दो विरोधाभास का समुच्चय, हमारी जगती

February 1992

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छाया की प्रतिच्छाया, बिंब, का प्रतिबिंब, ध्वनि की प्रतिबिंब, ध्वनि की प्रतिध्वनि, मैटर का एण्टीमैटर एवं यूनिवर्सल का एण्टीमैटर एवं यूनीवर्स का एण्टीयूनीवर्स अस्तित्व में होते हैं- यह तो सर्वविदित तथ्य है, किन्तु अब ज्ञात हुआ है कि समुद्री जलों और वायु-प्रवाहों में पायी जाती है । यह निसर्ग का शाश्वत नियम है कि जहाँ देव हैं, वहाँ दानव भी रहेंगे-जहाँ विकास है, वहाँ विनाश का ताण्डव नर्तन भी रहेगा-जहाँ सीधा है, वहाँ उल्टा क्रम भी देखने को मिलेगा, इसमें आश्चर्य जैसी काई बात नहीं । परमाणुओं में एलेकट्रन और प्रोटान दो सर्वथा विपरीत प्रकृति के कण साथ होते हैं । ऋतुओं में सर्दी-गर्मी दोनों होती हैं । जहाँ दिन है, वहाँ रात भी होगी ही ।

समुद्री जलों और वायु-स्तरों में विपरीत प्रवाह इसी शृंखला की कड़ी हैं, जो इन्हीं दिनों प्रकाश में आये हैं । अभी कुछ वर्ष पूर्व पोन्स-डी लीयोन नामक स्पेनिश यात्री जहाज से अटलांटिक महासागर में दक्षिण दिशा की ओर यात्रा कर रहा था और हवा भी उसी दिशा में बह रही थी, जहाज में लगे पाल से यह स्पष्ट विदित हो रहा था, किन्तु लीयोन को अचम्भा तब हुआ, जब यह पता चला कि जहाज वास्तव में दक्षिण की ओर नहीं, वरन् उत्तर की दिशा में बढ़ रहा है । इस विलक्षणता की छानबीन करने पर मालूम हुआ कि समुद्र सतह और नीचे के जल-प्रवाह में आश्चर्यजनक विपरीतता है । जाँच-पड़ताल से पाया गया कि नीचे का जल-प्रवाह ऊपर की तुलना में अधिक तीव्र और प्रचण्ड था तथा वह उत्तर की ओर प्रवाहित हो रहा था । चूँकि जहाज का जल के नीचे का भाग इस प्रचण्ड प्रवाह के अंतर्गत आता था, अतः ऊपर का जल-प्रवाह दक्षिण दिशा की ओर बहने के बावजूद भी जहाज निरन्तर उत्तर की ओर बढ़ा जा रहा था । यह फ्लोरिडा-प्रवाह अटलांटिक महासागर में खाड़ी क्षेत्र से प्रारंभ होकर नार्वे तक करीब तीन हजार मील की परिधि में फैला हुआ है । खाड़ी प्रवेश से आरंभ होने के कारण यह “गल्फ स्ट्रीम” के नाम से भी जाना जाता है। इससे पूर्व भी अठारहवीं सदी में जब अमेरिका ब्रिटेन का उपनिवेश था, तब भी व्यापारियों एवं नाविकों को इस अद्भुत प्रवाह के बारे में जानकारी थी । क्योंकि व्यापार के संदर्भ में अथवा व्यापार हेतु जब उन्हें इंग्लैण्ड से अमेरिका की यात्रा करनी होती, तो वे सदा इस “गल्फ स्ट्रीम” नामक प्रवाह से बच कर निकलते, जिससे अमेरिका काफी समय पूर्व पहुँच जाते, जबकि अँग्रेजी सरकार के जहाजों को इसका पता न होने और “गल्फ स्ट्रीम” से होकर यात्रा करने से उन्हें वहाँ पहुँचने में कम-से-कम दो सप्ताह का विलम्ब हो जाता, कारण कि गल्फ स्ट्रीम में प्रचण्ड विपरीत प्रवाह होने के कारण जहाजों की गति वहाँ काफी धीमी हो जाती । बाद में जब इसका पता चला, तो वे भी उस प्रवाह से बच कर निकलने लगे, जिससे समय और ईंधन की काफी बचत होने लगी ।

सन् 1970 में मैक्सिको की खाड़ी से अमरीका के पूर्वी तट तक इस स्ट्रीम का लाभ उठाने से प्रति यात्रा दस हजार डालर ईंधन की बचत होती पायी गई, क्योंकि इस यात्रा में स्ट्रीम का प्रवाह अनुकूल होता था, जिससे जहाजों की गति काफी तेज हो जाती थी और वे निर्धारित समय से पूर्व गन्तव्य पर पहुँच जाते थे । इसी प्रकार मियामी विश्वविद्यालय के ओसनोग्राफी विभाग के विशेषज्ञों ने सन् 1963 में अटलांटिक महासागर में एक अन्य ऐसे ही प्रवाह की खोज की थी।

यह बात नहीं कि सिर्फ अटलांटिक महासागर में ही जल की दो विपरीत धाराएँ साथ-साथ बहती हैं ।

