इस आतप का शमन करेगा अध्यात्म दर्शन !

February 1992

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मूर्धन्य मनोवैज्ञानिक कारेन हार्नी अपनी कृति “न्यूरोटिक पर्सनालिटी ऑफ आवर टाइम्स “ में कहते हैं कि आज जितने अधिक पुरुष एवं महिलाएँ मनोवैज्ञानिक रूप से असामान्य हैं, उतने इस वैज्ञानिक युग से पहले कभी नहीं थे । यूनेस्को द्वारा प्रकाशित “कोरियर” नामक पत्रिका के एक विशेषांक में मानसिक रोगों के बारे में आँकड़ों सहित दी गई जानकारी से स्पष्ट होता है कि समस्त संसार के व्यक्तियों की मानसिक स्थिति बड़ी दुःखद है । लगभग इसी तरह का मत “बर्ल्ड फेडरेशन ऑफ मेण्टल हेल्थ “ जैसी संस्थाओं ने भी प्रकट किया है कि इस सुविधा सम्पन्न युग में भी आज मानसिक विखण्डन किसी भी तरह कम न होकर सतत् बढ़ता ही जा रहा है ।

इस समस्या के समाधान का किसी देश की शासन प्रणाली से भी कोई सम्बन्ध नहीं है । यह प्रणाली चाहे साम्यवादी हो या प्रजातांत्रिक अथवा समाजवादी इसमें हेर-फेर से समस्या का समाधान संभव हो जायेगा, ऐसी आशा करना दुराशा मात्र ही होगी । इस परेशानी का निवारण तभी सम्भव है , जब उसके सही कारण की खोज की जाय ।

भारतीय मनोवैज्ञानिक डॉ. आई. पी. सचदेव ने अपने शोधग्रंथ “ योग एण्ड साइको एनालिसिस “में इस समस्या के मूल कारणों के विषय में विशद विचार किया है । उन्होंने बताया है कि विज्ञान युग के पूर्व व्यक्ति में जो धार्मिक आस्थाएँ तथा वैयक्तिक मान्यताएँ थी, उन पर विज्ञान के प्रत्यक्षवाद ने भरपूर कुठाराघात किया है जिसका परिणाम आज हम मानसिक रोगों के रूप में भुगत रहे हैं । अरटुर आइसेनवर्ग ने भी अपनी कृति “रिफ्लेक्शन्स ऑफ साइकोलॉजिकल इनसेक्यूरिटी इन मॉडर्न मैन” में भी इसी मत का समर्थन किया है ।

निःसन्देह समस्या के उपर्युक्त कारण में विषय में इन मनोवैज्ञानिकों के मतों को यथार्थ समझा जा सकता है । विज्ञान के नित नूतन होने वाले आविष्कारों से सुविधा संवर्धन तो खूब हुआ है , पर साथ ही धार्मिक एवं नैतिक अवमूल्यन में भी कोई कोर-कसर नहीं , छोड़ी गयी । इस तरह के अवमूल्यन ने एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र के प्रति , एक जाति से दूसरी जाति के प्रति , एक परिवार से दूसरे परिवार के प्रति भरपूर नफरत पैदा कर दी है । यहीं नहीं, इस बीमारी से पति, पत्नी पिता-पुत्र के भी आपसी सम्बन्ध प्रभावित हुए हैं । यहाँ तक कि स्वयं व्यक्ति अपने प्रति भी इसी भाव से भर गया है । यही कारण है कि जहाँ पति-पत्नी की पारस्परिक नफरत एक दूसरे से तलाक लेने की नौबत पैदा करती है , वहीं पिता पुत्र आपसी स्वार्थों के लिए एक-दूसरे को मार देते हैं । व्यक्ति स्वयं अपने प्रति नफरत एवं घृणा रखकर आत्महत्या कर लेता है । इन सारे बिखरावों का एक मात्र कारण है जीवन के उद्देश्य तथा पारस्परिक सम्बन्धों की समुचित व्याख्या तथा प्रतिपादन के परिपालन का अभाव । कारण कि विज्ञान और उसके अध्येता वैज्ञानिक चाहे कितने भी सक्षम एवं सामर्थ्यवान क्यों न हों, पर उनके द्वारा की गई शरीर क्रिया एवं संरचना संबंधी मीमांसा अभी तक मानवीय सम्बन्धों की मधुरता का कोई समुचित आधार नहीं प्रस्तुत कर सकी हैं । विज्ञान ने यह भले ही सिखाया हो कि चन्द्रमा, मंगल या बुध पर कैसे पहुँचा जाय, अंतरिक्ष में बस्तियाँ बनाकर कैसे रहा जाय, पर धरती पर सही ढंग से रहना वह आज तक नहीं सिखा पाया ।

यहाँ उद्देश्य विज्ञान की निन्दा करने जैसा न होकर मानव के स्वयं के तथा आपसी बिखराव के कारण की विवेचना करना ही है । यह बिखराव दूर भी तभी हो सकता है, जब धार्मिक एवं नैतिक मूल्यों की पुनः स्थापना हो ।

वर्तमान समय में इस प्रतिष्ठापना में एक मौलिक कठिनाई यह है कि आज का समाज पूर्व की तरह आस्थापरायण विश्वासी न होकर बुद्धिवादी व तर्क-परायण है । यह उन्हीं तथ्यों को स्वीकार करने के लिए तैयार है जो उसकी बुद्धि को सन्तुष्ट करें तथा तर्कों की कसौटी पर सत्यापित किये जा सकें । क्या ? क्यों ? एवं कैसे ? का जवाब पाए बगैर उसे कोई बात भाती नहीं है, ईश्वर क्या है ? पड़ोसी से क्यों स्नेह किया जाय ? इन सब सवालों का ठीक-ठीक जवाब पाए बिना व्यक्ति आस्तिक बनने की जगह नास्तिक बनने में ही कहीं अधिक भलाई मानेगा । इसी तरह जो धर्म यह कहता है कि अमुक किताब में जो लिखा है उसे मानना ही पड़ेगा । हमारी बातें मानो नहीं तो तुम काफिर हो, उसकी भी बातों का आज मखौल ही उड़ाया जाएगा । इन धार्मिक मतवादों की असफलता के बाद बिखराव कैसे दूर हो?

इस बिखराव को दूर करने के लिए आवश्यकता एक सशक्त मनोवैज्ञानिक प्रणाल की है, किन्तु फ्रायड जैसे मनो अध्येताओं के सिद्धान्तों से भी काम नहीं चलने का, क्योंकि आज व्याप्त रहे चिन्ता उद्वेग के कारण मात्र कामुक वासनाओं का पूरा न होना नहीं है, इस तथ्य को वर्तमान मनोवैज्ञानिकों ने भी एक स्वर से स्वीकारा है । इसी कारण डॉ. सी. जी. युँग सरीखे अध्येताओं ने आध्यात्मिक तथा नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना के लिए प्रयास किए हैं । इस विषय में उनकी कृति “मॉर्डन मैन इन सर्च ऑफ सोल” काफी उल्लेखनीय है । युँग के अतिरिक्त इस दिशा में फ्रैकल, राबर्टो, असागिओली व गार्डनर मर्फी के प्रयास भी सराहनीय हैं ।

वर्तमान समय में आज के बुद्धिवादी वैज्ञानिक मन की सारी व्यथाओं को दूर करने तथा एक सर्वांगपूर्ण मनोवैज्ञानिक प्रणाली प्रदान करने का साहस अभी भी भारतीय ऋषियों द्वारा प्रणीत आध्यात्म विज्ञान करता है । यह तथ्य चौंकाने वाला भले लगे, पर है सर्वथा सत्य।

निः सन्देह विश्व के इतिहास में पहली बार धर्म , आध्यात्म एवं दर्शन तीनों एक साथ एक बिन्दु पर आ मिले हैं और उनने अपनी वैज्ञानिकता सिद्ध की है । इस वैज्ञानिकता से परिपूर्ण पद्धति ही एक सर्वांगपूर्ण मनोवैज्ञानिक प्रणाली के रूप में पल्लवित हुई, जिसे योगदर्शन , योग मनोविज्ञान या अध्यात्म मनोविज्ञान कहा गया । महर्षि पतंजलि के ये सुसम्बद्ध सूत्र यद्यपि अपने मूल भावों में उससे भी पहले उपनिषदों, वेदों में विद्यमान हैं फिर भी इन्हें सुव्यवस्थित कर मनोवैज्ञानिक स्वरूप देने का श्रेय उन्हीं को प्राप्त है । इसकी सराहना , मनोवैज्ञानिक युँग परामनोवैज्ञानिक व मर्फी सभी कर चुके हैं । पूर्णतया प्रयोग परीक्षण पर आधारित यह पद्धति निश्चित ही आज के व्यक्ति विशेष तथा समूह रूप समाज के बिखराव को दूर करने में पूर्णतया सक्षम है । इसमें सभी पक्षों की तर्क सम्मत व्याख्या करते हुए समाधि अर्थात् समधी (बुद्धि के समत्व में प्रतिष्ठित होने) तथा मन से अतिमन की ओर आरोहण करने का सहज सुगम राजमार्ग बताया गया है । इसी कारण स्वामी विवेकानन्द प्रभृति मनीषियों ने इसे “राजयोग“ भी कहा है । इसी प्रणाली को साधारण किसान से उच्चस्तर के बुद्धिवादी वैज्ञानिक तक सभी इसकी मूल मान्यताओं को व्यवहार में लाकर सभी प्रकार की मनोव्यथाओं से मुक्ति पा आनन्द में प्रतिष्ठित हो सकते हैं ।


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