अपनों से अपनी बात - - शक्ति संचार प्रक्रिया से आत्म शक्ति का उपार्जन-अभिवर्धन

February 1992

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मनुष्य की बहिरंग सत्ता को कई प्रकार की सामर्थ्यं उपलब्ध हैं । इन शक्तियों में सम्पत्ति, बलिष्ठता, शिक्षा-कौशल , प्रतिभा , अधिकार क्षमता जैसे साधनों की बहुधा गिनती की जाती है और इन्हीं के सहारे बहिरंग जगत में, इस मायावी संसार में सफलता संपादित करने की कामना की जाती है । फिर भी प्राप्त सामर्थ्य-वैभव सीमित ही होता है व अस्थिर भी । फिर इन भौतिक सफलताओं के लिए मात्र पुरुषार्थ व साधन ही प्रमुख नहीं , दूसरों की सहायता और परिस्थितियों की अनुकूलता भी देखनी होती है । सहायता न मिले व परिस्थितियाँ प्रतिकूल हों तो साधन, कौशल , प्रतिभा एक ओर, कई बार असफलता का मुँह भी देखना पड़ता है ।

उसके विपरीत मनुष्य की अंतरंग सत्ता-आत्मसत्ता की सामर्थ्य में न तो सीमा का कोई बंधन है और नहीं स्वल्पता का असंतोष । उस क्षेत्र में असीम एवं प्रचुर शक्ति स्रोत छिपे पड़े हैं । चूँकि आत्मसत्ता सीधे परमात्मसत्ता से जुड़ी है, आवश्यकतानुसार उस मूल स्रोत से चाहे जब , बहुत प्राप्त किया जा सकता है, नदी की धारा में जल तो एक सीमा तक ही होता है किन्तु हिमालय जैसे विशाल जलस्रोत से तारतम्य जुड़ा होने के कारण सरिता अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित ही बनी रहती है । जबकि एक पोखर का, जलाशय का पानी उपयोग कर्ताओं के दबाव, धूप-हवा के प्रभाव को सहन नहीं कर पाता व जल्दी सूखकर समाप्त हो जाता है । भौतिक स्तर की बहिरंग जगत की सामर्थ्यों की तुलना पोखर के जलाशय के पानी से की जा सकती है और आत्मिक स्तर की-अंतर्जगत् की शक्ति की-वर्चस् की उपमा हिमालय से निकलने वाली नदियों के रूप में समझी जा सकती है ।

यहाँ भौतिक साधनों के लिए किये जाने वाले पुरुषार्थ एवं प्राप्य साधनों की अवमानना नहीं की जा रही । उन्हें जुटाना व निरन्तर पुरुषार्थरत रहना जरूरी है। किन्तु मूलभूत लक्ष्य मनुष्य का अंतरंग की वर्चस् की सामर्थ्य को उभारने का हो तो बहिरंग जगत की उपलब्धियाँ भी सार्थक होने लगती है ।आत्मशक्ति का उपार्जन न होने पर बहिरंग का वैभव तनावजन्य-असंतोष , उद्विग्नता, संक्षोभ-विक्षोभ व पारस्परिक विद्वेष के साथ समाज में विषमता तथा विग्रह की स्थिति लाता है । आज सारे विश्व की स्थिति का आकलन करने पर निष्कर्ष यही निकलता है कि बहिर्जगत का पुरुषार्थ हुआ तो है पर वह एकांगी होने के कारण अपने साथ आस्था संकट की अतिकष्टकारी विभीषिका साथ लेकर आया है । यदि आज की समस्याओं का समाधान होना है , आस्थाओं-आकांक्षाओं का प्रवाह मोड़ा जाना है, व्यक्ति के अंतराल को परिष्कृत का उसका आत्मगौरव जगाना है तो वह अंतर्जगत के पुरुषार्थ द्वारा ही शक्य हो सकेगा । युग निर्माण की प्रक्रिया इसी आत्म-ऊर्जा के उत्पादन व सुनियोजन के लिए परम पूज्य गुरुदेव द्वारा आरंभ की गयी व उसी की परिणति स्वरूप आज बड़े व्यापक स्तर पर युगांतरीय चेतना के प्रवाह को उमड़ता उफनता देखा जा सकता है ।

आत्मशक्ति का उत्पादन जिस यंत्र या फैक्टरी में किया जाता है, उसे व्यक्ति की चेतना नाम से जाना जा सकता है । मानवी अंतःकरण को अणु-ऊर्जा उत्पादन केन्द्र जैसा बहुमूल्य संपन्न माना जा सकता है । शरीरबल, बुद्धि वैभव आदि तो आवरण, उपकरण मात्र हैं । अनन्त संभावनाओं से भरा अंतर्जगत ही मनुष्य का भाग्यविधाता है । मानवी अंतराल ऋद्धि सिद्धियों का भाण्डागार है । परमात्मसत्ता का एक अंश होने के कारण आत्मा में परब्रह्म की सारी क्षमताएँ व विशेषताएँ बीज रूप में विद्यमान हैं । आत्ममूर्छना को जगाकर जब अंतर्जगत का पुरुषार्थ साधना प्रक्रिया द्वारा किया जाता है तो व्यक्ति के निजी जीवन में मनोनुकूल परिस्थितियों के निर्माण से लेकर समष्टिगत अनुकूलन व नवसृजन की प्रक्रिया आरंभ होने लगती है । यही है युगऋषि द्वारा आरंभ किये गए युगपरिवर्तन की प्रक्रिया का सुनिश्चित आधार ।

संधिकाल की संक्रमण वेला से गुजर रही मनुष्य जाति के लिए अब सबसे बड़ी आवश्यकता है मनुष्य की निज की आत्मशक्ति का , आत्मबल का, वर्चस का जागरण। उसके लिए प्रतिकूलताओं के बीज भी अनुकूल प्रवाह विनिर्मित करने का कार्य सृष्टि संतुलन के लिए प्रतिज्ञाबद्ध नियति ने, अवतार चेतना ने आरंभ कर दिया है । हम को तो मात्र आत्मशक्ति को प्रसुप्ति से जागरण की स्थिति में लाकर स्वयं को उस प्रवाह से जोड़ देना भर है शेष कार्य वह युगान्तरीय चेतना स्वयं कर लेगी । शक्ति संचार की प्रक्रिया इसी निमित्त आरंभ की गयी है ताकि व्यक्ति-व्यक्ति के अंदर की शक्ति जगे व वह शक्ति के मूलस्रोत से जुड़कर अनन्त सामर्थ्य का अधिकारी बन । विगत दिनों शक्ति साधना के उपक्रम में पूरे भारत व विश्वभर में संपन्न अखण्ड गायत्री जप आयोजनों ने जो सबसे बड़ा कार्य किया है, वह है जन-जन की प्रसुप्ति को मिटाना तथा सूक्ष्मजगत में अनुकूल प्रवाह विनिर्मित करना । यह कार्य बड़ी सफलतापूर्वक संपन्न हुआ है व आगामी नौ वर्षों तक यह इसी प्रकार पलता रहेगा ।

प्रस्तुत वसन्तपर्व (8 फरवरी 92) से शक्ति साधना प्रक्रिया में एक सम्पुट और जोड़ते हुए अब शक्ति संचार की प्रक्रिया की सम्मिलित किया जाना है । यह और कुछ नहीं, जिनकी आत्मशक्ति के संवर्धन हेतु स्वयं को दैवी प्रवाह से जोड़ने की प्रक्रिया है । युगशक्ति गायत्री कार्यक्षेत्र सारा विश्व है , यह समग्र सृष्टि है । वह अनुकूल प्रवाह विनिर्मित कर अपना पुरुषार्थ आरंभ कर चुकी है । अब परिवर्तन के लिए तत्पर साधक को स्वयं को , उस बहती धारा से जोड़ा भर देना है । इसके लिए इस वसंत से शक्ति-संचार साधना” के रूप में एक उपक्रम का शुभारंभ किया जा रहा है व सभी को बिना किसी जाति , लिंग , वर्ण , धर्म , संप्रदाय के भेद के इस में भागीदारी करने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है ।

