प्रलयंकर का पश्चाताप

February 1992

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“महेश्वर की जय” महामंत्री ने प्रवेश किया। किसी प्रकार मिहिरकुल का क्रोध शान्त न हुआ तो किसी भी दिन उसका मस्तक धड़ से अलग कर देने की आज्ञा दे बैठेगा। कोई उपाय होना चाहिए मिहिरकुल के मन की दिशा बदलने का। हूण-महामंत्री ने उपाय सोच लिया है, बड़े परिश्रम से साधन सफल करके वे स्वीकृति लेने आए हैं। हाथ जोड़कर बड़ी नम्रता से उन्होंने “कश्मीर विश्व की सौंदर्य भूमि है। श्रीमान की सेवा में इस सौंदर्य भूमि की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरियाँ ”।

‘क्या बकते हो? वह चिल्लाया गन्दी नाली के कीड़ों के साथ तुम मिहिरकुल की गिनती करना चाहते हो? उसने इतने जोर से घूँसा पटक दिया कि सामने रखी हाथी-दाँत की रत्न-जटिल चौकी टूट गयी। ‘मैं’। महामंत्री थर-थर काँपने लगे। उनके मुख से शब्द नहीं निकल पा रहा था।

‘फूलों से खेलना बच्चों का काम है और फूलों को खाकर नष्ट कर देना गन्दे कीड़ों का काम।’ मिहिरकुल गम्भीर बना बोल रहा था-तुमने कभी मुझे विलासी देखा है? मैं महेश्वर का आराधक प्रलयंकर महारुद्र का दास। ध्वंस-विनाश मेरी उपासना है। भव्य नगरों के खण्डहर मेरा यशगान करते हैं। मैं महेश्वर के श्रीअंग में जनपदों को श्मशान करके उनकी विभूति अर्पित करने की महती कामना हृदय में सेवित करता हूँ। वीणा की पिन-पिन और छुई-मुई लड़कियों की चें, चें, पें, पें मेरा मनोरंजन करेंगी? मेरा मनोरंजन?”

“श्रीमान !” जैसे मन्त्र प्रेरित कोई कार्य हो रहा हो उसकी दैत्याकार भयंकर आकृति। उपसचिव हाथ जोड़े कक्ष में आ खड़ा हुआ। केवल नेत्रों के संकेत से ही उसे अपनी बात कह देने की आज्ञा मिल गई। उसने निवेदन किया-सामने के शिखर पर पूरे सत्ताईस महागज चढ़ाए जा चुके हैं। नीचे जनसमूह श्रीमान की प्रतीक्षा कर रहा है।”

ठीक। “मिहिरकुल उठ खड़ा हुआ।” मन्त्री श्रेष्ठ! मेरे मनोरंजन से यदि आपका मनोरंजन हो सके तो साथ चल सकते हैं।

उसका मनोरंजन-कदाचित ही संसार में कोई इतना क्रूर आयोजन कभी करें। एक पर्वत की एक दिशा मिट्टी एकत्र करके ढालू बना दी गयी है और उस ढाल के सहारे किसी प्रकार चलते-फिरते पर्वतों जैसे हाथी पर्वत के शिखर पर पहुँचा दिए गए हैं। शिखर पर पहुँचा कर उनकी सूँड़ और पैर जंजीरों से जकड़ दिये गए हैं। बेचारे हाथी हिल तक नहीं सकते।

हृण सैनिकों ने खड्ग उठाकर जयघोष किया और वह उनके मध्य होता हुआ आगे आ खड़ा हुआ। उसे तड़क-भड़क स्वीकार नहीं। साज-सज्जा वह सदा अनावश्यक मानता है। मैदान साधारण स्वच्छ भर किया गया था। दोनों पैर फैलाकर दोनों हाथ कमर पर रख कर वह खड़ा हो गया पर्वत शिखर की ओर मुख करके।

