सदाचरण की शक्ति

February 1992

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

“समस्त आर्यावर्त कबन्ध के कुत्सित कर्मों को धिक्कारता है तात ! आज तो उसने अपनी भी एक शत गौवें बलात् अपहरण कर लीं, उसका लक्ष्य अपनी कामधेनु को चराना था पर लगता है दस्यु उसे पहचान नहीं सके । इतना हो जाने पर भी आप कबन्ध की भर्त्सना नहीं करते । आर्यश्रेष्ठ ! आप तो मन्त्रज्ञ हैं । एक क्या एक हजार कबन्धों के प्राण आप एक क्षण में ले सकते हैं । मन्त्र न भी सही जनमत आपके आदेश की अवज्ञा नहीं करता, आप एक संकेत कर दें तो सारी प्रजा उठ खड़ी हो और दस्युराज कबन्ध के टुकड़े-टुकड़े कर डाले । फिर ऐसी क्या दया, क्या-सहिष्णुता यह तो निरी कायरता है । “ आचार्य पत्नी ने महर्षि व्यास को आज आड़े हाथों लिया ।

उन्होंने लेखनी को एक पल का विराम दिया । पास पड़े भूर्जपत्रों को एक ओर कर उसकी ओर देखा। पत्नी के चेहरे पर अभी भी खीज़ के चिन्ह थे । लेकिन वे स्वयं इस तीखेपन पर न खीझे न उत्तेजित हुए । शान्त-निर्मल मन और मधुर वाणी से बोले “भद्रे ! मनुष्य अपने अन्तःकरण से पापी है न बुरा । साँसारिक परिस्थितियाँ कभी किसी को बुरा बना दें तो उसका यह अर्थ नहीं कि उसे सिखाने समझाने की अपेक्षा मार डाला जाय । शरीर भगवान देता है , दण्ड तो दिया जा सकता है पर ईश्वर के दिए अधिकार को छीनना उचित नहीं ।

“किन्तु क्या आप जानते हैं कि आप जैसी उदारता ही बुराइयों को बढ़ावा देती हैं-सब में एक ही निर्मल आत्मा देखने के आपके दर्शन को बधाई । पर जिसके कारण सारी प्रजा त्रस्त हो रही है उसे बुरेपन को भी तो देखिए आर्यश्रेष्ठ ।” आचार्य पत्नी ने अपने शब्दों को थोड़ा कोमल बनाने का प्रयास किया । इस प्रयास के बावजूद स्वरों में उग्रता का काफी कुछ अंश था । यह उग्रता उन्हें अपने पिता महाअथर्वण से विरासत के रूप में मिली थी । महर्षि बोले “देवि ! कबन्ध जैसी वीरता क्या किसी सेनापति में है ? उसका स्वास्थ्य, आरोग्य, साहस स्फूर्ति और अपने काम में पूर्ण दत्तचित्तता जैसे गुणों की क्या सराहना नहीं हो सकती जो उसमें बुराइयाँ देखीं और निन्दा की जाए । तुम नहीं जानती प्रिय-व्यक्ति आत्मीयता, मान और प्यार का भूखा होता है । यदि कबन्ध को यह मिले होते तो वह दस्यु न होकर इस देश का वीरवर सेनानायक होता ।”

अपने सम्मुख शत्रु की प्रशंसा आर्य रमणी को किंचित् सहन न हुई वे कुद्ध हो उठीं और बोलीं “अति भावुकता राष्ट्र को पतन की ओर ले जाती है आर्य ! आप यह भी भूले मत ।” कहते-कहते उठ खड़ी हुई और वहाँ से चलने को समुद्यत हुई ही थीं कि चन्द्रद्युति के शीतल प्रकाश में एक सुडौल आकृति उन्हें अपनी ओर आती दिखाई दी । ध्यान बँटा ‘उन्होंने उस ओर दृष्टि गढ़ाकर देखा कुछ विस्मित कुछ भय से आक्रान्त महर्षि पत्नी कुछ कहें इससे पूर्व ही उस आकृति ने आगे आकर उनके चरणों का स्पर्श किया और फिर महर्षि के पैरों में गिरते हुए उसने कहा “तात ! वह पापी कबन्ध में ही हूँ जिसकी आप इतनी देर से प्रशंसा कर रहे थे । देव । आपकी कामधेनु चुराने मैं स्वयं आया था-हतबुद्धि में आपके प्राण हरण तक के लिए उतारू था किन्तु आज आपके आत्मीयता ने मुझे परास्त कर दिया और अधिक पाप के लिए अब मेरे हाथ नहीं उठते । जो चाहे दण्ड मुझे दें मैं पूरी तरह आपको आत्म समर्पण करता हूँ ।”

महर्षि ने एक स्नेह भरी दृष्टि अपनी धर्मपत्नी की ओर डाली फिर कबन्ध को अपनी भुजाओं में लेते हुए उन्होंने स्नेह विगलित स्वर में कहा- “उठो तात ! भूलें स्वभावतः मनुष्य से ही होती हैं पर उन्हें सुधारने वाला सराहनीय होता है । उठो ! अब तक के किए पापों का प्रायश्चित्त कर डालो तुम अब भी अपनी आत्मा का प्रकाश ग्रहण कर सकते हो , करोगे ?”

महर्षि पत्नी वाटिका पास खड़ी किंकर्तव्य विमूढ़ सारा दृश्य देख रही थी । उन्हें अनुभव हो रहा था कि सदाचार की शक्ति अनाचार से हजार गुना बढ़ कर है । जो कार्य राष्ट्राध्यक्ष और उनकी सेना नहीं कर सकी वह एक व्यक्ति के सदाचार ने कर दिखाया ।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles