ब्रह्मवर्चस् का शोध अनुसंधान-3

February 1992

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(गतांक से जारी)

आहार संयम को भारतीय साधना विज्ञान व दर्शन के अनुसार एक तप-तितिक्षा माना गया है। जहाँ चिन्तन का परिष्कार करने वाली विधा का नाम ‘योग‘ है, वहाँ चरित्र में निखार लाने वाली प्रक्रिया ‘तप’ कहलाती है। आत्मिक प्रगति व व्यक्तित्व परिष्कार के ये दो महत्वपूर्ण आधार हैं। इसीलिए साधना प्रक्रिया में ध्यान-धारणा इत्यादि महत्वपूर्ण सोपानों की सफलता तभी मानी जाती है, जब तप-तितिक्षा द्वारा व्यक्ति ने अपने को अग्निपरीक्षा से गुजर जाने दिया हो। तप यों कई प्रकार के हैं, पर ब्रह्मवर्चस् की शोध प्रक्रिया में उसके आहार पक्ष को प्रमुखता देते हुए साधकों पर प्रयोग परीक्षण किये गये कि किस प्रकार आहार का अंतःकरण मन व शरीर पर प्रभाव पड़ता है तथा उस माध्यम से आँतरिक परिशोधन कैसे संभव हो पाता है?

मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय माना गया व शरीर का ही एक अंग भारतीय दर्शन ने माना है। अंतःकरण इससे गहरी परत है जहाँ से आस्थाएँ, संवेदनाएँ जन्म लेती हैं। प्रकारान्तर से आहार का स्तर ही व्यक्ति के भावनात्मक मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य का निर्धारण करता है। आहार में सात्विकता का समावेश हो व आहार निग्रह करने में साधक सफल हो तो मनोनिग्रह कठिन नहीं रह जाता। अन्न, फल, शाक दूध जो भी कुछ आहार में लिया जाता है, शरीर को तो प्रभावित करता ही है, साथ ही व्यक्ति की चिंतन प्रक्रिया व इसकी मूलभूत आस्थाओं तक के निर्माण के लिए वह उत्तरदायी है। इस दृष्टि से आहार निग्रह की साधना पद्धतियों में बड़ी प्रमुख भूमिका मानी जाती है।

आहार नियमन की एक प्रक्रिया चांद्रायण कल्प है, जिससे एक माह की अवधि में नियमित समय पर नियमित रूप से पूर्णिमा से क्रमशः ग्रास घटाते चलना व अमावस्या से क्रमशः बढ़ाते चलकर पूर्व आहार की स्थिति में पहुँचना, यह प्रक्रिया संपन्न होती है। यह एक माह का अनुष्ठान बड़ा ही सटीक व विज्ञान सम्मत है व साधक के धैर्य-अनुशासन-आत्मबल की कड़ी परीक्षा यह ले लेता है। जितना साधक नियमित रूप से भोजन लेते हैं या जहाँ से आरंभ करना चाहते हैं, वह पूर्ण आहार पूर्णिमा के दिन ले लेते हैं। क्रमशः एक-एक ग्रास उसमें से कम करते जाते हैं, जैसे-जैसे चन्द्रमा की कलाएँ घटकर अमावस्या आती है। हो सकता है दो या तीन दिन निराहार की भी स्थिति रहे। तत्पश्चात् क्रमशः बढ़ाते हुए पूर्णिमा तक उसे पूर्व स्थिति में पहुँचा देते हैं। इस अवधि में तरल प्रवाही द्रव्य व गंगाजल लेते रह सकते हैं पर इनका भी बारम्बार लेना वर्जित बताया गया है। चूँकि यह प्रक्रिया क्रमशः संपन्न होती है शरीर को शोधन को व फिर निर्माण का पर्याप्त समय मिल जाता है। मनोबल व आत्मबल बढ़ता है तथा अनेकानेक रोग जिनने पूर्व में घर कर रखा था, जाने कहाँ गायब हो जाते हैं। गीताकार की उक्ति “विषया विनिवतन्ते निराहारस्य देहिनः” (2/59) अर्थात् “उपवास करने से विषय विकारों की निवृत्ति होती है,” बिल्कुल सही बैठती है।

