ईश्वर से अपने लिये क्या माँगें?

February 1992

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आत्मा का सम्बन्ध परमात्मा से जुड़ता है और शरीर की निर्भरता पंचतत्वों से बने इस भौतिक संसार पर है दोनों ही पक्षों के मिलन से व्यक्ति का समग्र स्वरूप बनता है। साथ ही उसे दोनों क्षेत्रों से मार्गदर्शन एवं अनुदान मिलता है। इस समन्वय से ही समग्र सहयोग बन पड़ता है। हमें एक पक्षीय अवलम्ब नहीं अपनाना चाहिए। पक्षी दोनों पंखों से उड़ता है। गाड़ी दो पहियों से चलती है। हमें भी अपनी सुरक्षा और प्रगति के लिए दोनों ही क्षेत्रों से अवलम्बन ग्रहण करना चाहिए।

भौतिक जीवन में हमें पदार्थों की आवश्यकता पड़ती है। वस्तुओं की पग-पग पर आवश्यकता रहती है। शरीर, वस्त्र, आच्छादन जैसी अनिवार्य आवश्यकताओं के साधन प्रचुर परिमाण में इस संसार में भरे पड़े है, किन्तु वे अनायास ही दौड़कर शरीर से नहीं लिपट जाते उन्हें प्राप्त करने के लिए शारीरिक श्रम एवं बुद्धि कौशल का समुचित उपयोग करना पड़ता है। इसी को पुरुषार्थ कहते हैं। शारीरिक प्रयत्न कहते हैं, जिनके साथ ग्यारहवीं इन्द्रिय मन को भी जुड़ा रहना पड़ता है। अपनी तत्परता एवं श्रमशीलता के बलबूते उन पदार्थों को प्राप्त करते हैं जिनके शरीर की आवश्यकता रहती है अथवा विशेष आवश्यकता के भी, मन की तृष्णा या महत्त्वाकाँक्षा व्याकुल करती है। यह तो नहीं कहा जा सकता है कि हर किसी की बढ़ी-चढ़ी मनोकामनाओं की पूर्ति हो ही जाती है, पर इतना कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिये कि संसार के बाज़ार में हर वस्तु मौजूद है और उसे पुरुषार्थ का उचित मूल्य देकर सहज ही खरीदा जा सकता है। मनुष्य अपने बहिरंग भाग्य का निर्माता आप है। आलस्य-प्रमाद से ग्रसित होकर वह दरिद्रता और अभाव-ग्रस्तता के दल-दल में फँस सकता है और प्रयत्नरत रहकर अपनी प्रगति एवं समृद्धि को बढ़ाते चलने में समर्थ हो सकता है। शारीरिक संरचना प्रभु ने अनायास ही इस प्रकार की दी है कि उसे निर्वाह की किसी उचित सामग्री के लिए तरसना न पड़े

अर्थशास्त्र का एक सर्वोपरि नियम है- आदान-प्रदान किसान अपना गेहूँ तेली को देकर तेल खरीदता है। तेली अपने उत्पादन के बदले कपड़े खरीदता है। इसी प्रकार सामाजिक व्यवहार भी मिलजुल कर चलता है। हमारे घर में किसी की लड़की पत्नी बनकर प्रवेश करती है। यह उपलब्धि है, पर आगे चलकर वैसा ही हमें भी करना पड़ता है। अपनी पुत्री दूसरों का घर बसाने के लिए भेजनी पड़ती है। श्रम और समय का प्रतिफल पैसे के रूप में संग्रहित किया जाता है और फिर जब कभी किसी को श्रम या पदार्थ की आवश्यकता होती है तो उस पैसे को देकर आवश्यकतानुरूप पदार्थ या श्रम खरीद लेते हैं। इस प्रकार समूचा लोकजीवन आदान-प्रदान के आधार पर सहयोग, सहकारिता के भरोसे गतिशील है। इसकी आधारशिला तब बनती है जब लेने के लिए बदले में देने के लिए अपने पास कुछ हो। यह उपार्जन परिश्रम, कौशल एवं पुरुषार्थ के सहारे ही अर्जित किया जाता है। उसके लिए यदि आनाकानी की जाय-आलस्य प्रमाद बरता जाय तो खाली हाथ होने की दशा में बदले की कोई वस्तु हस्तगत न हो सकेगी और दरिद्रता, विपन्नता से घिरा रहना पड़ेगा। यही बात सहकार के संबंध में भी है। शरीर यात्रा के लिए जिन वस्तुओं कि आवश्यकता पड़ती है उनमें से अधिकाँश दूसरों द्वारा उत्पादित होती हैं। कोई ऐसा नहीं जो मात्र एकाकी प्रयास से अपनी आवश्यकता पूरी कर सके। अन्न, वस्त्र, पुस्तक, माचिस जैसी छोटी-छोटी वस्तुओं के लिए हमें दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है। मिलजुल कर ही सहयोगपूर्वक जीवनचर्या अधिक सुविधा सम्पन्न बनती है। यही प्रचलन है, यही व्यवहार है और यही है उत्कर्ष का विधि-विधान

