक खिन्न होने, क्षोभ व्यक्त करने की जगह, उन्हें शिष्ट-शालीन व्यवहार के लिए प्रशिक्षित करते हैं। बड़े आदमी वे जिनके दिल और दिमाग दोनों बड़े हैं। ये ओछे लोगों की छोटी हरकतों से उद्विग्न नहीं होते। गलती को सुधारने का प्रयत्न करते हुए भी उनका मानसिक सन्तुलन नहीं बिगड़ता। ऐसों का प्रमुख चिन्ह यह है कि घटनाओं और व्यक्तियों में किसी से भी उद्विग्न न होना। धीरज उसके हाथ से छूटता नहीं। शोक संताप की घड़ियों में भी यह अविचलित बना रहता है।

व्यक्तित्व की इस अवस्था को पाने के लिए आवश्यक है अपने भीतर की हलचलों, बाहर की गतिविधियों को बारीकी से देखा जाय एवं उसका समुचित विवेचन-विश्लेषण किया जाय, पर ऐसा कर पाना तभी सम्भव है, जब हमारे बड़प्पन का मापदण्ड सस्ती वाहवाही पाना न हो, वरन् स्वयं ऊँचा उठना और दूसरों को आगे बढ़ाना हो । माप तोल के पैमाना, बाटों के गलत रहने पर किसी वस्तु की यथार्थता नहीं -जा सकती। कसौटी ही यदि त्रुटि पूर्ण हो तो - विकटता से अवगत हो सकना भला कैसे सम्भव हो पड़ेगा। ऐसी स्थिति में प्रथम और अनिवार्य आवश्यकता है कि तत्संबंधी मानकों को एक बार दिया जाय, गल्तियाँ सुधारी जाय । मन में यह बात गहराई से जमायी जाय कि बड़प्पन बाहर नहीं, भीतर की वस्तु है। इसकी प्राप्ति बाहरी ठाट-बाट से नहीं, वरन् दिल और दिमाग को थोड़ा उदार, सेवाभावी, परोपकारी बना कर ही की जा सकती है।

ऐसी समझ जग पड़ने पर स्वयं की कमियाँ न केवल दिखेंगी, वरन् खटकेंगी भी। बार-बार मन कचोटेगा कि इन्हें जल्दी-से-जल्दी कैसे दूर करें। फिर व्यक्तित्व का भोंड़ापन न प्रिय लगेगा न उपयुक्त। इस तरह आत्मविश्लेषण आत्मसुधार की सींकों से बनी बुहारी लेकर व्यक्तित्व के परिसर झाड़-पोंछ कर फेंकने में ही भलाई सूझेगी।

सामान्य स्थिति में इस तरह की सफाई का कार्य श्रमसाध्य और दुष्कर प्राय है। काफी कष्ट सहने के बाद भी अधूरापन बना है रहता है, पर मानवीय इतिहास में कभी-कभी ऐसे अद्भुत क्षण आते हैं जब सुधार की आँधी उमड़ पड़ती है और उड़ा ले जाती है, दुर्गुणों की दुर्गन्ध और बुराइयों के कूड़े कचरे को। इन क्षणों में करना सिर्फ इतना होता है कि स्वयं को उस आन्दोलन के तूफान में झोंक दे और कठपुतली की भाँति सब कुछ करते चले जाय, जिसकी प्रकाश-प्रेरणा दी जा रही है। इससे आगे का कार्य बाजीगर अथवा सूत्रधार का होता है वह अपनी जिम्मेदारी समझते हुए उसे वह सब कुछ प्रदान करता है, जिसके कारण नरेन्द्र नामक सामान्य सा युवक विवेकानन्द बन सका, मूलशंकर दयानन्द बन सका वास्तविक बड़प्पन इसी में है।

एक लम्बे अर्से के बाद मानव को आज इन्हीं सौभाग्यशाली क्षणों में जीने का अवसर मिला है। ठीक वही अलभ्य मौका, जिसे पहचान कर अनेकों सामान्यजन बुद्ध के साथ चलकर असामान्य, असाधारण महामानव बन सके थे। इस स्वर्णिम अवसर को यों ही न निकलने दें । स्वयं असमंजस अथवा ऊहापोह में न रख कर आ मिलें प्रस्तुत सृजन के तूफान में, जो मानवीय जीवन को, और युग को एक बार पुनः गरिमामयी बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। यदि हम ऐसा करने के लिए कटिबद्ध हो सकें, तो बड़प्पन का सच्चा उपहार मिले बिना न रहेगा।

प्रभो मुझे प्रेम के बीज बोने दो। भगवान दया करके मुझे वह शक्ति दे कि किसी, को मेरी सांत्वना की आवश्यकता ही न पड़े। लोग मुझे समझें, इसके बजाय मैं ही उनको समझूँ। लोग मुझे प्यार करें, इसके पहले मैं ही उन्हें प्यार करने लग जाऊँ। हमें वही मिलता है जो दिया जाता है। क्षमा करने से ही मनुष्य क्षमा का पात्र बनता है। अपने को उत्सर्ग करने से ही नित्य जीवन मिलता है।

“मुझे प्रेम का बीज बोने दो-” शीर्षक से विख्यात सन्त फ्राँसीसी की इस प्रार्थना में न केवल ईसाई धर्म का, वरन् समग्र धर्म और अध्यात्म का सार निहित है। इसी ग्रंथ में एक और प्रार्थना इस प्रकार है-

हे प्रभु मुझे अपनी शान्ति का यंत्र बना। जहाँ घृणा है वहाँ मैं प्रेम ला सकूँ ॥

जहाँ आक्रमण है वहाँ मैं क्षमा ला सकूँ । जहाँ मतभेद है वहाँ मैं मिलाप ला सकूँ ॥

जहाँ भूल है वहाँ मैं सचाई ला सकूँ । जहाँ सन्देह है वहाँ मैं विश्वास ला सकूँ ॥

जहाँ निराशा है वहाँ मैं आशा ला सकूँ । जहाँ अन्धकार है वहाँ मैं प्रकाश ला सकूँ ॥

जहाँ उदासी है वहाँ मैं प्रस मैं प्रसन्नता ला सकूँ । यहाँ प्रभु से-ईश्वर से जो चाहा गया है वह

सच्चे समर्पण की कुँजी है। यही प्रार्थना आदर्शों के प्रति अपने को सच्चा भक्त बनाती है और अपनी जीवनचर्या से अन्य अनेकों का मार्गदर्शन करती है। हमारे अन्तराल में भी प्रार्थना के यही भाव गुँजायमान हों ।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118