पिछड़ेपन का मूल कारण- भाग्यवाद

February 1992

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काफी समय से अपने देश में फलित ज्योतिष, कुण्डली, ग्रह नक्षत्रों के आधार पर मनुष्य के भाग्य निर्धारण की परम्परा चलती रही है । भाग्यवाद की धारणा ने भारतीय समाज का जितना अहित किया है उतना सभी सामाजिक कुरीतियों ने मिलकर भी नहीं किया । कुरीतियों ने तो आम जनता की समृद्धि ही छीनी, पर भाग्यवाद ने उसे अकर्मण्य, आलसी और कायर ही बना डाला ।

इन दिनों भाग्यवाद को पोषण देने के लिये हस्तरेखा, अंक ज्योतिष जैसी विधायें भी, जो पश्चिम में विकसित हुई हैं, चल पड़ी हैं । लोग अंकों को जोड़ बाकी और गुणा भाग कर अपनी सफलता या असफलता का पूर्व ज्ञान करना चाहते हैं । जबकि प्रयत्न करने से पहले सफलता या असफलता का ज्ञान होना असंभव ही है । विश्व प्रयत्न और पुरुषार्थ प्रधान है न कि भाग्य प्रधान है । भाग्य की न तो कोई सत्त है और न महत्ता है । दुर्भाग्य या बुरी किस्मत उन्हीं के लिये है जो प्रयत्न पुरुषार्थ को छोड़कर उसमें विश्वास करते हैं ।

किन्हीं सितारों , शरीर पर बनने वाले चिह्नों या अन्य बातों को जो अपने भवितव्य का निर्णायक मानेगा, यह कहना नितान्त भ्रामक है कि वह सुखी रहेगा । भाग्य या फलित ज्योतिष की आधारभूत मान्यता यह है कि व्यक्ति भविष्य में आने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों को जान ले, और समय रहते उनसे बचने का प्रयत्न करे । मनुष्य अब तक तो भविष्य के गर्भ में झाँक नहीं सका है और किन्हीं अंशों में वह भविष्य को जानने में सफल भी हुआ है तो आम जनता पर उसका विपरीत प्रभाव ही हुआ है । यह बजाय आने वाली प्रतिकूलताओं को झुठलानी की चेष्टा करने के , जो कुछ करता है वह भी छोड़ बैठता है और स्वयं को अभागा मान लेता है ।

अभागा वह नहीं है जिसका आने वाला कल संघर्षपूर्ण है, वरन् अभागा वह है जो भावी संघर्षों का यत्किंचित् पूर्वाभास पा कर या कि यों ही दुर्भाग्य की कल्पनायें करता हुआ स्वयं को दीन हीन बना लेता है । अपने प्रति रखे गये विश्वास के अनुसार ही मनुष्य का जीवन घटित होता है । तत्त्वदर्शन का यह सुनिश्चित सिद्धान्त है कि मनुष्य अपना जितना मूल्याँकन करता है , उससे राई रत्ती भी अधिक नहीं प्राप्त कर सकता । व्यक्ति स्वयं ही अपने लिये जिस मूल्य का दावा करेगा, न केवल समाज बल्कि अदृश्य शक्तियाँ भी उसके साथ वैसा ही व्यवहार करेंगी । इस प्रकार स्वयं को अभागा या हेय हीन समझने वाला व्यक्ति कभी प्रगति नहीं कर सकता ।

इसका एक मनोवैज्ञानिक कारण भी है । हीनता का भाव आदमी के मनोबल को तोड़ता है । फिर उसके प्रयत्न या तो दुर्बल हो जाते हैं अथवा समाप्त । उसका पुरुषार्थ टूट जाता है, संघर्ष क्षमता शिथिल हो जाती है और मनोबल भी गिर जाता है । जबकि संघर्ष, पुरुषार्थ और मनोबल के आधार पर ही व्यक्ति सफल या असफल होता है ।

भाग्य निर्धारण में जिन भारतीय और पश्चिमी विधाओं की सर्वाधिक चर्चा की जाती है उनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं । कुण्डली दर्शन, राशिफल, हस्तरेखा, अंक-ज्योतिष सामुद्रिक ज्ञान और ग्रह दशा । मुख्यतः भविष्य ज्ञान के लिये इन्हीं जाल जंजालों के चतुर्दिक् चक्कर काटा जाता है।