व्रत-उपवास का वर्तमान क्रम जिसमें पेट को आराम देने के स्थान पर फलाहारी सामग्री ठूँस-ठूँस कर खायी जाती है, तो और भी बीमार कर देने वाला है। सामान्य तथा जनसामान्य में यही भ्रान्तियाँ संव्याप्त हैं। प्रदोष, एकादशी विभिन्न पूर्णिमाओं के व्रत व मान्यता मानने के कारण रखे गए उपवास कई स्त्री पुरुष निभाते देखे जाते हैं, पर उसका वाँछित प्रतिफल मिलता नहीं देखा जाता। अतिवाद ही देखा जाता है। या तो कुछ भी नहीं ग्रहण करेंगे या करेंगे तो नियमित क्रम से भी अधिक लेकर अपना हाजमा और बिगाड़ लेंगे। एक दिन न लेने व दूसरे दिन सामान्य रूटीन पर आने से आँतों पर प्रतिकूल दबाव पड़ता है अतः व्रत-उपवास किये तो जायें पर विज्ञान सम्मत तरीके से ताकि शरीर की क्रिया पद्धति पर अन्यथा प्रभाव न पड़े। यह समझना अत्यावश्यक है क्योंकि इस संबंध में अत्यधिक भ्रान्तियाँ संव्याप्त हैं।

कल्प प्रक्रिया के साथ अस्वाद व्रत भी जुड़ा हुआ है। बिना मिर्च-मसाले का नमक का, भोजन खाने का सबको अभ्यास भी नहीं होता। किन्तु यदि प्रकृति में विद्यमान लौकी, तोरी, गाजर, परवल, जैसे शाक तथा खरबूजा, अमरूद, पपीता जैसे फलों पर ही निर्वाह एक माह तक बिना किसी मसाले व नमक इत्यादि के प्रयोग के किया जा सके तो मानना चाहिए कि बहुत बड़ा तप निभ गया, नमक न खाने पर भोजन लगता तो बेस्वाद है पर धीरे-धीरे कुछ ही दिनों में अभ्यास पड़ने पर नमक वाला भोजन बेस्वाद कड़ुआ लगने लगता है। नमक जो अतिरिक्त मात्रा में लिया जाता है तथा मिर्च मसाले चित्त की उत्तेजना बढ़ते, मन को अस्थिर करते व शारीरिक स्वास्थ्य को बेतहाशा नुकसान पहुँचाते देखे गए हैं। जितना आवश्यक है उतना नमक प्राकृतिक रूप से शाकों-फलों में विद्यमान है। किन्तु अतिरिक्त मात्रा जितनी डाली जाती है वह रक्तवाहिनी नलिकाओं से लेकर गुर्दे तक तथा काया के ऊतकों से लेकर मस्तिष्क की कोषाओं तक सबको हानि पहुँचाती है। यदि शाकाहार या दुग्ध आहार का कल्प करके रहा जा सके तो उत्तम है। यदि यह संभव न हो तो एक विकल्प के रूप में शाँतिकुँज में व्यवस्था बनायी गयी कि भाप से अन्न, शाक की खिचड़ी पकाकर अमृताशन रूपी इस आहार को साधक ग्रहण करें। औषधि के रूप में थोड़ी सी हल्दी उसमें पहले ही डाल दी जाती थी। खुराक का नियंत्रण साधक के हाथों सौंपा गया था ताकि वे स्वयं आत्मानुशासन द्वारा स्वयं को प्रशिक्षित कर सकें।

इस आहार कल्प साधना में दुग्ध, मट्ठा फलाहार सबकी छूट रखी गयी। शाकाहार अर्थात् कच्चे रूप में सलाद-पालक-टमाटर गाजर, मूली आदि लेने वालों का अनुपात अधिक रहा। बल्क बन जाने से व रेशे की समुचित मात्रा होने से पेट में दर्द-अपच-कब्ज आदि की परेशानी भी किसी को नहीं हुई। साथ ही सुसंस्कारिता का भी समुचित ध्यान रखा गया। कहा गया है “अन्नौ वै मनः” जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन”। यदि अन्नादि ग्रहण किये गये आहार में सात्विकता नहीं है तो साधना प्रयोजन में सफलता संदिग्ध ही रहेगी।