हिमालय के ध्रुव केन्द्र से निःसृत दिव्य प्रवाह जो इक्कीसवीं सदी के रूप, में , सतयुग , लाने को संकल्पित है का उद्गम केन्द्र गंगोत्री शाँतिकुँज को माना जाता है । गंगा यों निकलती तो गोमुख से है, पर उससे पूर्व ही कैलाश पर्वत के समीपस्थ मान सरोवर से वह ग्लेशियर के रूप में जन्म लेती है व अंततः धरती पर गोमुख में आकर प्रकट होती है । महाकाल की युगांतरीय चेतना का उत्पादन स्थल तो दुर्गम हिमालय है , पर इसका दृश्य रूप में गोमुख है शाँतिकुँज-गायत्री तीर्थ । प्रत्येक साधक को यही भावना करते हुए नित्य प्रातः शाँतिकुँज की ओर मुख करते हुए सूर्योदय से एक घण्टा पूर्व से लेकर एक घण्टा बाद तक के किसी भी समय में न्यूनतम आधा घण्टे नित्य शक्ति-संचार प्रक्रिया में अपनी भागीदारी करना चाहिए । इसके लिए आत्मशोधन के उपक्रम कर सुखासन की मुद्रा में शाँतिकुँज की ओर मुँह करके बैठा जाय । प्रारंभिक घटनाक्रम के बाद तीन विशिष्ट प्राणायाम लोमविलोम सूर्यभेदन के संपन्न किये जाएँ । सूर्य गायत्री महाशक्ति का देवता है । शक्ति का पुँज सविता ही आत्मशक्ति के जागरण की प्रक्रिया को अगले दिनों संपन्न करेगा । इसके उपरांत पंद्रह मिनट भावनात्मक रूप से शाँतिकुँज पहुँचकर अखण्ड दीपक का दर्शन करने ,गंगा की गोद , हिमालय की छाया व दैवी संरक्षण में पहुँचकर शक्ति स्रोत से जुड़ने तथा तीनों शरीरों में शक्ति के संचार की ओजस्-तेजस्-वर्चस की वृद्धि की तथा हिमालय की दैवी चेतन प्राण धारा से अनुप्राणित होने की ध्यान-धारणा संपन्न की जाय । पाँच मिनट प्रारंभिक उपचार , दस मिनट तीन प्राणायाम तथा पंद्रह मिनट की ध्यान-धारणा इस प्रकार आधे घण्टे का यह उपक्रम नियमित रूप से निभाया जाय ।

आत्मशोधन की ब्रह्मसंध्या हेतु पवित्रीकरण आचमन शिखाबंधन , प्राणायाम व न्यास का उपक्रम संपन्न किया जाय। इसका विस्तृत विवेचन अक्टूबर 91 के उपासना विशेषांक (पृष्ठ 30-32) तथा गायत्री साहित्य के साथ भेजी जाने वाली विवरणिका में है । इसके पश्चात् कमर सीधी रख पालती मारकर, अधखुले नेत्रों व घुटने पर दोनों हाथ इस प्राणमुद्रा में बैठकर प्रातः के उदीयमान सूर्य का ध्यान करते हुए तीन लोम विलोम सूर्य भेदन प्राणायाम संपन्न किये जाएँ । बायें नासिका के छिद्र को बन्द कर दाहिने नासिका के छिद्र में अवस्थित पिंगला नाड़ी के प्रवाह से सूर्य की किरणों के प्रकाश व ऊष्मा के साथ दिव्य प्रवाह के अंदर प्रवेश करने की प्रक्रिया साँस खींचने के साथ संपन्न की जाय । नासिका के दोनों छिद्र बंद कर यह भावना की जाय कि सूर्यचक्र जो चिरकाल से प्रसुप्त था, इस आगत प्रकाशवान प्राणवायु से जाग रहा है व रोम रोम में, कण-कण में ऊर्जा का संचार हो रहा है । अब दाहिनी नासिका के छिद्र को बंद कर साँस को धीरे-धीरे बाएँ नथुने से बाहर निकाला जाय व ध्यान किया जाय कि अंतः के कल्मष जो सूर्यचक्र को नाभिचक्र को मूलाधार को धुँधला बनाए हुए थे , थोड़ी साँस के साथ इड़ा नाड़ी के प्रवाह के साथ बहार निकल रहे हैं । अब दोनों नथुने बंद कर भावना की जाय कि नाभिचक्र से तेज पुँज की तरह अग्निशिखा की लपटें ऊपर उठकर अंतर्जगत् को ज्योतिर्मान-प्रकाशवान बना रही हैं । अब दाहिना नासिका छिद्र बंद कर बाएँ नथुने से साँस खींचते समय इड़ा नाड़ी द्वारा सूर्य प्रकाश जैसा प्राणतत्त्व साँस के साथ मिलकर प्रविष्ट होने व सूर्यचक्र में जाकर उसे और तेजस्वी बनाने की भावना की जाय । अंतर्कुम्भक के दौरान सुषुम्ना नाड़ी के परिपुष्ट होने की व रेचक में पूर्व की प्रक्रिया से विलोम अर्थात् दाहिने नथुने से साँस बाहर निकालते हुए कषाय-कल्मषों के बाहर जाने व अंतःकरण के निर्मल बनने की भावना करें । पुनः फेफड़ों को पूरी तरह खाली रख एक बार बहिर्कुम्भक प्रक्रिया संपन्न की जाय व इस प्रकार एक लोमविलोम प्राणायाम संपूर्ण हुआ माना जाय । यह पूरी प्रक्रिया तीन बार संपन्न की जानी है । दायें से खींचना, बायें से निकालना व पुनः बायें से खींचना व दायें से निकालना यह उलटा सीधा चक्र प्राणायाम कर रहने से इसे “लोमविलोम” व सूर्य का ध्यान कर सूर्यचक्र को जाग्रत करने की धारणा के कारण इसे "सूर्यभेदन" प्राणायाम कहते हैं । इसके पश्चात् शाँतचित्त , स्थिर शरीर, सीधी कमर, दोनों हाथ गोदी में व आँखें बन्द कर मौन गायत्री जप कर मन ही मन शाँतिकुँज पहुँचकर गायत्री तीर्थ गुरुसत्ता एवं अखण्ड दीपक का दर्शन करने, ज्योति किरणों के स्थूल शरीर-मूलाधार चक्र में, सूक्ष्मशरीर आज्ञाचक्र में तथा कारण शरीर हृदय चक्र में संचार होने व साधक के ओजवान , तेजवान , प्रकाशवान बनने व उपलब्ध अमृत वर्षा से पुलकित होकर रस विभोर होने की परिकल्पना की जाय । पंद्रह मिनट बाद पाँच बार ओंकार का गुँजन करते हुए असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योः मा अमृतंगमय की प्रार्थना करते हुए शाँति पाठ किया जाय । तत्पश्चात् दोनों हथेलियों को आपस में रगड़ कर मुख पर तथा हृदय , पीठ , हाथ आदि पर स्पर्श करते हुए भावना की जाय कि साधना के पूर्व जो स्थिति थी उससे अब श्रेष्ठतर है व क्रमशः आत्मबल की वृद्धि हो रही हैं । सूर्य को अर्घ्य देकर अपनी शक्ति-संचार की प्रक्रिया का समापन किया जाय ।