शिखर पर हृण सैनिकों ने मोटे-मोटे लट्ठों के सहारे एक हाथी को धक्का दिया। बेचारा हाथी गिरा और लुढ़क पड़ा। चिंघाड़ मारता पर्वत से गिरिश्रृंग के समान लुढ़क चला वह दीर्घकाल गज। उसकी क्षण-क्षण बढ़ती करुण चिंघाड़-माँस रक्त भेद का लुढ़कता लोथड़ा और हा-हा करके अट्टहास करके नीचे उसे देख-देख वह प्रसन्न हो रहा था।

एक, दो, तीन-एक के बाद एक हाथी लुढ़काना जा रहा है। नीचे सैनिकों तक के भाल पर पसीने की बूँदें छलछला आयीं, उनके पैर काँपने लगे। थक-घबराकर सबने आँखें बन्द कर लीं। किन्तु मिहिरकुल वह क्या मनुष्य है? वह तो पिशाच है पिशाच। चल रहा था उसका पैशाचिक मनोरंजन। उच्च स्वर से वह बार-बार पुकार रहा था-एक और एक और लुढ़कने दो।

“श्रीमान ! सहसा प्रधान सेनापति घोड़ा दौड़ता हुआ आया। पसीने से लथपथ हाँफते हुए अस्त-व्यस्त सेनापति ने मर्यादानुसार ‘महेश्वर की जय’ का जो जयघोष किया वह भी थके व्याकुल कण्ठ से और घोड़े से कूद कर उसके पास आ खड़ा हुआ।

रुको दो क्षण ! वह अपने मनोरंजन में बाधा नहीं देना चाहता था। उसने सेनापति की ओर देखा तक नहीं।

“श्रीमान समय नहीं!” “सेनापति ने आतुरता से कहा-यशोवर्मा की अपार सेना ने चारों ओर नगर घेर लिया है। अपने सैनिक गिरते जा रहे हैं।”

“यशोवर्मा! चौंककर वह घूम पड़ा “ “कहाँ है यशोवर्मा?” ठीक कहाँ है यह कैसे कहा जा सकता है? लगता है कि नगर के सभी मोर्चों पर वही है । हूण सेनापति ठीक कह रहा था । यशोवर्मा का अश्व इतनी त्वरा से अपनी सेना के समस्त अग्रिम मोर्चों पर घूम रहा था कि स्वयं उसके सैनिक समझते थे कि उनका प्रधान सेनापति उनकी टुकड़ी के साथ है । हूण सेनापति इससे और भी अस्त-व्यस्त हो उठा था । उसने कहा “बहुत सम्भव है-कुछ क्षणों में वह यहीं दिखाई पड़े । इस पर्वत पर होकर ही निकल जाने का मार्ग रहा है ।”

“जय महाकाल" दिशाएँ गूँज रही थीं । नगरद्वार लगता था टूट चुके थे । कोलाहल पास आता जा रहा था । उसके लिए भाग जाने को छोड़कर दूसरा कोई मार्ग नहीं रहा था ।

पर्वत के मार्ग से वन-वन भटकना जैसे उसकी नियति हो गई । उसके सैनिकों कि संख्या घटती जा रही थी । कोई भूखों मरता, कोई पर्वत से लुढ़ककर जान गँवा बैठता, किसी को कच्ची हिम में लुप्त हो जाना पड़ता । हूण सैनिक पर्वतीय युद्ध के अभ्यस्त भले हों, हिमालय की शीत-हिम में निरन्तर भटके रहना कहाँ तक सहन कर सकते हैं?

“यशोवर्मा आ रहा है ।” भटकन ने उसके दैत्याकार शरीर को भी दुर्बल बना दिया । वह जिधर भटकता निकला है, जिस दिशा से जनपदों के पास पहुँचना चाहता उसे एक ही समाचार मिलता है -”यशोवर्मा की असंख्य सेना चढ़ी आ रही है ।”

“यशोवर्मा । कश्मीर में, नेपाल में, असम में जिधर जाओ उधर यशोवर्मा और उसकी असंख्य सेना । मिहिरमुल को ठीक समझना मुश्किल था कि कितने यशोवर्मा हैं । कितनी सेना हैं उसकी । जादू के अतिरिक्त यह सब कैसे सम्भव है।

“महाकाल की जय ।” स्वप्न से चौंका मिहिरकुल और उठकर बैठ गया “मैं भी तो उसी महाकाल महेश्वर का उपासक हूँ । क्या अपराध किया है मैंने महाकाल का ? मैंने रुद्र की अर्चना के लिए ही इतने ध्वंस किए और वही प्रलयंकर मुझ से अप्रसन्न होता गया ?”