आहार पर चढ़े हुए कुसंस्कारों का परिशोधन करने के लिए गौमूत्र की महत्ता मनीषी-शास्त्रीगण कहते आए हैं। वह आज और भी सही है क्योंकि रासायनिक खादों, सीवर लाइनों की गन्दगी व ट्रेचिंग ग्राउण्ड में पनपी फसलें मात्रा की दृष्टि से भले ही नफे का सौदा हों, गुणवत्ता व संस्कारों की दृष्टि से उन्हें घटिया ही माना जाएगा। कीड़े मारने वालों की दवाएँ (इन्सेक्टीसाइड्य) जिनका खूब विज्ञापन दूरदर्शन-अख़बार करते रहते हैं फसलों पर गोदामों पर छिड़काई जाती रहती है व खाद्यपदार्थों में उनका अंश मिल जाता है। बोने वालों से लेकर काटने वालों तथा भंडार करने वालों से लेकर विक्रय करने वाले सभी के संस्कार भी उस अन्न-शाक-फल में आ जाते हैं। गौमूत्र मिश्रित गंगाजल से साफ किये गए अन्नादि आहार को ही ग्रहण किया जाना साधक के लिए उत्तम माना गया है। यही नहीं स्वयं पका सकें, इसलिये सारी व्यवस्था भी यहाँ जुटायी गयी ताकि व्यक्ति के निज के बदलते उत्कृष्ट संस्कारों का आरोपण आहार पर हो। किसी और के पकाने पर उसके संस्कारों का प्रभाव पड़ता है, यह तथ्य सभी जानते हैं। जिनसे यह संभव न ही था, उनकी व्यवस्था वंदनीया माताजी के चौके में की गयी जिसमें परिशोधन-परिपाक की व्यवस्था स्वयं उनके द्वारा देखी जाती रही। स्वयं माताजी अपने हाथों से प्रज्ञापेय, पंचगव्य औषधि कल्क, हविष्यान्न की एक छोटी रोटी व चटनी सभी साधकों को देती थीं तथा पकाए एक अमृताशन में गंगाजल व हल्दी स्वयं डालती थीं।

फलों-शाकों-अन्नों के सम्मिश्रित रूप के अतिरिक्त अँकुरित मूँगे, मूँगफली, चना व गेहूँ के भी प्रयोग कुछ साधकों ने साथ-साथ किए। तुलसी, शंखपुष्पी, ब्राह्मी, शतावरी, गिलोय, अश्वगंधा, आमलकी जैसे रसायन परक-मेधा-बलवर्धक औषधियों का कल्प भी साधकों को कराया गया। इनका क्वाथ-कल्क या अर्क बनाकर पिलाने का क्रम रखा गया था। किस औषधि का किसके लिए निर्धारण किया जाय, इसके लिए साधक का परिपूर्ण परीक्षण कर प्राप्त निष्कर्षों के अनुरूप ही देने का क्रम रखा गया। औषधि कल्प में फलाहार शाकाहार भी औषधियों का सजातीय चुना जाता है। इस प्रकार सम्मिश्रित प्रभाव कल्प प्रक्रिया को अति प्रभावी बना देता है।

सब मिलाकर परिणाम क्या रहे व क्या कायाकल्प जैसी प्रक्रिया संभव है, यह जानने को उत्सुक साधकों की जिज्ञासा का समाधान क्रमशः ही हो पाएगा। वस्तुतः आहार साधना का यह उपक्रम व्यक्ति का एक माह में सर्वांगपूर्ण कायाकल्प कर सकने में संभव है, यदि व्रतशील साधक सारे व्रतों का निर्वाह करते हुए अपनी पूर्णता तक पहुँच सके। पुराने अभ्यस्त ढर्रे से छुटकारा पाना व नवीन जीवनक्रम आरंभ कर पाना एक प्रकार से नये जन्म के समान हैं। शरीर में हलकापन लगने से लेकर स्फूर्ति में वृद्धि, मनन एकाग्र होने से लेकर नीरोग-दीर्घायुष्य होने जैसे लाभ सभी को अभीष्ट हैं व ये सभी आहार साधना से मिलते हैं। -क्रमशः


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