यह सुनिश्चित माना जाना चाहिए कि आत्मशक्ति का उपार्जन करने वाले साधक ही अगले दिनों व्यष्टि परक, समष्टिपरक प्रतिकूलताओं को निरस्त कर सकने व अपनी जीवन यात्रा आगे बढ़ा पाने में सफल होंगे । ऐसे में शक्ति संचार की इस प्रक्रिया में जितने अधिक भागीदार बनाए जा सकें , बनाना व प्रत्येक को मिशन की पत्रिकाएँ अखण्ड-ज्योति , युग निर्माण योजना व युग शक्ति गायत्री के द्वारा युग प्रवाह से जोड़ना इस संधिकाल का सबसे बड़ा पुण्य है। दस सहयोगी साधक बनाकर उन्हें गायत्री चालीसा पाठ हेतु प्रेरित करने से लेकर शक्ति संचार प्रक्रिया से जुड़ने हेतु सहमत करना व शाँतिकुँज का आमंत्रण देना भी इस साधना का ही एक अंग है। सप्ताह में एक बार अग्निहोत्र भी संपन्न किया जाय। यह पारिवारिक स्तर पर घर पर भी हो सकता है व समूह स्तर पर प्रज्ञा संस्थानों-शक्ति पीठों अथवा ऐसे स्थानों पर जहाँ सभी परिजन एक साथ सप्ताह या पखवाड़े में एक साथ एकत्रित होते हों। 10 फरवरी से 8 जून कुल चार माह तक यह क्रम चलेगा। व इसकी पूर्णाहुति 8−9−10 जून की अवधि में आयोजित त्रिदिवसीय विशिष्ट शिविर में भागीदारी करके शाँतिकुँज में संपन्न की जाएगी। 10 जून का गायत्री जयंती है, परम पूज्य गुरुदेव की द्वितीय पुण्यतिथि है। शक्ति-संचार साधना हेतु पंजीकरण का क्रम आरंभ हो चुका है। वंदनीया माताजी द्वारा अभिमंत्रित संकल्प सूत्र (कलाव) सभी भागीदारों को यहाँ से भेजा जा रहा है। इच्छुक साधकों से नाम, पूरा पता तथा जन्मतिथि लिखकर शाँतिकुँज हरिद्वार 249411 (उ. प्र.) के पते पर भेजने को कहा जा रहा है। पत्र पर ऊपर एक कोने में लिख दिया जाय “शक्ति संचार साधना” ताकि डाक की सुव्यवस्था करने में यहाँ कोई कठिनाई न हो। सभी साधकों को संकल्प सूत्र के साथ विस्तृत मार्गदर्शन करने वाली एक छोटी पुस्तिका भी भेजी जाएगी, जिसमें शक्ति संचार साधना की आवश्यकता व प्रक्रिया का विवरण होगा। समय कम है। सभी परिजनों से शीघ्र संपर्क करने का अनुरोध इन पंक्तियों के माध्यम से किया जा रहा है।


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