उसने उठकर हाथ-पैर धोए, आचमन किया और बैठ गया नेत्र बन्द करके महेश्वर । प्रलयंकर महारुद्र । तूने क्यों एक जादूगर मेरे पीछे लगा दिया है ? क्या दोष है मेरी आराधना में ? मैंने कहाँ अपना स्वार्थ सिद्ध किया है ? उस पाषाण जैसे दीखने वाले भीमकाय व्यक्ति की आँखों से भी धाराएँ चल रही थी उस दिन ।

‘जय महाकाल ।’ जब हिम-शिखर अरुणोदय की अरुणिमा लेकर सिंदूरारुढ़ हो रहे थे, ध्यानस्थ मिहिरमुल ने नेत्र खोल दिये । एक गौरवर्ण शस्त्र सज्ज कांतिवान पुरुष उसके सामने खड़ा था । उसने स्थिर भाव से पूछा- “कौन?”

“यशोवर्मा ?” बड़े शान्त स्वर में उत्तर मिला “यशोवर्मा ?” सहसा उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ । हाँ । बहुत छोटा उत्तर था ।

“यशोवर्मा । तब तू मेरे प्राण छोड़ दे ।” उसने दीनता से कहा मैं मानता हूँ “महेश्वर की तुझ पर कृपा है । महेश्वर को छोड़कर किसी के आगे न झुकने वाला सिर तेरे आगे झुकाने के लिए तैयार हूँ ।”

‘तुम महेश्वर को ही मस्तक झुकाओ भाई !’ यशोवर्मा ने उसे हृदय से लगा लिया- ‘मैं तुम्हारे प्राण लेने नहीं आया । तुम्हें महाकाल-महेश्वर का संदेश देने आया हूँ ।-

क्या ? फटे नेत्रों से देखता रह गया वह हूण सम्राट ।

“महेश्वर केवल प्रलय के समय प्रलयंकर होते हैं !” यशोवर्मा शान्त स्वर में कह रहे थे “देखते नहीं” उन महाकाल का सुविस्तृत श्वेत स्वरूप! वे महाकाल आशुतोष शिव हैं । क्रूरता नहीं बन्धु ! सात्विकता उनकी सच्ची सेवा है । ध्वंस नहीं सृजन उनकी अर्चना है । नव निर्माण के लिए प्राणपण से प्रयत्न उनकी उपासना है । उठो ! चीन-हिंद से पश्चिमोत्तर प्रदेश तक का तुम्हारा समस्त प्रदेश तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है । तुम शक्तिशाली हो महान हो, विश्व को महेश्वर का यह पावन सन्देश दो।

“तुम सचमुच विजयी हो यशोवर्मा !” मिहिरकुल की आँखें भर आयीं । “सचमुच सात्विकता विजयी है । लेकिन मुझे अब राज्य नहीं चाहिए मैं तो महेश्वर की उस उत्तुंग विभु सात्विकता की उपासना करने जा रहा हूँ ।”

सैनिक उस छोटे से पर्वतीय शिविर को घेरे खड़े थे । जब यशोवर्मा बाहर आए-हूण सैनिक उनके पीछे चले आए । स्वयं यशोवर्मा ने मस्तक झुका रखा था । ध्वंस का परित्याग कर सृजन की अभिनव साधना में दीक्षित मिहिरकुल चला रहा था दूसरी ओर हिम श्रेणियों में दूर-दूर और उसकी वह धुँधली छाया नेत्रों में अदृश्य हो गयी।


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