शरीर हमारा दृश्य मात्र है। दूसरा चेतना अदृश्य पक्ष। इसे प्राण प्रवाह या जीव सत्ता भी कहते हैं। इसकी महिमा और गरिमा असाधारण है शरीर से भी कहीं अधिक। प्राणान्त हो जाने पर शरीर देखते-देखते सड़-गलकर समाप्त हो जाता है, किन्तु आत्मा, बिना स्थूल शरीर, सूक्ष्म और कारण शरीर के भी अपना अस्तित्व बनाये रह सकती है। वह लोक-लोकान्तरों में। भ्रमण करती हुई अपनी सत्ता का परिचय देती रह सकती है। शरीर का जन्म-मरण इसी जीव सत्ता के अधीन है, पर वह शरीर में निवास करती हुई भी उससे अलग है। सराय में मनुष्य ठहरता है फिर उसे छोड़कर आगे चल देता है। कपड़ा पुराना हो जाने पर, पसंद न आने पर उसे भी बदल लिया जाता है। इसी प्रकार आत्मा सीमित अवधि तक शरीर में टिकती है और वह समुह पूरा होने पर छोड़कर चली जाती है इससे प्रकट है कि आत्मा का उद्गम शरीर नहीं, वरन् परमात्मा है। परमात्मा से वह उन विभूतियों को प्राप्त करती है जिसके सहारे मात्र मनुष्य न रहकर महामानव, देवात्मा, सिद्ध पुरुष एवं अंश अवतारी बनता है। पुरुष से पुरुषोत्तम और नर से नारायण स्तर की सफलताएँ प्राप्त करने में सफल होता है। यह इस बात पर निर्भर है कि आत्मा ने परमात्मा के साथ कितनी घनिष्ठता जोड़ी और कितनी एकात्मता प्राप्त की।

आत्मा चेतन है। उसका सहधर्मी महाचेतन है, जो इस निखिल विश्व-ब्रह्माण्ड में समाया हुआ है। उसमें उच्चस्तरीय विभूतियाँ और दिव्य सिद्धि ही भरी पड़ी हैं। विकृतियाँ तो लोक जीवन की देन हैं। उसकी सड़न से पाप, दोष उत्पन्न होते हैं। परमात्मा तो सत्-आनंद स्वरूप है उन्हें निराकार, निर्विकार, न्यायकारी भी कहा जा सकता है। उसके साथ घनिष्ठता स्थापित करने के लिए हमारी पवित्रता एवं प्रामाणिकता बढ़ी-बढ़ी होनी चाहिए। दूध में शक्कर घुल सकती है, बालू नहीं। इस प्रकार परमात्मा के साथ तादात्म्य भाव वे ही स्थापित कर सकते हैं जिनमें बहिरंग में उत्कृष्टता, चिन्तन में आदर्श और चरित्र में सज्जनोचित व्यवहार का समावेश है।

ईश्वर का अंश इतनी सीमित मात्रा में सभी के अंदर है जिसके सहारे वह शरीरचर्या चला सके। उसके लिए आवश्यक साधन जुटा कर सुखपूर्वक रह सके, किन्तु यदि ऊँचा उठना, आगे बढ़ना है तो उसका एक ही उपाय है कि भावनात्मक दृष्टि से ईश्वर के प्रति अपना समर्पण किया जाय। द्वैत मिटाकर अद्वैत की स्थिति तक पहुँचा जाय। नाले का नदी में विसर्जित हो जाने की तरह अपनी चेतना को इस स्तर तक विकसित किया जाय कि भेदभाव की गुँजाइश ही न रहे। ईश्वर के आदेश ही अपने मनोरथ बन जाय । ईश्वर जैसा परमार्थ-परायण बनने में हमारी प्रवृत्ति हो। शरीर के साथ रहते-रहते लोक प्रचलनों में ढलते-ढलते जो दुष्प्रवृत्तियाँ अपने में समा गई हैं अनेकों निरस्त-परास्त किया जाय। इसके लिए संयम की, तपश्चर्या और उत्कृष्ट चिन्तन में निमग्न रहने की योग साधना का आश्रय लेना पड़ता है।

ईश्वर से क्या माँगें? क्या प्रार्थना करें? क्या चाहें? क्या आशा रखें? इस संदर्भ में अपनी मनोभूमि को सुनियोजित कर लेना चाहिये। दृष्टिकोण को ‘परिष्कृत कर लेना चाहिए। साँसारिक वस्तुएँ ,पुरुषार्थ और पात्रता पर निर्भर हैं। अपनी क्षमता- योग्यता बढ़ायें, तन्मयता-तत्परता बरतें और सत्प्रयोजनों के लिए प्रबल पुरुषार्थ करें? इतने भर से औसत नागरिक स्तर की सभी आवश्यकताएँ पूरी होती रहेंगी। तृष्णाओं, लिप्साओं की पूर्ति के लिए महत्त्वाकाँक्षाएँ गढ़ना और उनकी पूर्ति के लिए ईश्वर की मनुहार, उपहार से ललचाकर उन मनोरथों की पूर्ति के लिए आग्रह करना अनावश्यक है जिनकी वस्तुतः मनुष्य को जरूरत है नहीं। ईश्वर से पवित्रता और पात्रता ही माँगी जा सकती है, उससे उत्कृष्टता और आदर्शवादिता का अनुरोध ही किया जा सकता है, ऐसी ही प्रार्थनाएँ स्वीकृत भी होती हैं।


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