इनमें से सर्वप्रथम कुण्डली को लें । जन्म के समय पर ज्योतिष विज्ञान के कुछ नक्षत्रों की कल्पित गतियों और प्रभावों के आधार पर इसकी रचना की जाती है और फलित ज्योतिष की कुछ मान्यताओं के आधार पर इनका निष्कर्ष निकाला जाता है । कुण्डली का आधार ग्रह नक्षत्रों की स्थिति ही है । यहाँ इस संदर्भ में यह जान लेना चाहिये कि कई ग्रह नक्षत्रों का तो प्रकाश भी धरती पर नहीं पहुँचता । मंगल जो पृथ्वी के सर्वाधिक निकट ग्रह है । उसकी पृथ्वी से दूरी 40 करोड़ मील है और अब तक सबसे ज्यादा तेज गति से उड़ने वाले अंतरिक्ष यान को भी वहाँ तक पहुँचने में लगभग एक वर्ष का समय लगा। यह निर्जीव ग्रह इतना दूर स्थित है कि पृथ्वी पर यह भी पता नहीं चल पाता कि वहाँ क्या हो रहा है, तो पृथ्वी पर बसने वाले लगभग 6 अरब मनुष्यों में से प्रत्येक पर यह क्या असर डालेगा और कोई असर हो तो भी इतना क्षीण होगा कि सर्वशक्तिमान परमात्मा के अंश मनुष्य का उससे प्रभावित होना असंभव ही लगता है । यही बात राशियों के संबंध में भी हैं ।

राशि फल के बाद हस्त रेखाओं द्वारा भविष्य जानने की सर्वाधिक चेष्टा की जाती है । हाथ की रेखायें निश्चित ही प्रत्येक व्यक्ति की अलग-अलग है पर उनके आधार पर भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती । क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की रेखायें एक निश्चित अवधि में बदलती रहती हैं । इसका कारण एक रेखा की स्थिति के आधार पर किया भविष्य का विश्लेषण कुछ ही समय बाद अलग अर्थ धारण कर लेता है । अव्वल तो भविष्य के संदर्भ में हस्तरेखाओं की कोई अर्थवत्ता ही नहीं है । आधुनिक मनोविज्ञान इस संदर्भ में जिस तह तक पहुँच सका है वह के वल व्यक्तित्व की पहचान तक ही सीमित है न कि भविष्य के ज्ञान का कोई आधार सिद्ध हुआ है । सामुद्रिक ज्ञान अर्थात् शरीर के चिह्नों के संदर्भ में भी यही तथ्य हैं ।

अंक ज्योतिष के आधार पर भी भविष्य का विश्लेषण संभव नहीं है । इस विद्या की आधारभूत मान्यता यह है कि प्रत्येक अंक का अपना विशिष्ट गुण है । जन्म दिन या नाम के आधार पर व्यक्ति का भाग्याँक निकाला जाता है और फिर उन गुणों के आधार पर उसका भविष्यफल तैयार किया जाता है ।

विचारशील व्यक्ति इसके स्वरूप को देखकर ही यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि इसकी वास्तविकता क्या है ।

भविष्य को जानने के जितने प्रयत्न होते हैं उन सबमें प्रायः अटकलबाजियाँ ही लगायी जाती हैं । अन्यथा यदि कोई व्यक्ति अपना भाग्य जान सका होता तो वह आने वाली कठिनाइयों और संघर्षों से इतना विकल हो जाता कि सुखद वर्तमान का आनन्द भी मिट्टी में मिल जाता । यह बात अलग है कि पुरुषार्थ एवं परिश्रम से जी चुराने वाले व्यक्ति ही भाग्य की दुहाई दिया करते हैं । वर्तमान विचारधारा इस भाग्यवाद को भी शोषण चक्र का ही एक रूप मानती है । अच्छा हो हम भाग्यवाद के कुचक्र से निकलें , पुरुषार्थपरायण बनें और पराक्रम कर अपना भाग्य अपने हाथों लिखें ।


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