प्रशान्त महासागर में भी ऐसी अनेक धाराएँ देखी गई हैं। इसमें इस तरह की प्रथम घटना का पता सन् 1952 में तब चला, जब अमेरिकी सरकार के मत्स्य विभाग के एक अधिकारी टाउनसेण्ड क्रोमवेल मछलियों के अध्ययन हेतु एक जहाज में पश्चिम की ओर बढ़ रहे थे। मछलियाँ पकड़ने के लिए जब इस दौरान एक जाल समुद्र के गहरे जल में डाला गया, तो मछलियों समेत जाल पूर्व की ओर बलपूर्वक खिंचने लगा। यह देख अधिकारी को बहुत हैरानी हुई जाँच-पड़ताल करने के उपरान्त ही यह जाना जा सका कि भीतर का जल विपरीत दिशा में प्रवाहमान है और उसकी गति बाहरी प्रवाह की तुलना में कहीं अधिक तीव्र है। इसी के कारण यह विलक्षण दृश्य दृष्टिगोचर हो रहा था। बाद में इस स्ट्रीम का नाम “क्रोमवेल प्रवाह” रखा गया। उत्तरी प्रशान्त महासागर में भी एक ऐसा ही प्रवाह पाया जाता है, जिसे “कुरोसिओ प्रवाह” कहते हैं, जो जापान के द्वीप समूहों तक जाकर पूरब की ओर मुड़ जाता है। यहाँ इसे "कैलीफोर्निया प्रवाह” कहते हैं। अफ्रीका के पश्चिम तट के निकट बहने वाला उक्त प्रवाह “बेनेजुएला” और पेरु से आने वाला स्ट्रीम “हम्बोल्ट प्रवाह” कहलाता है। दोनों प्रवाह यहाँ परस्पर मिलते हैं।

जब ऊपर-नीचे बहने वाले विपरीत जल-प्रवाहों की चपेट में पड़ कर व्यापारियों का काफी समय बरबाद होने लगा, और व्यापार में उसका प्रतिकूल असर पड़ने लगा, तो विश्व के समस्त व्यापारिक संगठनों और मियामी विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों ने मिलकर लम्बे समय के परिश्रम के पश्चात् समस्त सागर क्षेत्र का एक ऐसा नक्शा तैयार किया, जिसमें इस प्रकार के प्रवाहों को दर्शाया गया था। इससे व्यापारियों को काफी लाभ हुआ और इन प्रवाहों में पड़कर व्यापारिक जहाजों का जो अनावश्यक समय बरबाद होता था, उसे वे बचाने में इसके बाद सफल हो सके।

यह तो समुद्री प्रवाहों की चर्चा हुई, किन्तु इस प्रकार के विपरीत प्रवाह केवल जल तक ही सीमित होते हों, ऐसी बात नहीं है। ऐसे परस्पर विरोधी प्रवाह वायुमंडल की हवा में भी पाये जाते हैं। ऐसे वायु-प्रवाहों की ऊँचाई समुद्री सतह से 20 हजार से 35 हजार फुट तक होती है। इनमें वायु 400 मील प्रति घंटे की प्रचंड गति से बहती है, जिसका लाभ वायुयान के चालक ईंधन की बचत करने और गन्तव्य तक शीघ्रातिशीघ्र पहुँचने में उठाते हैं।

यह प्रकृति भी कितनी विचित्र और विलक्षण है। इसमें न जाने कैसे-कैसे प्रवाह निरन्तर बहते रहते हैं। स्थूल जगत को देखें, तो यहाँ भी दो प्रकार के लोग दिखाई पड़ते हैं एक जो सदा सन्मार्गगामी कार्यों में संलग्न प्रतीत होते हैं, तो दूसरे कुमार्गगामी प्रवृत्ति अपनाते देखे जाते हैं। ऐसे लोग निरंतर अपने स्वार्थ के लिए, औरों को, समाज को, राष्ट्र को, पतन के गर्त में धकेलने में तनिक भी संकोच अनुभव नहीं करते। यह भी प्रकारान्तर से दो विपरीत श्रेष्ठ और निकृष्ट चेतना-प्रवाह के प्रभाव-परिणाम हैं। यह दोनों प्रकार की धाराएँ हर काल में परोक्ष जगत में साथ-साथ बहती रहती हैं, अन्तर सिर्फ इतना होता है कि कभी निकृष्ट प्रवाह प्रबल हो उठता है, तो कभी श्रेष्ठ चिन्तन-चेतना प्रभावी होती दिखाई पड़ती है। इन दिनों दैवी सत्ता का उदात्त चेतन-प्रवाह बलवती हो उठने के कारण ही समस्त संसार में सर्वत्र विवेक-बुद्धि जाग्रत होती दिखाई पड़ने लगी है। इसका स्पष्ट प्रमाण-परिचय समूचे विश्व में होने वाले युगान्तरकारी परिवर्तनों से मिलने लगा है। अस्तु, अगले दिनों यदि आसुरी सत्ता लुक-छिप कर अपना अस्तित्व बचाने की फिराक में इधर-उधर भयभीत होकर भागती दिखाई पड़े, तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए, अपितु इसे नियन्ता का एक सुनिश्चित पूर्व निर्धारण मानना चाहिए।


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