निर्धन की करुणा

February 1992

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जेथसमेन में अनावृष्टि के कारण भीषण अकाल की छाया मँडरा रही थी। स्थान-स्थान पर सूखी देह वाले क्षुधा से त्रस्त नरकंकाल दुर्दैव के प्राप्त बन रहे थे। लोग मरने लगें। भूख से तड़पते जर्जर नागरिकों में इतनी भी शक्ति नहीं रह पाई थी कि वे मृत देहों को उनके स्थान से हटा सकें, अन्त्येष्टि करवा सकें।

महात्मा ईसा अपनी शिष्य मण्डली के साथ उन दिनों उसी क्षेत्र में भ्रमण कर रहे थे। जेथसमेन के समाचार सुनकर उन्होंने दुःखी और सन्तप्त मनुष्यों की सेवा सबसे बड़ा धर्म समझा और वहाँ गए।

नगर के बड़े-बड़े धनपति- कुबेरों ने ईसा के दर्शन और उपदेश श्रवण के पुण्य लाभ- लोभ से एक सभा आयोजित की। उन्होंने सुन रखा था कि इन धनाढ्यों पर इस दुःस्थिति का तनिक भी असर नहीं हुआ है। भूख से तड़पती और बिलखती अपने ही सामान्य अन्य दूसरी मानव आत्माओं की वेदना और पुकार से भी धनी मनुष्यों का कठोर हृदय रंच मात्र भी नहीं पसीजा है।

सभा के बीच बैठकर ईसा ने यही निरूपित किया-कि-मनुष्य की सेवा ही सबसे बड़ा आवश्यक धर्म और परम कर्तव्य है। पड़ोसी जब तक भूखा है तब तक हमारा कोई भी पुण्य आयोजन सफल और सार्थक नहीं हो सकता। जीसस ने कुछ रुक-रुक कर फिर कहा ”क्या आप लोगों में ऐसे कोई साहसी व्यक्ति हैं जो इन भूखे व्यक्तियों के लिए भोजन जुटा सकें।”

उनकी मर्मस्थल को छूने वाली वाणी से दुखी और अकाल संतप्त-क्षुधा त्रस्त लोगों को आशा की एक किरण दीख पड़ी। लगा अब कोई उठेगा और अपना सर्वस्व दरिद्र नारायण के चरणों में न्यौछावर कर देगा। उधर धनी और अभिजात कुल के लोगों में भी कुछ सेवा-सहायता की कसक पैदा हुई परन्तु धन और सम्पदा की अत्यधिक आसक्ति मानवीय आत्मा पर हावी हो रही थी। इतने में ही एक व्यक्ति ने उठ कर कहा “भगवान् मेरे पास पैसा तो है परन्तु पैसे से क्या होगा जबकि हमें दुर्भाग्य का अनावृष्टि के रूप में सामना करना पड़ रहा है। आपकी प्रेरणा ने हमारे अंतर्मन को जगा दिया है। परन्तु हम लोग कुछ भी कर सकने से विवश हैं। ”दूसरे धनपति ने उठकर कहा- “इस वर्ष तो पानी ही नहीं बरसा इसीलिए तो खेतों से इतनी उपज नहीं हुई कि राज्य का भूमि कर चुका सकूँ।”

एक धनाध्यक्ष ने उठकर कहा “इतने व्यक्तियों को खिलाने की व्यवस्था की जाय तो मेरी सम्पत्ति कम पड़ेगी

महात्मा ईसा आश्चर्यचकित थे। सभी ने अपनी सम्पत्ति के उचित सदुपयोग करने से बचाने के लिए कोई न कोई बहाना ढूँढ़ निकाला था। इस प्रकार साधन सम्पन्न व्यक्ति ही अपनी कृत्रिम असमर्थता व्यक्त करने लगे तो समस्या का कोई निदान नहीं निकाला जा सकता। वह गम्भीर विचार मुद्रा में लीन हो गए।

वहीं एक मछुआरे की कन्या मार्था बैठी हुई थी। वह उठ खड़ी हुई बोली-भगवन् अपनी शक्ति के अनुसार भूखे लोगों को भोजन देने का उत्तरदायित्व मैं लेती हूँ।

सब लोग आश्चर्य भरी आँख से फटे-पुराने कपड़े पहने मार्था की ओर देखने लगे। उन्हें पता था कि इसे अपने ही गुजारे के लिए भीख माँगने तक को विवश होना पड़ता है। आखिर एक ने पूछ ही लिया, “मार्था ! इस भारी भरकम दायित्व का निर्वाह कैसे कर सकोगी? “

‘मेरी सम्पत्ति और धन भण्डार आप सब लोगों के घरों में हैं। वहीं से माँग लाऊँगी और अकाल पीड़ितों को खिलाऊँगी।’ मार्था का उत्तर था। महात्मा ईसा ने डबडबाई आँखों से सुप्रिया की ओर देखते हुए कहा-’ ‘धनिक व्यक्तियों ! करुणा ही सबसे बड़ी शक्ति है। करुणा और प्रेम से आप्लावित हृदय वाले शूरो के लिए परिस्थितियाँ या सामर्थ्य हीनता सेवा-साधना में बाधक नहीं बन सकती “ और उस दिन जन्म हुआ एक और सुप्रिया का । एक सुप्रिया जो कभी बुद्ध के समय में अकाल पीड़ितों-क्षुधितों को तारने जन्मी थी, वह पुनः ईसा के साथ भी अवतरित हुई। सत्साहस हमेशा छोटों के संकल्प से ही उभरता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118