कैसे जगाएँ प्रसुप्त प्राणाग्नि को

February 1992

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मानवी काय सत्ता में शक्ति का अजस्र भाण्डागार बीज रूप में प्रसुप्त स्थिति में दबा भरा पड़ा है , जिसे योगाग्नि, प्राणऊर्जा, जीवनी शक्ति, कुण्डलिनी आदि नामों से जाना जाता है । परमाणु के नाभिक में प्रचण्ड शक्ति भरी पड़ी है, पर वह दिखाई पड़ती और उपयोग में तभी आती है जब एक सुनिश्चित वैज्ञानिक प्रक्रिया अपनाकर नाभिकीय विखण्डन कराया जाता है । यह प्रक्रिया अत्यन्त जटिल है और खर्चीली भी । कुण्डलिनी महाशक्ति भी हर मनुष्य में सुषुप्तावस्था में पड़ी रहती है । सामान्य मनुष्य कामोल्लास के अतिरिक्त उस भाण्डागार से और कोई विशेष लाभ नहीं उठा पाता । प्राणायाम की विशिष्ट प्रक्रिया उस महाशक्ति के जागरण ऊर्ध्वगमन में विशेष भूमिका निभाती है । कुण्डलिनी जागरण के लिए प्राणशक्ति का प्रचण्ड आघात आवश्यक होता है । इसके लिए निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त प्राणतत्त्व को आकर्षित करना तथा अपने भीतर भरता पड़ता है । सूर्यभेदन प्राणायाम इस प्रयोजन के लिए सर्वाधिक सहायक सिद्ध होता है । प्राणाग्नि का उद्दीपन, उन्नयन एवं सुनियोजन ही भौतिक सिद्धियों एवं आध्यात्मिक ऋद्धियों का मूलाधार है ।

प्राण के प्रहार से प्रसुप्त ऊर्जा के उद्दीपन, प्रज्ज्वलन का उल्लेख करते हुए साधना ग्रन्थों-योगशास्त्रों में कहा गया है कि कुण्डलिनी प्राणाग्नि है । उसमें सजातीय तत्वों का ईंधन डालने से ही उद्दीपन होता है । सूर्यभेदन प्राणायाम द्वारा सूर्य से प्राणशक्ति आकर्षित करके उसे इड़ा-पिंगला के माध्यम से मूलाधार में अवस्थित चिनगारी जैसी प्रसुप्त अग्नि तक पहुँचाया जाता है तो वह भभकती है और जाज्वल्यमान लपटों के रूप में सारी सत्ता को अग्निमय बनाती है । प्राण का मूलाधार स्थित जीवनी शक्ति पर प्रहार तथा उद्दीपन-यही है सूर्यभेदन प्राणायाम का लक्ष्य इसकी सफलता पूरी तरह इच्छा भावना एवं संकल्प की दृढ़ता के ऊपर निर्भर करती है । विधि इस प्रकार है ।

किसी शान्त एकान्त स्थान में प्रातःकाल पूर्व दिशा की ओर मुँह करके स्थिर चित्त होकर बैठना चाहिए । आसन सहज हो, मेरुदण्ड, सिर और ग्रीवा सीधी हों नेत्र अधखुले, घुटने पर दोनों हाथ । सूर्यभेदन प्राणायाम के लिए इसी मुद्रा में बैठना चाहिए ।

दाएँ नासिका का छिद्र बंद करके बाएँ से धीरे-धीरे साँस खींचना चाहिए । भावना यह हो कि वायु के साथ सूर्यस्थ प्राण ऊर्जा की प्रचुर मात्रा भी आकर्षित हो रही है । यह प्राण ऊर्जा सुषुम्ना मार्ग से ऋण विद्युत प्रवाह ‘इड़ा’ नाड़ी द्वारा मूलाधार तक पहुँचाती और वहाँ अवस्थित प्रसुप्त चिनगारी को झकझोरती, थपथपाती और जाग्रत करती है । यह सूर्यभेदन प्राणायाम का पूर्वार्द्ध-पूरक है । उत्तरार्ध में प्राण को सुषुम्ना स्थिति धनविद्युत प्रवाह वाली पिंगला नाड़ी में से होकर वापस लाया जाता है । प्रवेश करते समय अन्तरिक्ष स्थित प्राण शीतल होता है-ऋणधारी भी शीतल मानी जाती है । इसीलिए “इड़ा” को चन्द्रनाड़ी कहते हैं । श्वास को बायें नथुने से अन्तर्कुम्भक के बाद लौटाया जाता है । वापस लौटते समय अग्नि उद्दीपन-प्राण प्रहार की संघर्ष प्रक्रिया से ऊष्मा बढ़ती है और प्राण में सम्मिलित होती है । लौटने का पिंगल मार्ग धनविद्युत का क्षेत्र होने से उष्ण माना गया है । दोनों ही कारणों से प्राणवायु उष्ण बनी रहती है । इसलिए उसे सूर्य की उपमा दी गई । इड़ा चन्द्र और पिंगला सूर्य है ।

इस प्राणायाम की विशेषता यह है कि इसमें पुनः सूर्यनाड़ी (दायें नथुने) से पूरक एवं चन्दा नाड़ी (बायें नथुने) से रोचक किया जाता है । मूलाधार पर प्राण प्रहार तथा प्राणोद्दीपन की भावना सतत् करनी पड़ती है । इस प्रकार यह प्राणायाम यौगिक चक्रों को जगाने वाला एक सशक्त प्राणायाम है ।

योग साधना में क्रिया-कृत्यों कि तुलना में भावना आस्था एवं संकल्प का महत्व अधिक है । साधक को इसके अनुरूप ही लाभ मिलता है । श्वास द्वारा खींचे हुए प्राण को मेरुदण्ड मार्ग से मूलाधार तक पहुँचाने का संकल्प दृढ़तापूर्वक करता पड़ता है । यह मान्यता परिपक्व करनी पड़ती है कि निश्चित रूप से सूर्य मण्डल या अन्तरिक्ष से खींचा गया और श्वास द्वारा मेरुदण्ड-सुषुम्ना मार्ग से प्रेरित किया गया प्राण मूलाधार तक पहुँचता है और वहाँ प्रसुप्त कुण्डलिनी शक्ति को प्राणाग्नि को अपने प्रचण्ड आघातों से जगा रहा है ।

सूर्यभेदन प्राणायाम का योगशास्त्रों में असाधारण महत्व बताया गया है । कुण्डलिनी महाशक्ति के जागरण के लिए जिस प्राण ऊर्जा की प्रचुर परिमाण में आवश्यकता पड़ती है, वह प्रयोजन सूर्यभेदन द्वारा ही पूरा होता है । प्रक्रिया सामान्य है किन्तु परिणाम असाधारण एवं चमत्कारी हैं ।


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